बुलडोज़र से लोकतांत्रिक न्याय प्रक्रिया या इमारतें ध्वस्त की जा सकती हैं, दंभी सवर्ण मानसिकता नहीं

जाति, धर्म, पैसे व पहुंच के आधार पर बरते जा रहे भेदभाव नागरिकों के एक समूह को निरंतर अमर्यादित शक्ति से संपन्न और उद्दंड बनाते जा रहे हैं, जबकि दूसरे विशाल समुदाय को लगातार निर्बल, असमर्थ और सब कुछ सहने को अभिशप्त. यह दूसरा समुदाय बार-बार सरकारें बदलकर भी अपनी नियति नहीं बदल पा रहा है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जाति, धर्म, पैसे व पहुंच के आधार पर बरते जा रहे भेदभाव नागरिकों के एक समूह को निरंतर अमर्यादित शक्ति से संपन्न और उद्दंड बनाते जा रहे हैं, जबकि दूसरे विशाल समुदाय को लगातार निर्बल, असमर्थ और सब कुछ सहने को अभिशप्त. यह दूसरा समुदाय बार-बार सरकारें बदलकर भी अपनी नियति नहीं बदल पा रहा है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जून, 2019 में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक शे’र उद्धृत किया था: ताउम्र गालिब यह भूल करता रहा/धूल चेहरे पर थी आईना साफ करता रहा. क्या पता, उन्हें इस बाबत जानकारों के इस दावे का पता था या नहीं कि यह शे’र न मिर्जा गालिब का है और न ही दीवान-ए-गालिब में है.

यह उम्मीद तो खैर उन्हें नहीं ही रही होगी कि उनके उद्धृत करने के चार साल बाद देश का हृदय कहलाने वाले मध्य प्रदेश के उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए इस शे’र को नए सिरे से ‘सार्थक’ करने लगेंगे.

निस्संदेह, शिवराज ने प्रदेश के सीधी जिले के कुबरी गांव में कथित रूप से भाजपा से जुड़े प्रवेश शुक्ला द्वारा अपने ही गांव के दसमत नामक आदिवासी युवक पर पेशाब करने के मामले में उसके जैसे बददिमागों (वर्ण व जाति-व्यवस्था की जाई सवर्ण कहलाने वाली अहमन्यताएं जिन पर आजादी के 75 साल बाद भी पूरी ठसक से कब्जा जमाए हुए हैं और जिनके नशे ने वेद पुराण पढ़ने पर शूद्रों के कानों में पिघला सीसा डाल देने की व्यवस्था को उन पर अकारण पेशाब करने तक पहुंचा दिया है!) की शोषण, भेदभाव व गैर-बराबरी जैसी संतानों की आंखों के जाले साफ करने के बजाय दसमत को अपने भोपाल सिथत निवास पर बुलाकर (गौर कीजिए, उसके घर जाकर नहीं) उसका पैर धोने व माफी मांगने का रास्ता अपनाया, तो चेहरे पर जमी धूल के बजाय आईना ही साफ किया-अनजाने में या भूलवश नहीं, जानबूझकर, सोच-समझकर.

चुनाव नजदीक आते देख भूल-चूक लेनी-देनी की तर्ज पर सत्ताधीशों द्वारा अपनी वोटों की झोली भरने के लिए ऐसी शातिर चालाकियां पहले भी कुछ कम नहीं होती रही हैं, लेकिन जहां तक शिवराज की चालाकी की बात है, वह इस मायने में उनसे ‘आगे’ है कि उक्त कांड का वीडियो वायरल होने के बाद से अब तक लेकर राज्य की राजनीति में जो कुछ हुआ है, उससे वहां के सत्तापक्ष व विपक्ष का जो भी नफा-नुकसान हो, दसमत जैसों का तो नुकसान ही नुकसान होता दिख रहा है क्योंकि उसकी प्रतिक्रिया में जातिवादी-सामंतवादी सामाजिक-सांस्कृतिक अंधताओं के घोड़ों की लगाम और ढीली हो गई है.

दसमत के भोपाल से अपने घर लौटते ही कांग्रेस की सीधी जिला इकाई के अध्यक्ष लाव-लश्कर के साथ उस पर गंगाजल छिड़ककर उसे ‘पवित्र’ करने पहुंच गए तो यह भी इन अंधताओं का ही कहर था! तभी तो इस दौरान दसमत अपने दोनों हाथ जोड़े ऐसे बैठा रहा जैसे कहना चाहता हो कि बहुत हो चुका, अब मेरी बेबसी पर रहम करो.

