राजस्थान एकमात्र राज्य है जहां गो कल्याण मंत्रालय है, लेकिन जयपुर के हिंगोनिया गाय पुनर्वास केंद्र में काम कर रहे गो-सेवक न सिर्फ असुरक्षित हैं, बल्कि बेहद कम मेहनताने पर काम करने को मजबूर हैं.
जयपुर: ‘ऐसा लगता है, इस देश ने इंसानों की फिक्र करना बंद कर दिया है. अब यहां सिर्फ गाय का ही महत्व है.’ यह कहना है, 25 वर्षीय ममता कैलाश का, जो हाल ही में गाय के टक्कर मारने से अपना हाथ तुड़वा बैठीं. उस वक़्त वे बाड़े में गोबर साफ कर रही थीं.
ममता जयपुर की हिंगोनिया गोशाला में काम करती हैं. यह जगह अलवर से कोई 160 किलोमीटर दूर है, जहां बीते दिनों अपने डेयरी फॉर्म के लिए गायों को ले जा रहे 55 वर्षीय पहलू खान की कथित गोरक्षकों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी थी.
एक तरफ तो राजस्थान की भाजपा सरकार गोरक्षा कानूनों को मजबूत बना रही है (राज्य सरकार ने गोरक्षा के नाम पर पिछले महीने उपकर लगाया), दूसरी तरफ मवेशियों की देखभाल करने वाले लोग न सिर्फ असुरक्षित हैं, बल्कि उन्हें बेहद कम मेहनताने पर काम करना पड़ रहा है.
ममता कहती हैं, ‘मैं गोशाला में इसलिए काम करती हूं, क्योंकि मेरे पति की कमाई घर चलाने के लिए काफी नहीं पड़ती. एक महीने से, जबसे मुझे चोट लगी है, मैं काम पर नहीं जा सकी हूं और मेरी कोई आमदनी नहीं हुई है. अब घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है. अगर किसी को दुर्घटनावश चोट लग जाए तो उसे बिना पैसे के ही रहना पड़ता है.’
गोशाला की एक और कर्मचारी 28 वर्षीय शांति, गाय के पेट में सींग घुसा देने से बुरी तरह ज़ख़्मी हो गई थीं. साथ काम करने वालों ने उन्हें निजी अस्पताल पहुंचाया, तब जाकर उनकी जान बच सकी.
हिंगोनिया गोशाला में इस तरह की घटनाएं आम हैं. यहां हर कर्मचारी पर औसतन 54 गायों की देखभाल का ज़िम्मा है. सूत्रों के मुताबिक यहां 13,166 गायों की देखभाल सिर्फ 240 कर्मचारी मिलकर करते हैं.
राजस्थान देश का एकमात्र राज्य है जिसने गो-कल्याण के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया हुआ है, बावजूद इसके इस गोशाला की हालत दिनबदिन गिरती ही जा रही है. गौरतलब है कि इस गोशाला में हर दिन जयपुर नगर निगम द्वारा करीब 100 आवारा गायें लाई जाती हैं.
अक्टूबर, 2016 में इस गोशाला का कुप्रबंधन सामने आने के बाद राजस्थान सरकार इसकी देखरेख अक्षयपात्र फाउंडेशन को आउटसोर्स करने पर मजबूर हुई थी.
गोशाला कर्मचारियों ने ‘द वायर’ को बताया कि मैनेजमेंट में बदलाव के बाद यहां कर्मचारियों की संख्या में काफी कमी आई है. इस बारे में पूछे जाने पर फाउंडेशन ने गोशाला की ज़िम्मेदारी उसके हाथों में आने से पहले कार्यरत कर्मचारियों की संख्या की कोई जानकारी नहीं दी.
कल्ली ताराचंद नाम की एक अन्य कर्मचारी ने बताया, ‘पहले यहां हर शेड पर 10 कर्मचारी हुआ करते थे, लेकिन अब इस संख्या को घटाकर सात कर दिया गया है. पहले गोशाला में किसी के छुट्टी पर चले जाने की स्थिति में उसका काम करने के लिए अतिरिक्त कर्मचारी हुआ करते थे, लेकिन अब किसी के छुट्टी पर जाने पर हमें अपने निर्धारित शेड में काम करने के अलावा उनका काम भी करना पड़ता है. एक तरह से हमारा काम दोगुना हो गया है, लेकिन हमारा वेतन अभी भी पहले जितना ही है.’
ताराचंद को वायर से बात करने के अगले दिन काम से हटा दिया गया.
फाउंडेशन ने गायों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए हैं. इनमें सांडों, कमज़ोर और बीमार मवेशियों को अलग करना, टीकाकरण, बेहतर गुणवत्ता वाले सूखे चारे, हरे चारे और अच्छे मवेशी आहार की आपूर्ति शामिल है.
