‘कोई मजिस्ट्रेट उन मुलज़िमों के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकता जिनके साथ ख़ुद सरकार ऐसा करना न चाहे’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.

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(साभार: सेतु प्रकाशन)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.

(साभार: सेतु प्रकाशन)

पिछले एक दशक से राजनीति इतनी अधम, अभद्र और असभ्य हो गई है कि अधिकांश लोकप्रिय सार्वजनिक संवाद झगड़ालू, झूठ और नफ़रत से बजबजाता हुआ, लांछन और कीचड़-उछाल में रोज़-ब-रोज़ नीच से नीचतर होता गया है. सत्तारूढ़ राजनेता घटिया स्तर पर पहुंचने की अधीरता और हड़बड़ी दिखाने में कोई संकोच नहीं करते. उदात्त और मानवीय, शिष्ट और वैचारिक जैसे राजनीति और उसके नेताओं और प्रवक्ताओं के यहां से हमेशा के लिए ग़ायब हो चुके हैं.

इस उबाऊ बेहद निराश करने वाले माहौल में युवा अध्येता मोहम्मद नौशाद ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में अपने पर चलाए जा रहे मुकदमे में जो लिखित बयान, लगभग सौ बरस पहले, कलकत्ते की एक अदालत में पेश किया था उसे हिंदी में ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से पुस्तकाकार सेतु प्रकाशन से प्रकाशित किया है.

मौलाना आज़ाद स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे और उनके कार्यकाल में ही साहित्य-ललित कला-संगीत नाटक की तीन राष्ट्रीय अकादेमियां स्थापित की गई थीं. मौलाना महात्मा गांधी के निर्भीक सहचर और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी थे. दशकों पहले उनकी उर्दू में लिखी डायरी ‘गुबार-ए-ख़ातिर पढ़ी थी जो उर्दू गद्य का एक उत्कृष्ट नमूना है. उसमें चाय के बारे में मौलाना ने विस्तार से लिखा था.

‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ के शुरुआत में ही मौलाना कहते हैं कि ‘…यह एक ऐसी जगह है जहां हमारे लिए न तो किसी तरह की उम्मीद है, न तलब है, न शिकायत है. यह एक मोड़ है जिससे गुज़रे बगै़र हम मंज़िल-ए-मक़सूद तक नहीं पहुंच सकते, इसलिए थोड़ी देर के लिए अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़ यहां दम लेना पड़ता है….’

वे आगे लिखते हैं: ‘… सरकार के सिवा कोई ज़िंदा इंसान इससे इनकार नहीं कर सकता कि मौजूदा हालत में सरकारी अदालतों से इंसाफ़ की कोई उम्मीद नहीं है. इसलिए नहीं कि वो ऐसे अश्ख़ास से मरकब हैं जो इंसाफ़ करना पसंद नहीं करते बल्कि इसलिए कि ऐसे निज़ाम (व्यवस्था) पर मब्नी (आधारित) हैं जिनमें रहकर कोई मजिस्ट्रेट उन मुलज़िमों के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकता जिनके साथ खुद सरकार इंसाफ़ करना पसंद न करती हो.’

वे यह भी कहते हैं कि ‘तारीख़ गवाह है कि जब कभी हुक्मरान ताक़तों ने आज़ादी और हक़ के मुक़ाबले में हथियार उठाए हैं तो अदालतगाहों ने सबसे ज़्यादा आसान और बे-ख़ता हथियार का काम दिया है.’

मौलाना ने अपने बयान में कुबूल किया है कि ‘यक़ीनन मैंने कहा है कि ‘मौजूदा सरकार ज़ालिम है’ लेकिन अगर मैं यह न कहूं तो और क्या कहूं? मैं नहीं जानता कि क्यों मुझसे यह तवक़्को की जाए कि एक चीज़ को उसके असल नाम से न पुकारूं? मैं सियाह को सफ़ेद कहने से इनकार करता हूं.’

