बंगनामा: मानवता अभी जीवित थी

सड़क दुर्घटना में किसी की मृत्यु के बाद जुटी भीड़ का आक्रोश केवल दोषी वाहनचालक के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि यातायात को नियंत्रित करने में विफलता के लिए सरकार के ख़िलाफ़ भी है, और यह भी साबित करता है कि मनुष्य का मोल अभी बरक़रार है. बंगाल की सांस्कृतिक-राजनीतिक बारीकियों पर केंद्रित इस स्तंभ की पहली क़िस्त.

(फोटो साभार: Vishwas Krishna/Flickr/CC BY 2.0 DEED)

मई 1990 की एक ऊष्म सुबह. हावड़ा स्टेशन पर देर से आई दून एक्सप्रेस से उतर कर अटैची और बैग के साथ मैं एक काली-पीली टैक्सी में जा बैठा. मुझे नहीं मालूम था कि उत्तर चौबीस परगना का ज़िला मुख्यालय बारासात शहर हावड़ा स्टेशन से क़रीब दो घंटे दूर है. क़रीब नौ महीने मसूरी की प्रशासनिक अकादमी में बिताकर मैं अपने काडर पश्चिम बंगाल के एक ज़िले में एक साल के क्षेत्र प्रशिक्षण के लिए जा रहा था.

उत्तर कलकत्ता के वाहनों और पैदल यात्रियों से अटे, चौड़े रास्तों से होते हुए हम वीआईपी रोड पकड़कर जब दमदम हवाई अड्डे को पार कर जैसोर रोड पर पहुंचे, टैक्सी की गति बढ़ गई थी. सड़क संकरी थी- गाड़ियों, दोपहियों, तिपहियों, बसों, मिनी बसों से भरी हुई सड़क. लेकिन हवाई अड्डे को छोड़े पंद्रह मिनट भी न हुए थे कि रास्ता रुकता हुआ दिखा और हम वाहनों के जमघट में थम गए. शोर-गुल और गाड़ियों के हॉर्न के लयहीन स्वर के बीच लाल रंग की मिनी बस सड़क पर तिरछी खड़ी थी.

‘एक्सीडेंट हो गया है. लगता है कोई मर गया है.’ टैक्सी ड्राइवर ने इंजन बंद कर स्टीयरिंग ह्वील पर दोनों हाथ रख आत्मसमर्पण कर दिया.

‘कितनी देर लगेगी?’ मैंने पूछा.

‘अगर कोई मर गया है तो तीन-चार घंटा भी लग सकता है.’ ड्राइवर ने टैक्सी से निकल कर बीड़ी सुलगाई और अन्य लोगों के साथ आगे बढ़ा. तभी भीड़ बिखरकर वापस आती दिखी. ‘जाम खुल गया. आपका तक़दीर अच्छा है. अभी बॉडी सड़क से हटा दिया है.’ और हम आगे बढ़े बारासात की ओर.

इस घटना के मायने मुझे उसी वक़्त समझ नहीं आए थे, पर अगले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाएं मेरे प्रशासनिक जीवन में अक्सर आती रहीं. इस दौरान मैं मूलतः ग्रामीण ज़िलों में कार्यरत था. दक्षिण हो या उत्तर बंगाल, राष्ट्रीय हो या राज्य राजमार्ग, सड़कें आज के मुक़ाबले कहीं संकरी थीं और न उन पर इतना यातायात था. अक्सर ट्रक या अन्य बड़ी गाड़ियां राजमार्ग से नीचे उतरकर करवट ले लेती थीं. इनके अलावा गांव-देहात को राज्य राजमार्ग से जोड़ते हुए, हर ज़िले में ज़िला बोर्ड और ज़िला परिषद की सड़कें थीं, जिनसे अंदरूनी गांवों तक कच्चे और घुमावदार रास्ते निकलते थे.

दक्षिण बंगाल का कोई भी किसान, छोटा या बड़ा, अपनी उर्वर भूमि का एक इंच टुकड़ा भी अपने से अलग नहीं करना चाहता था. इसलिए गांवों में सीधे रास्ते कम मिलते थे. पश्चिम बंगाल में ग्रामीण रास्तों का निर्माण भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत बहुत कम और किसानों के दान से अधिक हुआ है.

साथ ही यह तटीय क्षेत्र शिक्षा के प्रसार और मुक़दमेबाज़ी के लिए भी जाना जाता था. गांव में सड़क बनते समय जिस जगह पर भी ज़मीन मालिक आपत्ति जताता था, रास्ता बेचारा मन मसोसकर दूसरी दिशा में घूम जाता था. उन दिनों मैं एक ऐसे गांव में गया था जो राज्य राजमार्ग से सिर्फ़ पांच किलोमीटर अंदर था, लेकिन इतनी दूरी में भी इस सड़क पर पूरे चौवन मोड़ आ जाते थे.

वह सर्व साक्षरता अभियान के दिन थे. जब हम लोग साक्षरता केंद्रों में शिक्षार्थियों और प्रशिक्षकों से मिलने के लिए सुदूर-नज़दीक क्षेत्रों में जाते थे, मैं पाता था कि राजमार्गों पर भी गति अवरोधक बने हुए हैं, विशेष रूप से जहां कोई सड़क किसी गांव या बस्ती में जाती थी. ये गति अवरोधक अक्सर वहां घटित हुई किसी पुरानी दुर्घटना की ओर इशारा करते थे. इन रोधकों के कारण गाड़ियों को गति धीमी करनी पड़ती थी.

