सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने शनिवार को कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले की विस्तारपूर्वक समीक्षा की ज़रूरत है, क्योंकि अदालत ने दोषियों के ख़िलाफ़ लगे आरोप की गंभीरता समेत मामले के गुण-दोष पर ग़ौर नहीं किया. कोर्ट ने साईबाबा का उन्हें जेल से रिहा कर घर में नज़रबंद करने का अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने माओवादियों से कथित संबंध के मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा और अन्य को बरी करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को शनिवार को निलंबित कर दिया.
शीर्ष न्यायालय ने साईबाबा के उनकी शारीरिक अशक्तता तथा स्वास्थ्य स्थिति के कारण उन्हें जेल से रिहा करने तथा घर में नजरबंद करने के अनुरोध को खारिज कर दिया.
महाराष्ट्र सरकार ने इस अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि आज कल ‘शहरी नक्सलियों’ के घर में नजरबंद होने की मांग करने की नई प्रवृत्ति पैदा हो गई है.
ज्ञात हो कि उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को इस मामले में साईबाबा तथा अन्य को बरी किया था. इसी दिन हाईकोर्ट के आदेश के कुछ घंटों बाद महाराष्ट्र सरकार ने फैसले पर रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी, लेकिन शीर्ष अदालत ने इसे अस्वीकार कर दिया. हालांकि शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र सरकार को यह अनुमति दी थी कि वह तत्काल सूचीबद्ध किए जाने का अनुरोध करते हुए रजिस्ट्री के समक्ष आवेदन दे सकती है.
शुक्रवार को हाईकोर्ट की पीठ ने मामले के पांच अन्य दोषियों- महेश तिर्की, पांडु नरोटे, हेम मिश्रा, प्रशांत राही और विजय एन. तिर्की की याचिका भी स्वीकार की थी और उन्हें बरी करने का आदेश दिया था. इनमें से एक याचिकाकर्ता पांडु नरोटे की मामले में सुनवाई लंबित होने के दौरान बीते अगस्त महीने में मौत हो चुकी है.
मार्च 2017 में, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की एक सत्र अदालत ने साईबाबा और पांचों अन्य आरोपियों को माओवादियों से कथित संबंध और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने की गतिविधियों में शामिल होने के लिए दोषी ठहराया था. अदालत ने साईबाबा और अन्य को सख्त गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के विभिन्न प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया था.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, शनिवार को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने साईबाबा के इस अनुरोध को खारिज कर दिया कि उनकी शारीरिक अशक्तता और स्वास्थ्य स्थिति को देखते हुए उन्हें घर में नजरबंद किया जाए. पीठ ने गैर-कामकाजी दिन भी इस मामले की सुनवाई की.
पीठ ने कहा, ‘हमारा यह मानना है कि यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 390 के तहत शक्ति के इस्तेमाल और उच्च न्यायालय के आदेश को निलंबित करने का उपयुक्त मामला है.’
पीठ ने मामले में साईबाबा समेत सभी आरोपियों की जेल से रिहाई पर रोक लगा दी. उच्चतम न्यायालय ने साईबाबा, अन्य से उन्हें बरी करने संबंधी बंबई उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार की अपील पर जवाब मांगा है.
पीठ ने उच्च न्यायालय के 14 अक्टूबर के आदेश को निलंबित करते हुए कहा, ‘आरोपियों को सबूतों के गुण-दोष की विस्तृत विवेचना के बाद दोषी ठहराया गया था. अपराध बहुत गंभीर हैं, जो भारत के समाज, संप्रभुता एवं अखंडता के हितों के खिलाफ हैं. उच्च न्यायालय ने इन सभी पहलुओं पर गौर नहीं किया और यूएपीए के तहत अनुमति के आधार पर आदेश पारित किया.’
न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले के संबंध में विस्तारपूर्वक समीक्षा करने की आवश्यकता है, क्योंकि उच्च न्यायालय ने दोषियों के खिलाफ लगे आरोप की गंभीरता समेत मामले के गुण-दोष पर गौर नहीं किया.
लाइव लॉ के अनुसार, सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता के हवाले से कहा, ‘6 आरोपी हैं. अब तक 1 से 5 तक के आरोपितों का तर्क था कि मंजूरी उचित नहीं है. जहां तक आरोपी 6 (साईबाबा) का संबंध है, उन्होंने सुनवाई में मंजूरी का आधार नहीं उठाया और इसे अपीलीय स्तर पर उठाया गया. एक मंजूरी का उद्देश्य उस दायरे को सुनिश्चित करना है कि किसी व्यक्ति को मुश्किल स्थिति में नहीं डाल रहा है. यहां ऐसा नहीं है. अगर पूरी सुनवाई के बाद व्यक्ति दोषी पाए जाते हैं, तो कोई कष्टप्रद सुनवाई नहीं है.’
एसजी ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 465 का भी हवाला दिया ताकि यह साबित किया जा सके कि अभियोजन की मंजूरी में अनियमितताएं मुकदमे को अप्रभावी नहीं करेंगी.
लाइव लॉ के अनुसार, मेहता ने आगे कहा, ‘आरोपी एक से पांच तक प्यादे हैं, आरोपी नंबर 6 (साईबाबा) मास्टरमाइंड हैं. जब मंजूरी पर विचार किया गया था, तब अपील के पैरामीटर अलग थे.’