वे जोड़ते हैं: ‘मैं यक़ीनन यह कहता रहा हूं कि हमारे फ़र्ज़ के सामने दो ही राहें हैं- सरकार नाइंसाफ़ी और हक-तल्फ़ी (अधिकारों का हनन) से बाज़ आए, अगर बाज़ नहीं आ सकती तो मिटा दी जाएगी. मैं नहीं जानता कि इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है? यह तो इंसानी अक़ायद की इतनी पुरानी सच्चाई है कि सिर्फ़ पहाड़ और समंदर ही इसके हमउम्र कहे जा सकते हैं. जो चीज़ बुरी है है उसे या तो दुरुस्त हो जाना चाहिए, या मिट जाना चाहिए. तीसरी बात क्या हो सकती है? जबकि मैं इस सरकार की बुराइयों पर यक़ीन रखता हूं तो यक़ीनन यही दुआ नहीं मांग सकता कि दुरुस्त भी न हो और इसकी उम्र भी दराज़ हो.’

वे एक हवाला देते हुए कहते हैं: ‘मैं इटली के नेक और हुर्रियत-परस्त जौज़फ़ मैज़िनी की जुबान में कहूंगा, हम सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे साथ आरज़ी ताक़त है, तुम्हारी बुराइयों से इनकार नहीं कर सकते.’

मौलाना आजा़द ने आगे लिखा है: ‘मेरा और मेरे करोड़ों हम-वतनों का ऐसा एतिक़ाद (आस्था) क्यों है! इसके वजूह-ओ-दलाएल अब इस क़दर आश्कारा हो चुके हैं कि मिल्टन के …लफ़्ज़ों में कहा जा सकता है ‘सूरज के बाद दुनिया की हर चीज़ से ज़्यादा वाज़ेह और महसूस’ महसूसात के लिए हम सिर्फ़ यह सकते हैं कि इनकार न करो, हालांकि मैं कहना चाहता हूं कि मेरा एतिक़ाद इसलिए है कि मैं हिंदुस्तानी हूं, इसलिए कि मैं मुसलमान हूं, इसलिए कि मैं इंसान हूं.’

उन्होंने यह भी दर्ज़ किया है:‘ मुसलमानों ने अब आखिरी फै़सला कर लिया है कि अपने हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी भाइयों के साथ मिलकर अपने मुल्क को गुलामी से निजात दिलाएंगे.’

मौ़लाना बताते हैं कि ‘हमने आज़ादी और हक़तल्फ़ी की इस जंग में ‘अहिंसा और सहयोग’ की राह इख़्तायर की है. हमारे मुक़ाबले में ताक़त अपने तमाम जब्र-ओ-तशुद्दुद और खू़न-ख़राबे वाले रवै़ये के साथ खड़ी है, लेकिन हमारा यक़ीन ..सिर्फ़ खुदा पर है और अपनी कभी ख़त्म न होने वाली कुर्बानी पर अटल है…… साथ ही हिंदुस्तान की आज़ादी और मौजूदा जद्दोजहद के लिए महात्मा गांधी की तमाम दलीलों से मुत्तफ़िक हूं और उन दलीलों की सच्चाई पर पूरा यक़ीनमंद हूं. मेरा यक़ीन है कि हिंदुस्तान अहिंसा के जद्दोजहद के ज़रिये फ़तहमंद होगा…’

बहुत बेबाक ढंग से मौ़लाना कहते हैं: ‘यही वजह है कि अब हम इस सरकार से और कुछ नहीं चाहते. सिर्फ़ यह चाहते हैं कि जिस क़दर जल्द मुमकिन हो अपने से बेहतर और हक़दार के लिए अपनी जगह ख़ाली कर दें.’

इस बयान का समापन मौलाना पूरे आत्मविश्वास के साथ यों करते हैं: ‘मुअर्रिख़ (इतिहासकार) हमारे इंतज़ार में है और मुस्तकबिल कब से हमारी राह तक रहा है. हमें जल्द से जल्द यहां आने दो और तुम भी जल्द से जल्द फै़सला लिखते रहो. अभी कुछ दिनों यह काम जारी रहेगा. यहां तक कि एक दूसरी अदालत का दरवाज़ा खुल जाएगा. यह खुदा के क़ानून की अदालत है. वक़्त इसका जज है. वो फै़सला लिखेगा और उसी का फै़सला आखिरी फै़सला होगा.’

