कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिन्दी अंचल की बढ़ती धर्मांधता, सांप्रदायिकता और हिंसा की मानसिकता आदि का एक कारण इस अंचल की मातृभाषा और कलाओं से ख़ुद को वंचित रहने की वृत्ति है. स्वयं को कला से दूर कर हम असभ्य राजनीति, असभ्य माहौल और असभ्य सार्वजनिक जीवन में रहने को अभिशप्त हैं.
‘हंस’ पत्रिका ने अपने संपादक राजेंद्र यादव की स्मृति में दिल्ली में ‘स्त्री सृजन का सारा आकाश’ विषय पर एक बड़ा लेखक समारोह किया. जैसे कि दलित विमर्श वैसे ही स्त्री विमर्श हिन्दी में थोड़ी देर से आया: अन्यत्र और अनेक कलाओं में वह पहले जगह बना चुका था.
पर, दूसरी ओर यह भी सही है कि आज हिन्दी साहित्य में स्त्रियां, सदियों तक चुप रहने, चुप होने के लिए विवश किए जाने के बाद निर्भीकता और साहस, संवेदना और नवाचार से बोल रही हैं: उनकी उपस्थिति और सक्रियता, उनकी बेबाकी और जोखिम उठाने की वृत्ति हिन्दी साहित्य के अपने लोकतंत्र का विस्तार कर रही हैं और उसका सत्यापन भी.
इस बात को भी याद करना ज़रूरी है कि आधुनिक समय में महादेवी से लेकर कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पांडे से लेकर अलका सरावगी, गीतांजलि श्री तक ने साहित्य में निर्भीकता, गहरी प्रश्नवाचकता, नैतिक चुनौतियां, बखान की नई शैलियां आदि विकसित की हैं.
इस समय स्त्रियों द्वारा किया जा रहा सृजन और आलोचना जो जगह बना रही है उसके लिए उन्होंने कोई रू-रियायत नहीं मांगी है और न ही वह उन्हें अनुग्रह के रूप में मिल रही है. वह जगह उन्हें समाजशास्त्रीय कारणों से भी नहीं मिल रही है. उस जगह पर वे अपनी मानवीयता और साहित्यिक मूल्यवत्ता के आधार पर ही काबिज हो रही हैं.
हिन्दी में अब तक प्रगट अनुभवों, भावनाओं-स्मृतियों-संवेदनाओं-बिम्बों-छबियों-अंतर्ध्वनियों के भूगोल में विस्तार हो रहा है. सच तो यह है कि बिना स्त्री-सृजन के अब तक का अधिकांश साहित्य समग्रता का दावा कर ही नहीं सकता. साहित्य और कलाओं में स्त्रियों का अभ्युदय, उनकी व्याप्ति और सक्रियता स्वयं भारतीय लोकतंत्र, संविधान और आधुनिकता का सत्यापन है, विस्तार भी.
यह ग़ौर करने की बात है कि यह स्त्री मुखरता और सृजनशीलता, एक तरह से, लोकतंत्र और आधुनिकता के कारण संभव हुई है. यह विडंबना है कि ठीक इस मुक़ाम पर जब स्त्री-सृजन लोकतंत्र के विस्तार और सत्यापन के रूप में प्रगट हो रहा है, स्वयं व्यापक लोकतंत्र को लगभग हर दिन संकुचित किया जा रहा है.
यह भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि स्त्री मात्र के साथ राजनीति, धर्म, मीडिया आदि ने विश्वासघात किया है: स्त्रियों के लिए संसद में 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने का मामला दशकों के लंबित है. धर्म पारंपरिक रूप से स्त्री विरोधी रहकर उसको कमतर मनुष्य आंकते रहे हैं. मीडिया अधिकांशतः स्त्री की समस्याओं के प्रति उदासीन रहा है और विज्ञापन आदि में उसे सस्ता और बिकाऊ बनाता रहा है.
स्त्रियों को साहित्य का कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने उन्हें सम्मान, आदर और जगह दी है और अपने परिसर में अब बिना किसी बाधा के दाखि़ल होने दिया है. सदियों तक भूमिस्थ और भूमि पर ही सीमित होने के बाद अब अगर स्त्रियां सारा आकाश अपनी आकांक्षा में शामिल कर रही हैं तो यह उचित और न्याय-सम्मत है.
जीवन और कला
कुछ बरसों बाद ग्वालियर में स्थित आईटीएम विश्वविद्यालय, वहां रज़ा शती के अंतर्गत आयोजित एक प्रदर्शनी के सिलसिले में, जाना हुआ. इस बीच उसका परिसर और विस्तृत और कला-संपन्न हो गया है: उसमें एक स्कूल भी खुला हुआ है जहां इतनी मौलिक कलाकृतियां लगी हैं कि वह साथ-साथ एक सुघर संग्रहालय भी है.