जब एसजी ने बताया कि निचली अदालत ने कहा है कि यह एक बहुत ही गंभीर अपराध है, इस पर जस्टिस शाह ने कहा, ‘उच्च न्यायालय ने निचली अदालत की कुछ टिप्पणियों का भी उल्लेख किया है, लेकिन उन पर विचार नहीं किया है.’
आदेश सुनाते हुए कोर्ट ने कहा, ‘हाईकोर्ट ने गुण-दोष पर विचार नहीं किया. अदालत ने आरोपी को केवल इस आधार पर बरी कर दिया कि मंजूरी अमान्य थी और कुछ सामग्री जो उपयुक्त प्राधिकारी के सामने रखी गई थी और उसी दिन मंजूरी दी गई थी. ‘
इस बीच साईबाबा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता आर. बसंत ने अदालत को सूचित किया कि संज्ञान की तारीख या आरोप तय करने की तारीख पर कोई मंजूरी नहीं थी.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस शाह ने कहा, ‘हम नोटिस जारी करेंगे, रिहाई देंगे, सवाल तैयार करेंगे. आरोपी 1 से 5 तक भी सुनने की जरूरत है. हम इसे छुट्टी के बाद देखेंगे.’
बसंत ने हाईकोर्ट के आदेश को निलंबित न करने का अनुरोध किया, जिस पर जस्टिस त्रिवेदी ने जवाब दिया, हाईकोर्ट ने मंजूरी के मुद्दे पर और निचली अदालत के निष्कर्षों को पलटे बिना बरी कर दिया है. जस्टिस शाह ने जोड़ा, ‘आप सबमिशन इस आधार पर कर सकते हैं कि निर्णय को निलंबित करने की आवश्यकता नहीं है.’
बार और बेंच के अनुसार, इसके बाद, बसंत ने कहा, ‘धारा 437 सीआरपीसी तब लागू होती है जब व्यक्ति को बरी कर दिया जाता है या रिहाई दे दी जाती है. इसलिए अब सजा को स्थगित करने की जरूरत नहीं है.’
सुनवाई के दौरान पीठ ने ‘हाईकोर्ट के मामले के गुण दोष न देखने और निर्णय लेने के लिए शॉर्टकट ढूंढने’ की गलती का जिक्र भी किया, तब बसंत ने कहा कि उनके मुवक्किल पक्षाघात के साथ शारीरिक रूप से 90-95 फीसदी अक्षम हैं और पूरी तरह व्हीलचेयर पर निर्भर हैं.
उन्होंने जोड़ा, ‘उन्हें कई अन्य बीमारियां हैं जिन्हें न्यायिक रूप से स्वीकार किया गया है. वह अपने व्हीलचेयर तक ही सीमित है. इसके अलावा उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है. वे विचारधारा के प्रति झुकाव रख सकते हैं पर वे एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं. उनकी संलिप्तता दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है.’
जब जस्टिस शाह ने कहा कि ‘जहां तक आतंकवादी या माओवादी गतिविधियों का सवाल है, दिमाग ज्यादा खतरनाक है. प्रत्यक्ष भागीदारी आवश्यक नहीं है, तब बसंत ने जवाब दिया, ‘एसजी कहते तो हैं कि उनका दिमाग इस्तेमाल किया गया था, लेकिन ऐसा हुआ यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है.’
बसंत ने यह भी कहा, ‘उनकी 23 साल की बेटी और पत्नी है. उन्हें गंभीर बीमारियां हैं जिससे हालात और बिगड़ रहे हैं. इन पहलुओं पर गौर करते हुए कृपया उन्हें वापस जेल में मत भेजिए. कृपया उन्हें जेल से रिहा कीजिए और घर पर नजरबंद करिए तथा वह अदालत द्वारा लगाई किसी भी शर्त का पालन करेंगे.’
घर में नजरबंद करने का विरोध करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ‘आजकल शहरी नक्सलियों के घर पर नजरबंद होने की मांग करने प्रवृत्ति हो गई है, लेकिन घर से सबकुछ किया जा सकता है. घर पर नजरबंदी विकल्प नहीं हो सकता.’’
इस पर बसंत ने कहा कि अदालत साईबाबा की फोन लाइन काटने का आदेश दे सकती है.
सुनवाई के दौरान मेहता ने कहा कि मामले में कुछ परेशान करने वाली बातें हैं और साईबाबा जम्मू कश्मीर में एक सशस्त्र अलगाववादी आंदोलन चलाने, देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के खिलाफ युद्ध छेड़ने और माओवादी कमांडरों की बैठकों की व्यवस्था करने समेत विभिन्न गतिविधियों में शामिल था.’’
मेहता ने कहा, ‘वह उनका मास्टरमाइंड था और उनकी विचारधारा को लागू करता था.’ इस पर बसंत ने कहा कि साईबाबा का माओवादी विचारधारा के प्रति झुकाव हो सकता है, लेकिन वह निश्चित तौर पर उनका मास्टरमाइंड नहीं थे.
उच्चतम न्यायालय ने मेहता की उस दलील को भी माना कि उच्च न्यायालय ने बरी करने का नहीं, बल्कि आरोपमुक्त करने का आदेश दिया और निचली अदालत के फैसले को नहीं पलटा.
मालूम हो की इससे पहले हाईकोर्ट ने साईबाबा को जेल से तत्काल रिहा करने का आदेश दिया था. साईबाबा (52) नागपुर केंद्रीय जेल में मई 2014 में गिरफ्तारी के बाद से बंद हैं.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)