आदिवासियों को समान नागरिक संहिता के दायरे से बाहर रखा जाएगा: असम मुख्यमंत्री

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा है कि असम समान नागरिक संहिता को लागू करेगा, लेकिन इसका स्वरूप अन्य भाजपा शासित राज्यों में अमल में लाए जा रहे मॉडल से अलग होगा. इसमें कुछ संशोधनों के साथ आदिवासी समुदाय को छूट दी जाएगी.

हिमंता बिस्वा शर्मा. (फोटो साभार: फेसबुक)

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा है कि असम समान नागरिक संहिता को लागू करेगा, लेकिन इसका स्वरूप अन्य भाजपा शासित राज्यों में अमल में लाए जा रहे मॉडल से अलग होगा. इसमें कुछ संशोधनों के साथ आदिवासी समुदाय को छूट दी जाएगी.

नई दिल्ली: उत्तराखंड और गुजरात के बाद समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने वाला असम भारत का तीसरा राज्य होगा.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने गुरुवार को कहा कि इसे संशोधनों के साथ लागू किया जाएगा और आदिवासी समुदाय को छूट दी जाएगी.

गुवाहाटी में एक संवाददाता सम्मेलन में शर्मा ने कहा कि असम यूसीसी को लागू करेगा, लेकिन इसका मॉडल अन्य भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) शासित राज्यों में अमल में लाए जा रहे मॉडल से अलग होगा.

शर्मा ने कहा, ‘उत्तराखंड और गुजरात पहले यूसीसी लाएंगे और असम उन विधेयकों में कुछ बदलाव करेगा, जो असम मॉडल होगा. मैं उत्तराखंड के यूसीसी बिल को देखने का इंतजार कर रहा हूं और एक बार इसके पूरा हो जाने पर हम वही कानून लाएंगे; लेकिन चूंकि हम बाल विवाह और बहुविवाह के खिलाफ काम कर रहे हैं, इसलिए इसमें कुछ नई बातें भी होंगी. साथ ही असम में आदिवासी समुदाय को यूसीसी के दायरे से बाहर रखा जाएगा.’

शर्मा ने कहा कि अगर यूसीसी बिल पर सार्वजनिक राय 2-3 महीने में हो सकती है, फिर जल्द ही इसे असम विधानसभा में पेश किया जाएगा.

हालांकि उन्होंने जोड़ा कि यदि यह थोड़ा जटिल हुआ तो व्यापक परामर्श की जरूरत होगी. सब कुछ उत्तराखंड और गुजरात विधेयकों पर निर्भर करेगा, लेकिन असम निश्चित रूप से (यूसीसी लागू करने वाला) तीसरा राज्य होगा.

2011 की जनगणना के अनुसार, असम की आबादी में 12.45% आदिवासी हैं. इसके अलावा तीन स्वायत्त जिला/क्षेत्रीय परिषदें (जो संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत आती हैं) और एसटी समुदायों के लिए छह स्वायत्त परिषदें हैं.

क्या है संहिता?

समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि सभी लोग, चाहे वे किसी भी क्षेत्र या धर्म के हों, नागरिक कानूनों के एक समूह के तहत बंधे होंगे.

समान नागरिक संहिता को सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों के एक समान समूह के रूप में संदर्भित किया जाता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो.

वर्तमान में विभिन्न धर्मों के अलग-अलग व्यक्तिगत कानून (Personal Law) हैं.

इसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में किया गया है. जिस भाग चार में इसका उल्लेख किया गया है, उसमें राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) शामिल हैं. ये प्रावधान लागू करने योग्य नहीं हैं, लेकिन कानून बनाने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में काम करने के लिए हैं.

अनुच्छेद 44 कहता है, ‘राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.’

हालांकि, भारत के 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में यह स्पष्ट कर दिया था कि यूसीसी की ‘इस स्तर पर न तो इसकी जरूरत है और न ही यह वांछित है.

अगस्त 2018 में ‘रिफॉर्म्स ऑफ फैमिली लॉ’ पर 185 पेज का परामर्श पत्र देते हुए 21वें विधि आयोग ने कहा था, ‘सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता कि हमारी एकरूपता की चाहत ही देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा बन जाए.’

इसका कहना था कि एक एकीकृत राष्ट्र को ‘एकरूपता’ रखने की जरूरत नहीं है और यह कि ‘हमारी विविधता को समेटने के प्रयास मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ किए जाने चाहिए.’ आयोग ने जोर देकर कहा था कि एक मजबूत लोकतंत्र में मतभेद का मतलब हमेशा भेदभाव नहीं होता है.

हालांकि, बीते साल 22वें विधि आयोग ने 14 जून को एक नई अधिसूचना जारी करते हुए इस बारे में विभिन्न हितधारकों- जनता और धार्मिक संगठनों समेत राय मांगी थी.

भाजपा का प्रमुख एजेंडा

गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख मुद्दों में से एक रहा है. वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यह भाजपा के प्रमुख चुनावी वादों में शुमार था. उत्तराखंड के अलावा मध्य प्रदेशअसमकर्नाटक और गुजरात की भाजपा सरकारों ने इसे लागू करने की बात कही थी.

उत्तराखंड और गुजरात जैसे भाजपा शासित कुछ राज्यों ने इसे लागू करने की दिशा में कदम उठाया है. नवंबर-दिसंबर 2022 में हुए गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी समान नागरिक संहिता को लागू करना भाजपा के प्रमुख मुद्दों में शामिल था.

जून 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मध्य प्रदेश में एक रैली के दौरान यूसीसी की जोरदार वकालत करने के बाद इसे लेकर नए सिरे से राजनीतिक विमर्श शुरू हो गया था.

पूर्वोत्तर के राज्यों में विरोध

यूसीसी का विरोध मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में सबसे मजबूत रहा है, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, ईसाइयों की संख्या क्रमश: 74.59 फीसदी, 86.97 फीसदी और 87.93 फीसदी है.

जून 2023 में यूसीसी को लेकर प्रधानमंत्री की पुरजोर वकालत के बाद मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में विभिन्न संगठनों ने इसके खिलाफ विरोधी तेवर अपना लिए थे. वहीं,  छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज ने इसे आदिवासियों की पहचान और पारंपरिक प्रथाओं लिए खतरा बताया है.

विपक्षी दलों ने उस समय मोदी के बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री कई मोर्चों पर उनकी सरकार की विफलता से ध्यान भटकाने के लिए विभाजनकारी राजनीति का सहारा ले रहे हैं. मुस्लिम संगठनों ने भी प्रधानमंत्री की यूसीसी पर टिप्पणी को गैर-जरूरी बताया था.

वहीं, नगालैंड, मिजोरम और केरल विधानसभाओं में यूसीसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं.

मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के. संगमा भी कह चुके हैं कि यूसीसी अपने मौजूदा स्वरूप में भारत की भावना के खिलाफ है. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) की सदस्य है.

भाजपा के नेतृत्व वाला एनईडीए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का क्षेत्रीय संस्करण है. एनपीपी अरुणाचल प्रदेश में भी यूसीसी का विरोध करने की बात कह चुकी है.

ज्ञात हो कि पूर्वोत्तर भारत दुनिया के सबसे सांस्कृतिक रूप से विविध क्षेत्रों में से एक है और 220 से अधिक जातीय समुदायों का घर है. कई समुदायों को डर है कि यूसीसी संविधान द्वारा संरक्षित उनके पारंपरिक कानूनों को प्रभावित करेगा.

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