शोधार्थी से ऊंची रक़म वसूलता अभिलेखागार: अशोका यूनिवर्सिटी पर चंद सवाल

29 सितंबर को प्रकाशित इस लेख को इसलिए पुनर्प्रकाशित नहीं किया जा सका क्योंकि लेखक संपादकीय सुझाव के अनुसार संशोधित ड्राफ्ट भेजने के इच्छुक नहीं थे.

भीषण गर्मी में चुनावकर्मियों की मौत: चुनाव आयोग ज़िम्मेदारी कब लेगा?

मई-जून में उत्तर भारत में पसरती भीषण गर्मी से चुनाव आयोग अनजान नहीं था, लेकिन उसने चुनाव को खींचकर इतना लंबा किया कि हज़ारों कार्मिकों की जान पर बन आई और उनके लिए यह चुनाव यातना शिविर में तब्दील हो गया.

शिक्षकों पर चुनाव-संचालन का दायित्व: अध्यापन और कक्षाओं की हानि

चुनाव की ज़िम्मेदारी कुछेक दिन तक सीमित नहीं होती. चुनाव प्रक्रिया में शिक्षकों की भागीदारी दो से तीन महीने या उससे भी अधिक अवधि की हो सकती है, जिसकी वजह से कक्षाएं लंबे समय तक बाधित रहती हैं.

प्रो. जेपीएस ओबेरॉय समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को अनुभव और विवेक की कसौटी पर निरंतर आज़माते रहे

स्मृति शेष: जेपीएस ओबेरॉय को जो बात उन्हें अलग करती थी, वो थी समाजशास्त्रीय अध्ययन को सिर्फ भारत की सीमाओं तक महदूद न करने की उनकी अनवरत कोशिश. उन्होंने अपने सहयोगियों और छात्रों को भी भारत के अलावा एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय समाजों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. इसी क्रम में, ओबेरॉय ने डीयू के समाजशास्त्र विभाग में ‘यूरोपियन स्टडीज़ प्रोग्राम’ की भी शुरुआत की.

बीएन गोस्वामी, जिन्होंने सारा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने में लगा दिया

स्मृति शेष: प्रख्यात कला-इतिहासकार और भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ बीएन गोस्वामी नहीं रहे. यह उन जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वह कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके. 

विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक नियुक्तियों में ‘गुणवत्ता अंक’ का पैमाना भेदभाव का नया स्वरूप है

केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा लागू किए जा रहे ‘गुणवत्ता अंक’ (क्वालिटी स्कोर) का प्रावधान कहता है कि किसी अभ्यर्थी की गुणवत्ता इस बात से तय होगी कि उसने स्नातक, परास्नातक और पीएचडी की पढ़ाई किस संस्थान से की है. 

कविता सिंह: जिन्होंने भारत के कला इतिहास को दर्ज करने का महत्वपूर्ण काम किया

स्मृति शेष: भारतीय कला, संग्रहालयों की मर्मज्ञ इतिहासकार और जेएनयू शिक्षक कविता सिंह रीढ़विहीन होती जा रही भारत की अकादमिक दुनिया में उन बिरले लोगों में से थीं, जिन्होंने अकादमिक स्वायत्तता का पुरज़ोर समर्थन किया. अकादमिक दुर्दशा के हालिया दौर में उनका असमय चले जाना बड़ी क्षति है. 

रंजीत गुहा: जिन्होंने इतिहास को आम लोगों के अतीत का आख्यान बनाया

स्मृति शेष: इतिहासकार रंजीत गुहा नहीं रहे, पर उनकी तमाम कृतियां, लेख और व्याख्यान पढ़ने वालों को भारतीय इतिहास के बारे में नए सिरे से सोचने के औजार देते हैं और आगे भी देते रहेंगे.  

सुरेश सलिल: नदी भूमिगत हो गई, स्मृति बची है, मित्र…

स्मृति शेष: बीते 22 फरवरी को प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का निधन हो गया. विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ-साथ उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनावली के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया था.

इतिहासकार सुरेंद्र गोपाल की याद में…

स्मृति शेष: बीते दिनों गुज़रे इतिहासकार सुरेंद्र गोपाल अपने समूचे कृतित्व में वोल्गा से गंगा को जोड़ने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक कड़ियों की पड़ताल करते रहे. आने वाले वर्षों में जब भी भारत, रूस और मध्य एशिया के ऐतिहासिक संबंधों की चर्चा होगी, उनका काम अध्येताओं को राह दिखाने का काम करेगा.

श्याम मनोहर पाण्डेय: मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अध्येता

स्मृति शेष: श्याम मनोहर पाण्डेय भोजपुरी लोक महाकाव्य लोरिकी और मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अध्येता थे, जिनका बीते दिनों लंदन में निधन हो गया.

भगत सिंह: वो चिंगारी जो ज्वाला बनकर देश के कोने-कोने में फैल गई थी…

अगस्त 1929 में जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में हुई एक जनसभा में उस समय जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके साथियों के साहस का ज़िक्र करते हुए कहा कि ‘इन युवाओं की क़ुर्बानियों ने हिंदुस्तान के राजनीतिक जीवन में एक नई चेतना पैदा की है... इन बहादुर युवाओं के संघर्ष की अहमियत को समझना होगा.’

जगतार सिंह ग्रेवाल: पंजाब और सिख समुदाय का अतीत और विविधताएं दर्ज करने वाले इतिहासकार

स्मृति शेष: इतिहासकार जेएस ग्रेवाल अपने काम में मध्यकालीन भारत और विशेष रूप से पंजाब की सामाजिक विविधता और सांस्कृतिक बहुलता को रेखांकित करते रहे. इसके अलावा उन्होंने सिख इतिहास से जुड़े दुर्लभ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का जो संकलन-संपादन किया, वह इतिहास के अध्येताओं के लिए प्रेरणादायी है.

बीडी चट्टोपाध्याय: पूर्व मध्यकालीन भारत के अप्रतिम इतिहासकार

स्मृति शेष: ऐसे समय में जब भारतीय इतिहास और संस्कृति की बहुलता को एकांगी बना देने के लिए पूरा ज़ोर लगाया जा रहा हो और जब ‘वन नेशन’ जैसे नारों को उछालकर देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति को समरूप बनाने के प्रयास हो रहे हों, बीडी चट्टोपाध्याय सरीखे इतिहासकारों का कृतित्व और भी प्रासंगिक हो उठता है.

गोपी चंद नारंग का जाना उर्दू अदब की साझी विरासत के प्रतीक का जाना है…

स्मृति शेष: बीते दिनों प्रसिद्ध आलोचक, भाषाविद और उर्दू भाषा व साहित्य के विद्वान डॉ. गोपी चंद नारंग नहीं रहे. ऐसे समय में जब उर्दू भाषा को धर्म विशेष से जोड़कर उसकी समृद्ध साझी विरासत को भुला देने की कोशिशें लगातार हो रही हैं, डॉ. नारंग का समग्र कृतित्व एक भगीरथ प्रयास के रूप में सामने आता है.