ये अंधताएं ही हैं, जिन्होंने आजादी के अमृतकाल में भी किन्हीं महानुभावों की बदतमीजियों व बदगुमानियों को निपट निरंकुश कर रखा है तो किन्हीं समुदायों की लाचारियों को असीम. इतनी असीम कि वे उनके प्रतिरोध की सोच भी न सकें. दसमत ने ही प्रवेश के दुष्कृत्य के प्रतिरोध की हिम्मत कहां दिखाई? उसके प्रतिरोध की बात तो सोशल मीडिया पर उसका वीडियो वायरल होने के बाद चली!

दसमत तो अपना पैर धोए जाने के बाद भी यही कहने को विवश है कि वो (प्रवेश शुक्ला) हमारे गांव के पंडित हैं, अपनी गलती महसूस कर लिए हैं और अब हम चाहते हैं कि उनको छोड़ दिया जाए.

इस मामले में शिवराज का थोड़ी शर्म या चुनाव हारने के डर से सामना हुआ तो उसके पीछे भी दसमत की खुद की नहीं, वीडियो वायरल होने के बाद उसकी ओर से दूसरों द्वारा उठाई गई आवाजें थीं. वीडियो पुराना बताया जा रहा है, इसलिए यह सवाल भी अपनी जगह है कि उसके वायरल होने से पहले शिवराज सरकार कोई कार्रवाई क्यों नहीं ही की? अगर उसको खबर ही नहीं हुई तो क्या यह बेखबरी भी उसका बड़ा जुर्म नहीं है?

है तो क्या उसके आईने में प्रवेश शुक्ला को गिरफ्तार कराकर उस पर एनएसए लगाने से लेकर दसमत को सपरिवार बुलाकर कैमरे के सामने उसके पैर धोने, टीका लगाने, माला पहनाने, फिर शाॅल ओढ़ा व श्रीफल देकर माफी मांगने, नाश्ता कराने व आजीविका का हाल पूछने तक सब कुछ सिर्फ और सिर्फ बेदखली की आशंका से भयभीत एक सत्ताधीश की बेहिस कवायद से ज्यादा क्योंकर है? भले ही दसमत को घर बनाने के लिए डेढ़ लाख रुपयों की आर्थिक सहायता के साथ पांच लाख रुपये देने की घोषणा भी की गई हो.

ऐसे ‘कर्मकांडों’ से किसी पीड़ित को ‘इमोशनल’ अत्याचारों के सिवा कुछ हासिल हो सकता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गत लोकसभा चुनाव से पहले इलाहाबाद कुंभ के पांच सफाईकर्मियों के पैर धोने का अब तक इतना असर तो हो ही गया होता कि किसी प्रवेश शुक्ला की किसी दसमत को घुड़कने की भी हिम्मत न होती. लेकिन यहां तो पहली आदिवासी महिला को राष्ट्रपति भवन पहुंचाने का भी कोई असर नहीं दिख रहा और देश की प्रथम नागरिक ने दसमत के मामले पर टिप्पणी तक नहीं की है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर समान नागरिक संहिता का शिगूफा इसी मध्य प्रदेश में ही छेड़ा, लेकिन इस मामले में उन्होंने भी चुप्पी साध रखी है, जबकि इसी बीच राज्य के शिवपुरी जिले में दो दलित पुरुषों को एक महिला से कथित तौर पर बात करने को लेकर मानव मल खाने को मजबूर करने का कथित वीडियो भी वायरल हो गया है.

एक और वायरल वीडियो में राज्य के गृहमंत्री के क्षेत्र (डबरा, ग्वालियर) के दबंग एक व्यक्ति को चलती गाड़ी में थप्पड़ मारते, गाली देते और पैर के तलवे चटाते दिख रहे हैं.

बहरहाल, प्रवेश के घर के ‘अतिक्रमण वाले हिस्सों पर’ बुलडोजर चलाने व उसका औचित्य सिद्ध करने का भी जन सामान्य के लिए इतना ही मतलब है कि जब तक कोई प्रवेश इस तरह सरकार की जगहंसाई नहीं कराता, उसके सारे अतिक्रमण सुरक्षित व स्वीकार्य हैं.

वर्ण और जाति व्यवस्था ने अपने तईं ऐसे प्रवेशों को कितना सुरक्षित कर और कितना संरक्षण दे रखा है, इस बात से समझा जा सकता है कि अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज की मध्य प्रदेश इकाई ने प्रवेश के परिवार की ‘पूरी मदद’ का ऐलान कर दिया है. खबरों के अनुसार इस ‘पूरी मदद’ में परिवार का बुलडोज घर बनवाना और बुलडोजर कार्रवाई के खिलाफ जबलपुर हाईकोर्ट जाना भी शामिल है.

