पुण्यतिथि विशेष: पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद ‘प्रदीप’ का सिद्धांत था, ‘पत्रकार को नौकरी बचाने के फेर में पड़े बिना ही काम करना चाहिए वरना पत्रकारिता छोड़ कुछ और करना चाहिए.’
इससे पहले कि ये छद्म आयोजन इतने बड़े हो जाएं कि देश के तौर पर हमारी भविष्य यात्राओं के मुंह भूत की ओर घुमा दिए जाएं और हमें वहां ले जाकर खड़ा कर दिया जाए, जब हमारे पुरखों ने लज्जा ढकने के लिए आगे-पीछे पत्ते लपेटना भी नहीं सीखा था, हमें होश संभालकर सचेत हो जाने की ज़रूरत है.
कुलपतियों के कारनामे अब देश के विश्वविद्यालयों का मौसम बन गए हैं. विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा और गुणवत्ता दोनों पर दाग लग रहे हैं. बड़बोलेपन में राजनीतिक नेताओं को भी मात करने वाले कुलपतियों के ही कारण देश के कई बड़े और श्रेष्ठ उच्च शिक्षण संस्थान इन दिनों बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.
देश में निचले सामाजिक स्तर तक भय व अविश्वास का ऐसा माहौल बना दिया गया है कि प्रतिरोध की सारी आवाजें घुटकर रह गईं और अब ऊपरी स्तर पर कोई आमिर ख़ान अपना डर या नसीरुद्दीन शाह ग़ुस्सा जताने लगता है, तो उनका मुंह नोंचने की सिरफिरी कोशिशें शुरू कर दी जाती हैं.
फैज़ाबाद से निकलने वाले हिन्दी दैनिक जनमोर्चा के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह की किताब ‘अयोध्या- रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ बताती है कि अयोध्या विवाद में सारी पेचीदगियां राजनीति द्वारा अपनी स्वार्थ साधना के लिए इस मुद्दे के बेजा इस्तेमाल से पैदा हुई हैं.
हिंदू पक्ष के छह दावेदारों में से दो अयोध्या स्थित विवादित स्थल पर विराजमान रामलला के विरुद्ध ही अदालत गए हैं.
मीर अनीस उर्दू शायरी के उस दौर में हुए थे, जब ग़ज़लों का झंडा चहुंओर बुलंद था. उन्होंने ग़ज़लों से इतर मर्सियों की रचना का कठिन रास्ता चुना.
आज़ादी की लड़ाई के सिपाही राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हांकते हों और अवसरवादी हों.
अयोध्या में 1990-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर सांप्रदायिक पत्रकारिता का परचम उससे छीन लिया है और ख़ुद को राम मंदिर आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता बना लिया है.
धार्मिक पर्यटन बढ़ाने के नाम पर दिव्य दीपावली समेत कई सरकारी आयोजनों में भावनाओं के दोहन के लिए भारी-भरकम योजनाओं के बड़े-बड़े ऐलानों द्वारा लगातार ऐसा प्रचारित किया जा रहा है जैसे अयोध्या में स्वर्ग उतारकर हर किसी के लिए लाल गलीचे बिछा दिए गए हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई इसके एकदम उलट है.
विशेष: नेशनल हेराल्ड अख़बार के संस्थापक संपादक रहे के. रामाराव ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए लड़ रहीं ताक़तों के समर्थन की अपनी प्रतिबद्धता से कभी समझौता नहीं किया.
दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक अकबर ने देश में किसी नाले तक का नाम बदलने का प्रयास नहीं किया, तो उसे प्रयाग से क्योंकर कोई चिढ़ हो सकती थी?
पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल ने 100 से ज़्यादा दिनों तक अपना अनशन जारी रखा तो सिर्फ इसलिए क्योंकि सरकारों की असंवेदनशीलता के बावजूद उनके दिलोदिमाग में लोकतंत्र को लेकर कोई न कोई उम्मीद ज़रूर बाकी रही होगी. उनके जाने का दुख इस अर्थ में कहीं ज़्यादा सालता है कि ऐसा अनशन के अस्त्र के प्रणेता महात्मा गांधी के जन्म के एक 150वें वर्ष में हुआ है.
समाजवादियों ने उनके समाजवाद का कॉरपोरेटीकरण कर उसे भाई-भतीजावादी पूंजीवाद का सगा बनाकर, उसे अस्मिता, जाति, वंश व परिवार के कॉकटेल में बदल आमजन के लिए वैसे ही निरर्थक कर डाला है, जैसे संकीर्णतावादियों ने गांधी के रामराज्य को.
जब प्रधानमंत्री अपने 2019 के चुनावी मंसूबों को नए-नए पंख लगाने के फेर में हैं, उनके गृहराज्य गुजरात के उपद्रवी तत्व एक बच्ची से बलात्कार का बदला लेने के बहाने उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे की हवा निकाल देने में लगे हुए है.