यह अनूठा विश्वविद्यालय जहां के परिसर में खुले आसमान के नीचे न सिर्फ़ भारत बल्कि संसार भर के मूर्तिकारों के बड़े-बड़े शिल्प लगे हैं. मुख्य रूप से टेकनोलॉजी और प्रबंधन के संस्थान के रूप में शुरू हुए इस अद्वितीय संस्थान में कबीर, लियोनार्दो द विंची, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां, राममनोहर लोहिया आदि के नाम पर परिसर और सभागार आदि हैं.
मुझे याद नहीं आता कि इतनी कलावस्तुएं भारत के किसी विश्वविद्यालय में तो दूर किसी कला-संस्थान में प्रदर्शित हों. यह सब उसके संस्थापक रमाशंकर सिंह की लोहिया-दीक्षित कला-दृष्टि के कारण संभव हुआ है.
ऐसे कलाप्रवण परिवेश में जीवन और कला पर बोलने का सुयोग मिला. जीवन सबके पास है, पर कला सबके पास नहीं है. कला के बिना जीवन संभव है पर जीवन के बिना कला संभव नहीं है. जीवन कला से अधिक विशाल-विपुल, जटिल-व्यापक, असमाप्य और अनंत है. जीवन की अपार, अबूझ, कई बार असह्य और सुंदर बहुलता है. यही जीवन कलाएं भी उत्पन्न प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित और प्रसारित करता है. जीवन कला का मुख्य उपजीव्य है.
ज़्यादातर कलाकार, संगीत-नृत्य-रंगमंच-ललित कलाओं के मध्यवर्ग से आते हैं. हस्तशिल्प और आदिवासी-लोक कलाओं के कलाकार आर्थिक रूप से वंचित तबके से आते हैं. हमारी शिक्षा-व्यवस्था ज़्यादातर सांस्कृतिक दृष्टि से साक्षर बनाने के बजाय सांस्कृतिक निरक्षरता फैलाती है.
अचरज नहीं कि इस समय भारत का मध्यवर्ग या तो कलाशून्य है या कला-विमुख और विरोधी. हमारे नए निज़ाम ने कलाओं को विशाल तमाशों में बदल दिया है और मध्यवर्ग उन पर लहाहोट होता रहता है.
कलाएं हमें जताती हैं कि सारी सुंदरता दी हुई नहीं है: मनुष्य प्रकृति से अलग खुद कुछ सुंदरता रच सकता है, शब्दों से, रंग-रेखाओं से, स्वरों, मिट्टी-पत्थर-लकड़ी, मुद्राओं और शरीर से. जब हम कलाओं के साथ होते हैं तो कुछ अधिक देखते, अधिक सुनते, अधिक महसूस करते, अधिक सोचते हैं.
कलाएं संसार की अदम्य और अपार बहुलता की अभिव्यक्ति और सत्यापन हैं- वे हमें एकसेपन और एकरसता से मुक्त रखती हैं. वे हमें यथास्थिति को स्वीकार करने की विवशता से मुक्त कर प्रश्नवाची बनाती हैं. कलाओं में हम ‘हम’ भर नहीं रहते ‘दूसरे’ भी हो जाते हैं- हमारी संवेदना और सहानुभूति का भूगोल विस्तृत हो जाता है.
वे हमें दूसरे समयों, दूसरे भूगोलों, दूसरी संस्कृतियों में दूसरों के साथ होने में मदद करती हैं. उनके संस्पर्श से हम अपने आप से, अपने समय और समाज से अधिक नज़दीक हो जाते हैं. वे हमें हर्ष-उल्लास, दुख-निराशा, जिज्ञासा-प्रश्नवाचकता, उम्मीद और सपनों की बड़ी बिरादरियों में शामिल करती हैं.
यह देखना दिलचस्प होगा कि कलाएं, जिसके अधिकांश कलाकार मध्यवर्ग से ही आते हैं, इस वर्ग में कितनी जगह बना पाई हैं. ख़ासकर हिन्दी अंचल में यह वर्ग लगातार अपनी मातृभाषा से दूर जाता, उसके साथ विश्वासघात करता वर्ग है. यही नहीं, वह कलाओं से भी दूर जाता वर्ग है.
यह आकस्मिक नहीं है कि पहले लगभग पचास वर्षों में हिन्दी मध्यवर्ग ने कलाओं के क्षेत्र में भारत के अन्यभाषी मध्यवर्गों की तुलना में सबसे कम योगदान किया है. बंगाल, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु में कलाओं को उनके मध्यवर्ग ने जगह भी दी है और अन्य प्रकार के समर्थन भी.
कम से कम मेरे मन में, इसी हिन्दी का लेखक और कलाप्रेमी होने के नाते, यह स्पष्ट है कि हिन्दी अंचल की बढ़ती धर्मांधता, सांप्रदायिकता, हिंसा और हत्या की मानसिकता आदि का एक कारण इस अंचल की मातृभाषा और कलाओं से अपने को वंचित रहने की वृत्ति है. कलाएं हमें अधिक मानवीय, संवेदनशील और सहिष्णु बनाती हैं. उनसे अपने को दूर कर हम असभ्य राजनीति, असभ्य माहौल और असभ्य सार्वजनिक जीवन में रहने को अभिशप्त हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)