आवाज़ों का तुमुल कोलाहल लगातार बढ़ रहा है पर आवाज़ की जगहें कम हो रही हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बहुत असाधारण समय है तो ऐसे में नागरिकता के कर्तव्य भी असाधारण होते हैं. ऐसे में हमारी सभ्यता का तकाज़ा है कि हम तरह-तरह से आवाज़ उठाएं, चुप न रहें. व्यापक जीवन, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों, समरसता के पक्ष में और घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-अन्याय के विरुद्ध.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बहुत असाधारण समय है तो ऐसे में नागरिकता के कर्तव्य भी असाधारण होते हैं. ऐसे में हमारी सभ्यता का तकाज़ा है कि हम तरह-तरह से आवाज़ उठाएं, चुप न रहें. व्यापक जीवन, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों, समरसता के पक्ष में और घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-अन्याय के विरुद्ध.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

इन दिनों राजनीति में ‘रामायण’ का बोलबाला है जो ज़्यादातर लोगों को ‘महाभारत’ की याद नहीं आती. ‘रामायण’ में सत्य संशय के घेरे में आया था पर वह, फिर भी, साबित बच पाया था- उसके अंत में रामराज्य स्थापित हुआ था. ‘महाभारत’ तक आते सत्य बुरी तरह से क्षत-विक्षत होता है और कई अर्द्धसत्यों में बिखर जाता है, इतना कि उसे अर्द्धसत्यों का महाकाव्य तक कहा जा सकता है. उसके अंत में जो राज्य स्थापित होता है वह खोखला है, सत्वहीन.

महाभारतकार व्यास स्वयं कहते हैं कि कोई उनकी नहीं सुन रहा है. इसलिए आज अगर भारत का एक बड़ा हिस्सा, महाभारत में वर्णित हिंसा-हत्या-घृणा-असत्य-विश्वासघात-अधर्म की चपेट में है तो महाभारत और उसके सत्व और मर्म की ओर न लौटना एक विडंबना की तरह देखा जा सकता है: मनुष्य जब-तब विवश याद तो करता है, पर अक्सर याद से बचता है.

इस संदर्भ में कवि बोधसत्व की नई पुस्तक ‘महाभारत: यथार्थ कथा’ (वाणी प्रकाशन) इस महाकाव्य को एक नए ढंग से खोजने की सार्थक कोशिश है. पूरी निर्भीकता और अध्वसाय के साथ इक्कीसवीं शताब्दी का यह कवि इसरार करता है कि ‘महाभारत के सारे सत्य अर्द्धसत्य हैं’ और ‘छूट गए अर्द्धसत्यों की कथा’ कहता है.

महायुद्ध अठारह दिन चला था और बोधिसत्व ने अठारह अध्यायों में वीरता, अपराजेयता, धर्मशीलता, रक्तपान, अनाचार, विनाश, दानवीरता, अमरता, उत्तराधिकार, उपेक्षा, नियमों, निरपेक्षता, सत्यवाद आदि के अर्द्धसत्यों का बखान किया है. यों तो महाभारत स्वयं सचाई-धर्म-सत्ता-भविष्य-नीति-आचरण आदि पर तिरछा आलोक डालता है: बोधिसत्व स्वयं महाभारत पर कुछ तिरछा आलोक डालते हैं.

कई अध्यायों के आरंभ में ‘महाभारत’ से कुछ पंक्तियां उद्धृत की गई हैं, मूल संस्कृत में, हिंदी अनुवाद के साथ. उनमें से कुछ हिंदी अनुवाद में नीचे दी जा रही हैं, इस अपेक्षा से कि इस कालजयी महाकाव्य में ऐसा बहुत कुछ है जो हमें आज भी प्रेरित और उद्वेलित कर सकता है:

‘हे राजन्, जो धर्म दूसरे धर्म का विरोध करता है वह धर्म नहीं, कुछ कुधर्म है. जिस धर्म को दूसरे धर्म से विरोध नहीं वही सत्य धर्म है. – वन पर्व

‘सत्य के समान कोई धर्म नहीं हे, और सत्य से बढ़कर उत्तम पदार्थ भी कुछ नहीं है. इस संसार में झूठ बोलने से अधिक तीव्र अर्थात् पापमय कुछ भी नहीं है.’ -आदि पर्व

‘हे महिपाल, एक धर्म का जब दूसरे धर्म का विरोध हो तो उनमें कौन बड़ा और कौन छोटा है, यह विचार कर देखना चाहिए. जो धर्म दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता, उसी धर्म को अपनाना चाहिए.’