फाउंडेशन के प्रबंधन संभालने के बाद गायों की मृत्युदर 15 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत हो गई है, लेकिन यहां काम कर रहे कामगारों का मसला अभी तक नहीं सुलझा है.
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (एंप्लॉइज़ स्टेट एंश्योरेंस एक्ट- ईएसआई) के प्रावधानों के तहत प्रतिमाह 21,000 रुपये से कम कमाने वाला भारतीय कर्मचारी मुफ्त उपचार पाने का अधिकारी है, साथ ही काम की वजह से अस्थायी या स्थायी अपंगता की स्थिति में उसे नकद भुगतान पाने का भी अधिकार है.
श्रमिक, एंप्लॉइज़ स्टेट एंश्योरेंस कॉरपोरेशन द्वारा चलाए जाने वाले दवाखानों और अस्पतालों में अपने वेतन का 1.75 फीसदी योगदान देकर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं.
पिछले साल ईएसआई को आधार से जोड़ दिया गया था, लेकिन फाउंडेशन ने अब तक आधार से जुड़ा ईएसआई फॉर्म हर श्रमिक को जारी नहीं किया है, जबकि वे अपने अंश का योगदान कर रहे हैं.
श्रमिकों को कार्ड जारी करना नियोक्ता की ज़िम्मेदारी है. कोई भी ईएसआई डिस्पेंसरी आधार-लिंक्ड ईएसआई फॉर्म के बगैर किसी मरीज़ का इलाज नहीं करती है और उसे इलाज पर होने वाला ख़र्च उठाने के लिए बाध्य करती है.
अक्षयपात्र फाउंडेशन के राधाप्रिय दास ने बताया, ‘बाड़ों में काम करने वाले सभी मज़दूर ईएसआई के सुरक्षा घेरे में आते हैं और दुर्घटनावश लगने वाली किसी चोट की स्थिति में उन्हें इलाज के लिए ईएसआई अस्पताल भेजा जाता है.’
जब वायर ने जयपुर में ईएसआई के ब्रांच ऑफिस से संपर्क किया, तो वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न बताए जाने की शर्त पर बताया कि विभाग द्वारा जयपुर नगर निगम को डिफॉल्टर की सूची में डाल दिया गया है, क्योंकि इसने हिंगोनिया गोशाला कोड के लिए ईएसआई का हिस्सा जमा नहीं किया है.
विभाग इस बात की जांच कर रहा है कि कहीं फाउंडेशन ने यह पैसा किसी दूसरे उपक्रम के नाम पर तो नहीं जमा करा दिया? अधिकारियों ने यह ज़ोर देकर कहा कि श्रमिकों को ईएसआई कार्ड उपलब्ध कराना फाउंडेशन का काम था और अगर उसने इसका पालन नहीं करता, तो उसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की जा सकती है.
आखिर पैसा कहां जाता है?
गोशाला में श्रमिकों का कहना है कि ऐसा नहीं है कि अक्षयपात्र फाउंडेशन के पास पैसे की कमी है. उनका दावा है कि फाउंडेशन ने गोशाला की ज़मीन को चारा उगाने के लिए लीज़ पर दे दिया है. इसके अलावा, दूध और अन्य गो-उत्पादों को बेचने से मिलने वाला पैसा भी फाउंडेशन को ही जाता है.
गोशाला के श्रमिकों के अनुसार, ‘रविवार को चारे की ख़रीद नहीं होती, क्योंकि उस दिन लोग बड़ी संख्या में गोशाला में चारा दान करने के लिए आते हैं.’ इसके अलावा राज्य सरकार हर दिन प्रत्येक वयस्क मवेशी के लिए 70 रुपये और बछड़ों के लिए 35 रुपये के हिसाब से देती है. साथ ही मजदूरों का वेतन और रखरखाव का ख़र्च भी सरकार उठाती है.
गोरक्षा और गोमांस पर प्रतिबंध पर चल रही राष्ट्रीय बहस में हिंगोनिया जैसी गोशालाओं में काम कर रहे श्रमिकों की तकलीफों की सुध लेने वाला कोई नहीं है.
पिछले साल हिंगोनिया के श्रमिक अपने बकाया वेतन और अतिरिक्त सुरक्षा लाभों की मांग करते हुए दो बार- जुलाई और अक्टूबर में हड़ताल पर भी गए थे.
रामावतार कहते हैं, ‘पिछले साल गोशाला में बड़ी संख्या में हुई गायों की मौत ने मीडिया का ध्यान पहले से ही बदहाल गोशाला की ओर खींचा, मगर सारी सहानुभूति गायों के हिस्से ही आई, हमारी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.’
(श्रुति जैन स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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