धर्मस्थलों को प्रचार के लिए इस्तेमाल न करने की चुनाव आयोग की नसीहत का क्या अर्थ है?

चुनाव आयोग अपनी नई एडवाइज़री को लेकर वास्तव में गंभीर है तो उसका स्वागत किया जा सकता है. इसके बावजूद इस जवाब की दरकार रहेगी कि इस बार इसके अनुपालन के लिए उसने कौन-सी नई व्यवस्था बनाई है जिनसे आश्वस्त हुआ जा सके कि पिछली बार की तरह इस बार कोई पक्षपात नहीं किया जाएगा?

क्यों विशेष होती है 29 फरवरी

सर्वथा खगोलीय कारणों से किए गए लीप ईयर के निर्धारण से विभिन्न देशों में समय के साथ अनेक रोचक सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताएं भी जुड़ीं. कहीं लीप ईयर को उल्लास का अवसर मानकर उसकी ख़ुशी मनाने के लिए सार्वजनिक छुट्टी की मांग की जाती है तो कहीं इसे अशुभ क़रार दिया जाता है.

अयोध्या आने वाले श्रद्धालुओं के साथ हुईं घटनाओं की ख़बर देने से परहेज़ क्यों कर रहा मीडिया?

अयोध्या में मीडिया के एक हिस्से द्वारा ‘नकारात्मक’ ख़बरों को नकारने का सिलसिला राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के अगले दिन ही शुरू हो गया था. तभी, जब रामलला के दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ की धक्का-मुक्की में कुछ घायल हो गए और इनमें से एक की मौत हो गई तो मीडिया ने इसे प्रसारित करने से परहेज़ किया था.

विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या उसका बिखराव नहीं, आत्मविश्वास खो देना है 

विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में अपने आक्रामक हिंदुत्व कहें या बहुसंख्यकवाद की बिना पर समता, बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार संवैधानिक मूल्यों को आक्रांत कर देश के राजनीतिक विमर्श को इस हद तक बदल दिया है कि हतप्रभ विपक्ष इन मूल्यों की बिना पर उससे जीतने का विश्वास ही खो बैठा है.

नामवर सिंह: सत्य के लिए किसी से नहीं डरना चाहिए, गुरु से भी नहीं और वेद से भी नहीं

पुण्यतिथि विशेष: नामवर सिंह आधुनिक कविता और नई कहानी के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याकार हैं. ऐसे व्याख्याकार, जिसने कविता के नए प्रतिमानों की खोज की तो तात्कालिकता के महत्व को भी रेखांकित किया. उनके व्याख्यानों की लंबी श्रृंखला ऐलान करती है कि उन्होंने हिंदी की वाचिक परंपरा को न केवल समृद्ध किया, बल्कि नई पहचान भी दी.

नई नरलीला के बीच अयोध्या

जब भी अपने भक्तों के अहंकार की परीक्षा लेनी होती है, रामलला ऐसी नरलीला करते ही करते हैं. कभी भक्त समझ जाते हैं और कभी नहीं समझ पाते. नहीं समझ पाते तो अपना अहंकार बढ़ाते जाते हैं. फिर एक दिन अचानक रामलला उसे तोड़ देते हैं तो वे पछताते हैं. अहंकार दरअसल, रामलला का आहार है.

भारत रत्न: चुनावी दुरुपयोग ने ख़िताब की प्रतिष्ठा को इसके न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया है

अपने वक़्त में कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह जैसे नेता सामाजिक समानता की जिस लड़ाई में मुब्तिला थे, उसमें उनके लिए निजी मान-अपमान या विभूषणों का कोई प्रश्न कहीं था ही नहीं. चरण सिंह जब उपप्रधानमंत्री थे, तब सरकार ने न सिर्फ भारत रत्न, बल्कि सारे पद्म पुरस्कारों को 'अवांछनीय' क़रार देकर बंद कर दिया था.

