चुनावी बातें: 1984 में भाजपा से अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस से माधवराव सिंधिया ग्वालियर से मैदान में थे, जिससे विजयाराजे सिंधिया के सामने पार्टी व पुत्र के बीच चुनाव का धर्मसंकट आ खड़ा हुआ था. उस पर अटल बिहारी ने ख़ुद को उनका धर्मपुत्र बताकर इस दुविधा को और बढ़ा दिया था.
चुनावी बातें: चुनाव में होने वाली हिंसा की नींव आज़ादी से पहले ही पड़ चुकी थी. झारखंड (तत्कालीन बिहार) में मार्च 1946 में हिंसक तत्वों ने संविधान सभा के प्रतिनिधि के चुनाव को भी स्वतंत्र व निष्पक्ष नहीं रहने दिया था.
चुनावी बातें: चौधरी चरण सिंह ने एक चुनावी सभा में मतदाताओं से कहा था कि अगर उनकी पार्टी का प्रत्याशी चारित्रिक रूप से पतित हो या शराब पीता हो, तो वे उसे हराने में संकोच न करें.
चुनावी बातें: सपा-बसपा के पहले गठबंधन के समय उत्तर प्रदेश विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में जनता दल ने अपने प्रचार की ज़िम्मेदारी लालू प्रसाद यादव के कंधों पर डाली थी.
चुनावी बातें: देश की राजनीति में एक समय ऐसा भी था जब सादगी हमारे नेताओं के बीच एक स्थापित परंपरा हुआ करती थी.
‘मैं भी चौकीदार’ और ‘चौकीदार ही चोर है’ के शोर में अनेक दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं.
चुनावी बातें: मौजूदा दौर में जब चुनाव का वास्तविक ख़र्च करोड़ों में होता है, इस बात की कल्पना भी मुमकिन नहीं कि कोई निर्धन प्रत्याशी ख़ाली हाथ चुनाव के मैदान में उतरेगा और जीत जाएगा, पर 1967 में ऐसा हुआ था.
कांग्रेस का घोषणा-पत्र कम से कम इस अर्थ में बहुत सार्थक है कि तात्कालिक रूप से ही सही, देश के राजनीतिक विमर्श की दशा व दिशा बदलने के संकेत मिल रहे हैं.
चुनावी बातें: नेताओं की बदज़ुबानी के लिए उन्हें सबक सिखाने में मतदाताओं की उदासीनता भी ज़िम्मेदार है, लेकिन एक वो समय था जब 1962 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट के मतदाताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वाकपटु नेता की अभद्र टिप्पणी के चलते उनकी जीती हुई बाज़ी पलटकर हार का मज़ा चखा दिया था.
बीते दिनों अयोध्या स्थित हुनमानगढ़ी मंदिर में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के जाने पर वित्त मंत्री अरुण जेटली सहित कई नेताओं ने सवाल उठाया है.
अयोध्या की ऐतिहासिक हनुमानगढ़ी ने आज़ादी के पहले से ही अपनी व्यवस्था में लोकतंत्र और चुनाव का ऐसा अनूठा और देश का संभवतः पहला प्रयोग कर रखा है, जिसका ज़िक्र तक करना सांप्रदायिक घृणा की राजनीति करने वालों को रास नहीं आता.
अयोध्या विवाद का साल दर साल तार्किक परिणति से दूर और लाइलाज होते जाना जहां देश की व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के ख़िलाफ़ बड़ी टिप्पणी है, वहीं न्यायपालिका के ख़िलाफ़ भी है, जिसने इन दोनों की ही तरह विवाद के ख़ात्मे के लिए ज़रूरी जीवट और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया.
यह निबंध-संग्रह 'एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति’ के स्वनामधन्य पैरोकारों की असली-नकली अवधारणाओं और कुतर्कों की बिना पर रचे जा रहे तिलिस्म को वैज्ञानिक चिंतन प्रक्रिया की कसौटी पर कसकर न सिर्फ बेपरदा बल्कि पूरी तरह ख़ारिज भी करता है.
एक साक्षात्कार में नामवर सिंह ने कहा था कि विदेश में दो लोग जब बात करते हैं तो कुछ देर के अंदर ही उनकी बातचीत में मिल्टन, शेक्सपियर, चेखव के उद्धरण आने लगते हैं, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं दिखता. हिंदी में बहुत से जनकवि हैं लेकिन हिंदी जगत में उनकी रचनाएं उस रूप में प्रचारित नहीं होतीं.
किसी आतंकी हमले के बाद निंदा और बदले के बजाय इंसाफ़ और समाधान की बात क्यों नहीं की जाती? अभी जिस बदले की हमारे सत्ताधीश बात कर रहे हैं, कभी उन्होंने इस बात पर ग़ौर किया है कि क्या उसका कोई सार्थक परिणाम निकलेगा?