‘वही सच्चा राजन है, जिसके राज्य में लोग कैसे ही निर्भय विचरण करते हैं, जैसे पिता के घर में पुत्र.’ -उद्योग पर्व

‘जो राजा सब पर शंका करने वाला, सबसे धन छीनने वाला, अथवा सर्वस्व हरने वाला, कुटिल, लालची हो उसका स्वजनों द्वारा वध किया जाता रहा उसे बांधा जाता है.’ -वन पर्व

‘हे धृतराष्ट्र, दस लोग ऐसे हैं जो धर्म को नहीं जान सकते, उन्हें आप जानें: मदिरा से मस्त, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोध में आया हुआ, भूखा, जो जल्दी में है, लालची, डरा हुआ और कामी.’ -उद्योग धर्म

‘वे ही सुखी हैं, जो पूर्णतया मूर्ख हैं, अथवा वे सुखी हैं जो ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुंचे हैं. बीच में पड़ा मनुष्य सदैव कष्ट ही झेलता है.’ -शांति पर्व

‘शास्त्र यदि एक हो तो श्रेय का रूप निस्संदेह ढंग से प्रकट हो जाए. नाना शास्त्रों द्वारा श्रेय का स्वरूप गुफा में छिप गया है.’ -वन पर्व

‘संसार में कोई बात पूर्णतया गुणोंवाली नहीं होती और न कोई सर्वथा निर्गुण होती है. सभी कार्यों में भलाई और बुराई दोनों दिखाई देती हैं.’ -वन पर्व

यहां भारत का पारंपरिक विवेक एकत्र है. उससे सबक लेने को आज कौन तैयार है?

आवाज उठाना

यों तो इन दिनों आवाज़ के कुछ प्रकार जैसे चीख़-पुकार, धमकियां और दावे, खौखियाना और चिल्लाना आदि इतने अधिक हर दिन बल्कि दिन-रात इस क़दर हर दिशा से सुनाई देते हैं कि उनसे बंद कमरे तक में बचना मुश्किल हो गया है. माहौल कुछ ऐसा है कि जितना हम हवा से घिरे हैं उतना ही शायद आवाज़ों से.

ऐसे में सयानी सलाह यही होती है कि इस भीषण तुमुल में आवाज़ उठाना बुद्धिमानी नहीं है, चुप रहना बेहतर है. अधिक व्यावहारिक है. आवाज़ उठाना ख़तरा मोल लेना है: कई बार आप उस जगह से हटाए जा सकते हैं जहां आपका ख़याल था कि आवाज़ सबसे अधिक सुरक्षित ढंग से उठाई जा सकती है.

आवाज़ों का तुमुल कोलाहल तो लगातार बढ़ रहा है पर आवाज़ की जगहें कम हो रही हैं. ख़ामोश करने या बेआवाज़ करने की एक अक्षौहिणी सेना है जो सदल-कल आवाज़ की जगहों को रौंदती हुई, उसे ख़ामोशी के हवाले करती हुई, लगातार आगे बढ़ रही है. इस सेना ने धर्म पर विजय प्राप्त कर ली है और अब उनमें चिंतन-मनन-प्रार्थना तक की संभावना नहीं बची: वे सिर्फ़ कानफोड़ कीर्तन अहर्निश कर सकते हैं. उसने मीडिया को अधीन कर और अब वहां स्तुति और अभ्यर्थना भर संभव रह गए हैं.

अभी बचा रह गया है साहित्य जो उसके रौंदने के उत्साह की नज़र में नहीं आया है. या शायद आ तो गया है पर उसे रौंदने के लिए कोई दीर्घकालीन नीति पर अमल हो रहा है. बुद्धि और विद्वत्ता की दुनिया पर तो वह काबिज हो ही गई है और वहां भक्ति और सहमति की भजनावली रोज़ीना गाई जाने लगी है.

लोकबुद्धिजीवी और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने पिछले सप्ताह एक सार्वजनिक बातचीत के दौरान यह प्रश्न उठाया कि इस समय लोकतांत्रिक संकट और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों का परिवेश है उसमें लेखकों का अपनी रचना में लिखकर प्रतिरोध करना, पर उससे अलग नागरिक और अन्य सार्वजनिक मंचों पर कुछ न कहना, अपनी आवाज़ न उठाना क्या उचित है.

उत्तर में मैंने याद दिलाया कि दशकों मेरा आग्रह यह रहा था कि कविता पर्याप्त नागरिकता है और उसे लिखकर कवि पर्याप्त नागरिकता निभाता है. लेकिन आज जो संकट है वह निरे लोकतंत्र भर का नहीं उससे कहीं बढ़कर भारतीय सभ्यता का संकट है: हमारी परंपरा और उसमें अंतर्भूत समावेशी दृष्टियां, हमारा उत्तराधिकार और जातीय स्मृति, हमारी प्रश्नवाचकता, हमारी पारस्परिक निर्भरता और आस्थाएं आदि सभी संकट में हैं.

ऐसे मुक़ाम पर हमारी सभ्यता का तकाज़ा है कि हम तरह-तरह से अपनी आवाज़ उठाएं, चुप न रहें. व्यापक जीवन, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों, समरसता और आपसदारी, पारस्परिक सद्भाव आदि के पक्ष में और घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-अन्याय-शोषण आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाएं. यह बहुत असाधारण समय है तो ऐसे में नागरिकता के कर्तव्य भी असाधारण होते हैं.

ऐसी आवाज़ उठाते समय भी साहित्य नहीं भूल सकता कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन मनोवृत्तियों से प्रभावित हुए सहज मानवीयता से सक्रिय है: उसमें प्रेम-सद्भाव-आपसदारी आदि अनेक गुण बचे हुए हैं- साहित्य उनसे उचित ही प्रेरणा ग्रहण करता है. अपनी आवाज़ उठाकर हम घृणा-असत्य-हिंसा के दिग्विजय पर निकले अश्व को थामने का साहस उन साधारण जन में भर रहे होंगे जो अपने निर्मल-निष्कलंक सत्याग्रह से यह जोखिम उठाएंगे.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)