फ़ैज़ाबाद: अयोध्या नगर निगम का एक अनाम-सा हिस्सा

नवाबों का शहर फ़ैज़ाबाद, अब उस अयोध्या नगर निगम का अनाम-सा हिस्सा है, जिसके ज़्यादातर वॉर्डों के पुराने नाम भी नहीं रहने दिए गए हैं. नवाबों के काल की उसकी दूसरी कई निशानियां भी सरकारी नामबदल अभियान की शिकार हो गई हैं. हालांकि अब भी ग़ुलामी के वक़्त के तमाम नाम नज़र आते हैं, जो सरकार को नज़र नहीं आते.

अयोध्या: अब आचार्य नरेंद्रदेव की स्मृतियों का ध्वंस!

‘दिव्य’ अयोध्या में भी बदहाली झेल रहे आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन को आख़िर बंद कर दिया गया. विपक्षी दल इसे आचार्य की कर्मभूमि में उनकी स्मृतियों का ध्वंस बताते हुए आरोप लगा रहे हैं कि सत्ताधीशों ने शहर में आचार्य को इतनी-सी जगह न देकर न सिर्फ उनके बल्कि समाजवाद के प्रति भी घृणा प्रदर्शित की है.

अयोध्या: प्रधानमंत्री ने जिन मीरा मांझी के यहां चाय पी, ख़बरें दिखाने वाले उनका पक्ष ही ‘पी’ गए!

30 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बहुप्रचारित यात्रा के दौरान ‘अचानक’ अयोध्या के राजघाट स्थित कंधरपुर की निवासी उज्ज्वला योजना की दस करोड़वीं लाभार्थी मीरा मांझी के घर जाकर चाय पी थी. मीडिया ने इससे जुड़ी छोटी-बड़ी ढेरों ख़बरें दिखाईं लेकिन उनकी ‘असुविधाजनक’ बातों और मांगों को ‘गोल’ कर गए.

क्या रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा ने भाजपा को असल में दिग्विजयी बढ़त दिला दी है?

संघ परिवार के ‘विशेषज्ञों’ के अलावा भक्त मीडिया के कई स्वयंभू विश्लेषक मंदिर मुद्दे पर भाजपा की दिग्विजय पक्की बताते हुए दावा कर रहे हैं कि देश के विभिन्न अंचलों के श्रद्धालुओं को ‘भव्य’ राम मंदिर व ‘दिव्य’ अयोध्या का दर्शन कराकर पार्टी लोकसभा चुनाव तक उन्हें अपना मुरीद बना लेगी. लेकिन यह पूरा सच नहीं है.

रामोत्सव बनाम गणतंत्रोत्सव!

भारतीय गणतंत्र इस बात को भी भला कैसे भूलेगा कि इसके लिए प्रधानमंत्री ने ‘धर्माचार्य’ का चोला धारण कर लिया था और उनके ‘सिपहसालार’ उन्हें विष्णु का अवतार और प्राण-प्रतिष्ठा की तारीख को 1947 के 15 अगस्त जितनी महत्वपूर्ण बता रहे थे.

आस्थाओं के शोर में विवेक की बेदख़ली!

जहां तक धार्मिक आस्थाओं की बात है, उन्हें यों भी समझ सकते हैं कि प्राय: सभी धार्मिक समूहों में ऐसी पवित्र पुस्तकें और बानियां हैं, जिन्हें परमेश्वरकृत ‘परम प्रामाणिक सत्य’ माना जाता है. इनमें आस्था इस सीमा तक जाती है कि उनमें जो कुछ भी कहा या लिखा गया है, वही संपूर्ण सत्य और ज्ञान है और जो उनमें नहीं है, वह न सत्य है, न ज्ञान.

कोशल में रात गहराती जा रही है!

आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है.

चंपत राय की जमात को सौहार्द का अभ्यास पहले ही नहीं था, अब हिंदू एकता भी उनसे नहीं सध रही

शैव-वैष्णव संघर्षों की समाप्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की ओर से दी गई ‘सिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोंहि न पावा’ की समन्वयकारी व्यवस्था के बावजूद चंपत राय का संन्यासियों, शैवों व शाक्तों के प्रति प्रदर्शित रवैया हिंदू परंपराओं के प्रति उनकी अज्ञानता की बानगी है.

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