मैंने यह भी पाया कि सड़क दुर्घटना में किसी के मृत्यु के बाद भीड़ जुट जाती थी, दोषी वाहन को तोड़ देती थी, रास्ते पर लगा धरना कई घंटों के लिए सड़क को स्तब्ध कर देता था. इससे अन्य यात्रियों को होने वाली असुविधा स्पष्ट है. लेकिन विरोध प्रदर्शन आम तौर पर वाहन के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि गति और यातायात को नियंत्रित करने में विफलता के लिए सरकार के खिलाफ भी था.

इसके अलावा, ऐसे अधिकांश स्थानों पर भीड़ आमतौर पर एम्बुलेंस जैसे आपातकालीन वाहनों को जाने देती थी.लेकिन बस समेत अन्य गाड़ियों के यात्री वाहनों से निकल कर भीड़ बढ़ाते थे पर सड़क जाम हो जाने का प्रतिकार नहीं करते थे. वे कुढ़ते तो रहते थे, लेकिन लगता था कि सड़क के अकस्मात् बंद हो जाने से सबसे त्रस्त लोगों को भी दुर्घटनाग्रस्त परलोकवासी से अघोषित सहानुभूति है.

यह चक्का जाम किसी भी मार्ग पर कभी भी हो सकता था. ऐसे मौक़ों पर दुर्घटना की संवेदनशीलता को देखते हुए अधिकारियों को अलिखित और अनौपचारिक निर्देश थे कि सख़्त कार्रवाई न करें.

दक्षिण बंगाल के इस तटवर्ती महकमे में नौ महीने ही बीते थे कि सरकार ने मेरे कार्य से प्रसन्न हो कर वहां से मेरा तबादला कर दिया. इस बार बंगाल के उत्तरपूर्व में, असम से सटे एक सबडिविजन में मुझे काम करने का मौक़ा मिला. भौगौलिक दृष्टि से बंगाल में इससे लंबा स्थानांतरण संभव नहीं था.

मैं इस नए ज़िले अलिपुरद्वार में आया ही था कि मेरे एक मित्र का फोन आया. कुछ दिनों पहले वे कुछ मित्रों के संग दीघा, जहां मैं पहले पदस्थ था, घूमने गए थे. समुद्र स्नान और प्रवास के अपने सुंदर अनुभवों को साझा करने के बजाय उन्होंने मुझे उस रास्ते की एक दुखबीती सुनाई. वह सुबह-सुबह दीघा जा रहे थे कि गंतव्य से क़रीब बीस किमी पहले राजमार्ग पर एक भयंकर जाम दिखा. चंद मिनटों में वाहनों का तांता लग गया और भीड़ बढ़ती रही.

प्रतिकात्मक फोटो. (फोटो साभार: प्रदीप सान्याल)

चूंकि यह दुर्घटना एक चौक पर घटी थी, वहां से गुजरने वाली सारी गाड़ियां रुक गयीं. विभिन्न खोमचे वालों और नारियल पानी विक्रेताओं का भी जमघट लग गया. मार्च का महीना और रेतीली गर्मी. पुलिस के आने के बाद भी अवरोध शाम तक जारी रहा. मेरे मित्र उत्तर भारत के एक विकसित शहर के थे. उन्होंने कहा कि उनकी यात्रा में बाधा और उसके फलस्वरूप उनके और उनके मित्रों को मिले इतने अपरिमित कष्ट का कारण केवल मैं हूं.

उन्होंने यह भी जोड़ा कि उनके राज्य के अद्भुत विकास का कारण था वाहनों का बिना किसी अटकल के मार्गों पर दौड़ पाना. ‘अगर आने-जाने पर अंकुश गड़ता रहेगा, तो विकास क्या ख़ाक होगा. हमारे यहां भी सड़कों पर दुर्घटनाएं होती हैं, जानें जाती हैं पर मजाल क्या जो कोई रास्ता बंद कर दे. दो-चार डंडे चलते हैं, आठ-दस सर फूटते हैं, और रास्ता साफ़.’

उनका आक्रोश मैंने अंत तक सुना. वे जब थककर थम गए, मैंने पूछा, ‘मुझे लगता है कि पश्चिम बंगाल की सड़कों पर जानलेवा दुर्घटना के बाद का उपद्रव इंगित करता है कि इस राज्य में अभी भी मनुष्य का मूल्य है.’

मित्र ज़ोर से हंस दिए, ‘विकास के मार्ग पर क़ुर्बानियां तो होंगी ही. चलो एसटीडी कॉल लंबा हो गया है. फिर बात होगी.’

उस संवाद को तीन दशक बीत चुके हैं. प्रशासन के विभिन्न स्तरों, जीवन और समय के उतार-चढ़ाव को देखता, सहता और समझने की कोशिश करता, मैं वापस अपनी मूल कर्मभूमि, बंगाल में आ बसा हूं. कुछ दिनों पहले स्थानीय अख़बार में एक छोटा-सा समाचार देखा. पास के एक ज़िले में सड़क दुर्घटना में स्थानीय निवासी की मृत्यु के कारण बहुत बवाल हुआ. राजमार्ग आधे दिन से अधिक बंद रहा. कई बसों के यात्री बहुत परेशान हुए और कइयों को काफ़ी घूम कर आगे जाना पड़ा. ट्रकों को थम जाना पड़ा. बहुत लोगों का बहुत समय बर्बाद हुआ, लेकिन तसल्ली हुई कि अभी भी यहां मनुष्य का मूल्य है.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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