इस बयान पर तारीख़ पड़ी है 11 जनवरी 1922 ईस्वी. यानी आज से 101 साल पहले का है यह.

तानी कथाएं

मौ़लाना आज़ाद के एक सदी पहले के बयान की कई बातें हमें आज के हिंदुस्तान की याद दिलाती हैं. उस हिंदुस्तान की जिसमें उसमें एक पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में महीनों से अशांति और हिंसा का शमन नहीं हो पा रहा है. हम ज़्यादातर अपने देश के उस हिस्से के बारे में कम ही जानते हैं.

अरुणाचल की विदुषी जोराम यालाम नाबाम ने वहां के तानी आदिवासी समाज की विश्वदृष्टि को स्पष्ट और चरितार्थ करते हुए एक अद्भु़त पुस्तक ‘तानी कथाएं’ शीर्षक से लिखी है जो राधाकृष्ण प्रकाशन से आई है.

तानी दर्शन पर एक टिप्पणी का आरंभ ऐसे सुंदर ढंग से होता है: ‘सुनसान बंजर भूमि पर अचानक एक दिन अमृत बरसता है. एक बिरवा उग आता है. धीरे-धीरे उसकी लंबी शाखा-प्रशाखाएं फैलने लगती हैं और वह पेड़ बन जाता है. उसके पत्तों का झुरमुट बनता जाता है. हवा में पत्ते लहराकर नाचते हैं. फिर एक समय आता है जब वे टूटकर गिरने लगते हैं. ऐसा लगता है मानो वे अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हों, अपने पूर्वजों के पास. हम पत्ते हैं. हमें धरती की ओर लौटना ही होगा.’

‘बिना किसी संगठित धर्म, धर्मग्रंथ, मंदिरों, मूर्तियों, गुरु-शिष्य और साधु-संन्यासी परंपरा के तानी समाज सदियों से किस प्रकार अनुशासित रह सका? पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क की कल्पनाओं के बिना यह कैसे संभव हुआ? उस पेड़ के बारे में जानना ही होगा कि किसने उसे ज़मीन से जोड़े रखा था. कौन है जो हमारी नसों में दौड़ता- फिरता रहता है? यह शरीर कितने पूर्वजों से होकर यात्रा करता हुआ हम तक आया है? वे कोई तो थे जिनके कारण हम हैं? वे नहीं होते तो हम कैसे होते. …अनेक अन्य प्रश्नों के उत्तर को जो लोग ‘जीवन’ में ही देखते हैं और जीवन को ही शास्त्र मानकर चलते हैं, वे आदिवासी हैं. ये सारे प्रश्न हमें संपूर्ण अस्तित्व से जोड़ते हैं. यही तानीधर्म है.’

नाबाम यह इसरार भी करती हैं कि ‘किसी धर्म का न होना भी एक धर्म है. यह एक दृष्टिकोण है, जिसमें सत्य को अपने ढंग से देखा और समझा जाता है. ‘आदिवासियत’ शब्द ही अपने आप में एक धर्म है.’

यों तो जिस सजल भाषा में यह पूरी पुस्तक लिखी गई है वह कविता की तरह बिंबों भरा, लयात्मक और सजल गद्य है. फिर भी, कहीं पर एक गीत भी हिंदी अनुवाद में उद्धृत है:

हे हवा, तुम अपने तेज बहाव को भूलकर
धीरे-धीरे बहते हुए ऊपर बहना, बादलों को छूना
फिर मुड़ते हुए तानी मीमेन की तरफ़ लौट आना
वहां आकाश की शून्यता में खो मत जाना
अपने मन्द बहाव का सौन्दर्य दिखा हो
न्यीया तानी और तुम ऊई तानी भाई-भाई हैं, एक हैं
उसकी मदद करना.

जल-जंगल-ज़मीन पर तानी लोगों का सार्वजनिक अधिकार होता है.

इस पुस्तक में संकलित तानी कथाएं अपने मर्म में, प्रकृति के साथ मनुष्य के तादाम्त्य और मानवीय संबंधों की विडंबनाओं को सामने लाने में बहुत सफल और सार्थक हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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