कश्मीर में पिछले साल नौ अप्रैल को सेना ने फ़ारूक़ को पत्थरबाज़ बताते हुए जीप की बोनट से बांधकर कई गांवों में घुमाया था. घटना के एक साल बाद भी फ़ारूक़ अवसाद में हैं.
श्रीनगर/नई दिल्ली: एक साल पहले तक कढ़ाई कारीगर और अब पड़ोसियों की नज़र में पत्थरबाज़ों के ख़िलाफ़ सेना के ‘मानव ढाल’ के रूप में ‘पहचाने’ जाने वाले फ़ारूक़ अहमद डार टूट चुके हैं और अपने जीवन को एक बार फिर से पटरी पर लाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं.
साल 2017 में नौ अप्रैल की सुबह मध्य कश्मीर के बड़गाम ज़िले के 27 साल के फ़ारूक़ उपचुनाव में वोट डाल कर पड़ोस के गांव में अपने एक रिश्तेदार के यहां हुई एक मौत के बाद वापस घर लौट रहे थे, जब भारतीय सेना की एक टुकड़ी ने उन्हें रोक लिया था.
इसके बाद फ़ारूक़ अहमद डार को भारतीय सेना की जीप पर बांधकर घंटों तक आस-पड़ोस के गांवों में घुमाया जाएगा. सेना ने उन्हें पत्थरबाज़ बताया था और पत्थरबाज़ों का यही हश्र करने की बात कही थी.
आज यानी नौ अप्रैल को इस घटना के एक साल हो गए.
इस घटना के बाद ग्रामीणों द्वारा सरकारी एजेंट क़रार दिए जाने के बाद बहिष्कृत और एक अदद नौकरी की तलाश कर रहे डार अनिद्रा तथा अवसाद से ग्रस्त हैं. साथ ही 28 वर्षीय युवक का कहना है कि करीब 12 महीने पहले उनका जीवन ख़त्म हो गया.
पिछले साल नौ अप्रैल को मेजर लीतुल गोगोई के नेतृत्व वाली टीम ने मध्य कश्मीर के बडगाम ज़िले में भारी पत्थरबाज़ी से बचने के लिए सेना की एक जीप के बोनेट पर डार को बांध दिया था. यह तस्वीर दुनियाभर में सुर्ख़ियों में रही थी.
श्रीनगर लोकसभा संसदीय क्षेत्र में चुनाव का दिन था और डार ने बताया कि अलगाववादी संगठनों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के विपरीत वह वोट डालने जा रहे थे. उस दिन पुलिस की गोलीबारी में आठ लोग मारे गए थे.
केंद्रीय एजेंसियों और स्थानीय पुलिस ने जांच में उस दिन की घटना के संबंध में डार की बात को सच माना था और उन्होंने उनके पत्थरबाज़ होने के सेना के दावों से इनकार किया था.
जांच में पाया गया कि वह मतदान के बाद अपनी बहन के यहां जा रहे थे और सेना ने उन्हें पकड़ लिया तथा बेरहमी से उनकी पिटाई कर जीप के बोनेट पर रस्सी से बांध दिया तथा करीब 28 गांवों में घुमाया.
एक साल पुरानी घटना को याद करते हुए डार की आंखों में आंसू छलक आए. उन्होंने कहा, ‘मेरी क्या ग़लती थी? मैं मतदान केंद्र पर वोट डालने जा रहा था.’
डार ने एक वीडियो साक्षात्कार में कहा, ‘मैं सो नहीं पा रहा हूं. यहां तक कि दवा भी प्रभावी नहीं हो पा रही. कोई भी मुझे काम नहीं दे रहा है. सरकार चुप है और न्यायपालिका अपनी गति से चल रही है.’
घटना के बाद अपने जीवन के बारे में डार ने कहा कि बड़गाम ज़िले में उनके गांव चिल ब्रास में उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. चुनावी प्रक्रिया में उनके शामिल होने के बारे में पता चलने पर लोगों ने उनसे दूरी बना ली.
बीते साल नौ अप्रैल को हुए उस दिन उपचुनाव की वोटिंग में कश्मीर के चुनावी इतिहास का सबसे कम (7%) मतदान हुआ.
उन्होंने कहा, ‘उस दिन अपने घर से निकलने पर मैं पछता रहा हूं.’ पांच भाई-बहनों में से एक डार ने कहा कि इस घटना ने जीने का उनका मौलिक अधिकार छीन लिया है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)