बिहार जाति सर्वेक्षण: राजनीतिक दलों की उपेक्षा का शिकार रहे हैं धुनिया

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. सोलहवां भाग धुनिया जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/RV Russell/Public Domain)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. सोलहवां भाग धुनिया जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/RV Russell/Public Domain)

धुनिया रुई धुनते हैं. यही इनकी खासियत है. अब भी गांवों में इस जाति के लोग कंधे पर धनुही और जीस्ता लिए नजर आ जाएंगे. धनुही मे तांत एक मजबूत डाेरी होती है जो जानवरों की आंत को सूखाकर बनाया जाता है. इसी पर वे जीस्ता को मारते हैं और रुई धुनते हैं. यह पारंपरिक पेशा बड़ा नेकी का रहा है. लोग इनके द्वारा धुनी गई रुई का इस्तेमाल अनेक रूपों में करते हैं. रुई से ही धागे बनते हैं और धागों से कपड़े. तोशक, रजाई और तकिया आदि में रुई का ही तो इस्तेमाल होता है.

ये मुसलमान हैं. लेकिन अशराफ जैसे नहीं. आप चाहें तो इन्हें पिछड़ा मुसलमान मान लें. या फिर चाहें तो इन्हें पसमांदा कह सकते हैं. लेकिन बता दूं कि इसी जाति के रहे टीपू सुल्तान का अदम्य साहस भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखित है. अब जो लोग टीपू सुल्तान के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, वे यह बात जानते हैं कि टीपू सुल्तान की रगों में श्रमण परंपरा के पिंजारा या धुनिया का रक्त बहता था.

हिंदुओं में धुनिया जरूर हुए, लेकिन उन्होंने यह कला धुनिया (मुसलमान) से सीखी. रही बात मूल वास की, तो ये यहां के नहीं रहे हैं. ये मूलत: फारस (आज का ईरान) और अफगानिस्तान के रहने वाले हैं. लेकिन अब तो इनकी अनेकानेक पीढ़ियां इसी मुल्क में जीवन बिता चुकी हैं.

पहले इन्हें धुनिया नहीं पिंजारा कहा जाता था. काम वही था, जो आज है. भारत में पिंजारा, मंसूरी और धुनिया तीन शब्दों का उपयोग इस जाति की पहचान के लिए किया जाता है. जैसे गुजरात से संबंध रखने वाले मंसूरी कहलाते हैं. हालांकि उत्तर प्रदेश और बिहार में भी मंसूरी बड़ी संख्या में रहे. फिर चाहे वह बिहार के गया का इलाका हो या फिर भागलपुर व इसके आसपास के जिले. पूर्वी उत्तर प्रदेश तो इस जाति के लोगों के लिए सबसे खास था.

कहना न होगा कि तब क्या खूबसूरत दिन रहे होंगे जब कबीर जिंदा रहे होंगे. कबीर हालांकि जुलाहा थे, लेकिन तब धुनिया लोग भी कबीर को अपना गुरु मानते थे. कबीर से ही प्रेरित एक पंथ है राधास्वामी पंथ. धुनिया लोगों ने इस पंथ को भी माना. इसका प्रमाण है शिवदयाल सिंह का यह कलाम-

धुन-धुन डालूं अब मन को.
मैं धुनिया सतगुरु चरनन को..

मन कपास सूरत कर रुई.
काम बिनौले डाले खोई..

हुई साफ धुनकी सुधि पाई.
नाम धुना ले गगन चढ़ाई..

गाली मनसा गले कर्मा.
चरखा चला कते सब भर्मा..

सूत सुरत बारीक निकासा.
कुकड़ी कर किया शब्द निवासा..

चित्त अटेरन टेर सुनाई.
फेर फेर कवलन पर लाई..

कवंल कवंल लीला कहा गाऊं.
सुन सुन धुन निज मन समझाऊं..

सुरत रंगी करे शब्द बिलासा.
तजी वासना बेची आसा..

निकट पिंड सुन पैठ समाई.
सौदा पूरा किया बनाई..

राधास्वामी हुए दयाला.
नफा लिया खोला घट ताला..

इस जाति के लोगों का मजहब से बहुत करीब का रिश्ता रहा है. फारसी सूफी मंसूर अल हल्लाज एक नजीर हैं, जो खुद भी बुनकर ही थी. बिल्कुल कबीर के माफिक. उनको मानने वाले ही मंसूरी कहलाए. इतिहास में इसके दस्तावेज मिलते हैं कि उनका पहला ठिकाना गुजरात बना.

हालांकि कुछ और कहानियां भी हैं जो इन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों द्वारा फैलाई जा रही है कि पिंजारा जाति इसी भारत के लोगों की जाति रही है और वे हिंदू थे. वे तो यहां तक कहते हैं कि वे मूलत: राजस्थान के हैं.

लेकिन दावों से इतर भारत के संविधान के हिसाब से कहें तो ये पिछड़ा वर्ग में शामिल मुसलमान जाति हैं और वर्तमान में भी समाज में उपेक्षित हैं. यह इसके बावजूद कि इनकी संख्या अकेले केवल बिहार में 18,68,192 है. अधिकांश दलों ने इस जाति की अब तक उपेक्षा ही की है.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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