दसमत जैसों के लिए तो इस बुलडोजर कार्रवाई का कोई मतलब तभी हो सकता था, जब यूपी वाले ‘बुलडोजर बाबा’ (जिन्होंने बुलडोजर के ऐसे इस्तेमालों की परंपरा ‘प्रवर्तित’ की) के राज में उसके जैसों का हाल कुछ अलग होता. तब एक विश्लेषक को यह नहीं ही कहना पड़ता कि बुलडोजर से लोकतांत्रिक न्याय प्रक्रिया या इमारतें ही ध्वस्त की जा सकती हैं, दंभी सवर्ण मानसिकता नहीं- खासकर जब जाति या धर्म का अहंकार दिमाग में गहरे तब घुस गया हो और उसे वहां से निकालने का कोई प्रयास न किया जा रहा हो. साथ ही यह समझने से इनकार किया जा रहा हो कि इस मानसिकता के पीड़ितों को पांव धुलवाने या ‘पवित्र’ होने का नहीं, गरिमा के साथ जीने का अधिकार चाहिए.

विडंबना यह कि अब दसमत जैसों के साथ कुछ अघटनीय घट जाने के बाद सरकारों द्वारा (वे किसी भी दल या विचारधारा की क्यों न हों) की जाने वाली ‘तेज व निष्पक्ष जांच’ और ‘दोषियों को कठोर से कठोर सजा’ दिलाने की फौरी कार्रवाइयां उनकी अकर्मण्यता को छिपाने का उपक्रम हो गई हैं, जबकि जैसा पहले कह आए हैं, जाति, धर्म, पैसे व पहुंच के आधार पर बरते जा रहे भेदभाव नागरिकों के एक छोटे-से समूह को निरंतर अमर्यादित शक्ति से संपन्न और उद्दंड बनाते जा रहे हैं, जबकि दूसरे विशाल समुदाय को लगातार निर्बल, असमर्थ और सब कुछ सहने को अभिशप्त. यह दूसरा समुदाय बार-बार सरकारें बदलकर भी अपनी नियति नहीं बदल पा रहा और सरकारों को दोहराते-दोहराते भी हार चुका है.

दसमत जैसे आदिवासियों को न्यायोचित अधिकार दिलाने का संघर्ष अभी तक मंजिल नहीं पा सका है तो यह भी सरकारों की अकर्मण्यता का ही नमूना है. दूसरी ओर अवांछनीय विकास की आड़ में जल, जंगल और जमीन पर उनके परंपरा से चले आ रहे अधिकार छीने जा रहे हैं और उन्हें इंसानी गरिमा तक से वंचित किया जा रहा है.

इस तरह कि इस कथन का भी कोई मतलब नहीं रह गया है कि अपराधी की कोई जाति या धर्म नहीं होता. वास्तव में ऐसा होता तो नेताओं, सत्ताधीशों व नौकरशाहों की भी कोई जाति या धर्म नहीं ही रहते-हां, वोटरों के भी नहीं. तब घोड़ी चढ़ने या मूंछें रखने तक को लेकर दलितों का उत्पीड़न संभव नहीं होता, न ही किसी मुसलमान को जबरन पेड़ से बांधकर मारना-पीटना व ‘जय श्री राम’ बुलवाना.

तब ऐसा भी नहीं ही होता कि सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में शामिल दल अपने द्वारा शासित राज्यों में तो ऐसी वारदातें होने पर टोकनिज्म के सहारे फौरन डैमेज कंट्रोल में लग जाएं और दूसरे दलों द्वारा शासित राज्यों में होने पर राजनीतिक लाभ के लिए उसे खूब उछालें.

लेकिन क्या किया जाए कि इन दिनों के हमारे सत्ताधीश अपने जिस पितृसंगठन के सपने साकार करने में लगे हुए हैं, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समानता पर आधारित समाज व्यवस्था का हामी ही नहीं है- समानता नहीं, समरसता चाहता है, जिसमें सभी जातियों के लोग अपनी परंपरागत स्थिति को स्वीकारते हुए ‘समरस’ रहें.

तिस पर उसको लगता है कि कभी-कभी दिखावे के तौर पर दलितों-आदिवासियों के साथ बैठने, भोजन करने व ‘सम्मान’ देने भर से यह समरसता आ जाएगी. अपनी इस समरसता को वह कभी भी जाति उन्मूलन तक नहीं ले जाता.

अंत में कहना होगा: सफाईकर्मी आंदोलन के संस्थापक व सामाजिक कार्यकर्ता बेजवाड़ा विल्सन ने 2019 में प्रधानमंत्री द्वारा कुंभ के सफाईकर्मियों के ‘पांव पखारते’ वक्त जो सवाल उठाया था, वह शिवराज द्वारा दसमत के पैर धोने के संबंध में भी प्रासंगिक है और कांग्रेसियों द्वारा उस पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र करने के बारे में भी: यों पांव धोने या गंगाजल छिड़ककर पवित्र करने से किसका महिमामंडन हो रहा है? उनका, जिनके पांव धोए जा रहे या जिन पर गंगाजल छिड़का जा रहा अथवा उनका- जिन्होंने पांव धोए या गंगाजल छिड़का?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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