काठ की हांडियों पर टिकी भारतीय जम्हूरियत के लिए ब्रिटिश आम चुनाव के सबक

इंग्लैंड के नेता चुनाव हारने के सेवानिवृत्त हो जाते हैं, आख़िर भारतीय राजनीति कब बदलेगी कि जो हार जाए, वह विदा हो जाए और अपनी पार्टी के भीतर से नई प्रतिभाओं को मौका दे.

अयोध्या की रंगत बदलने की सरकारी क़वायद के पीछे रहवासियों की भलाई का भाव नहीं है

उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा कमीशन किए गए भारतीय उद्यमिता विकास संस्थान का अध्ययन बताता है कि राज्य सरकार 85,000 करोड़ रुपये के निवेश से वर्ष 2033 तक अयोध्या को ‘दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शहरों में से एक’ बनाने को ‘तैयार’ है. हालांकि, अयोध्यावासी पिछले कामों का हश्र देखने के बाद आशान्वित नहीं हैं.

निरंतर हादसों से जूझते भारतीय उनकी ज़िंदगी को दूभर बनाती राजनीति के साथ क्यों खड़े हैं?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति ने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदार अर्थव्यवस्था को पोसा-पनपाया है जिसके लिए सामान्य नागरिक की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है.

विपक्ष ख़ुद को नाम के विपक्ष तक सीमित न रखे, आगे की लड़ाई के लिए ज़मीन पर उतरे

विपक्ष आगे की राह कैसे तय करेगा? और क्या महज बढ़ा हुआ आत्मविश्वास उसको मंजिल तक पहुंचा देगा? फिलहाल इसका ‘हां’ में जवाब मुश्किल है क्योंकि स्थितियां आगे और लड़ाई के संकेत दे रही हैं.

दुचित्तेपन से मुक्ति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: दुचित्तेपन से मुक्त होने का आशय यह नहीं है कि हम ख़ुद को संसार में विकसित चिंतन-सृजन आदि से विमुख कर लें और आधुनिकता संपन्न मानकर किसी छद्म आत्मगौरव में इठलाने लगें. दुचित्तेपन से मुक्ति एक दुधारी आलोचना दृष्टि से ही मिल सकती है.

अयोध्या में भाजपा की डैमेज कंट्रोल की कवायदें भी डैमेज हुई जा रही हैं!

राम मंदिर की ओर जाने वाले पथों के निर्माण व चौड़ीकरण के काम में दुकानों व प्रतिष्ठानों की तोड़-फोड़ से विस्थापित जिन व्यवसायियों के आक्रोश को लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार का बड़ा कारण बताया जा रहा है, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने चुनावी नतीजों के बाद अचानक सोते से जागकर उनकी सुध लेनी शुरू की तो उसे डैमेज कंट्रोल के उसके सबसे सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया था.

राजनीति में नीति की शून्यता हमें बेचैन नहीं करती

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे सामाजिक आचरण की सारी मर्यादाएं तज दी गई हैं. देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद में ख़रीद-फ़रोख़्त का काम हो सकता है तो हम इसे राजनीतिक लेन-देन समझते हैं जो होता ही रहता है. हम ऐसा लोकतंत्र बनते जा रहे हैं जिसमें मर्यादा और नैतिक कर्म की जगह घट रही है.

अयोध्या: हार से सबक लेने के वक़्त स्वयंभू हिंदुत्ववादी बौखलाए हुए क्यों हैं?

फ़ैज़ाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा की हार के बाद अयोध्यावासियों के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान से लेकर वर्तमान सांसद की मृत्युकामना तक जिस तरह अभिव्यक्ति की सीमाएं लांघी जा रही हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. शायद इसलिए कि हिंदुत्ववादियों के स्वार्थों को इतनी गहरी चोट लगी है कि समझ नहीं पा रहे कि करें तो क्या करें?

लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस चुनाव ने निश्चय ही लोकतंत्र को सशक्त-सक्रिय किया है पर उसकी परवाह न करने वालों को फिर सत्ता में बने रहने का अवसर देकर अपने लिए ख़तरा भी बरक़रार रखा है.

नरेंद्र मोदी आरएसएस के असली ‘सपूत’ हैं और संघ मोदी का सबसे बड़ा लाभार्थी

मोहन भागवत ने अपने हालिया प्रवचन में कहा कि चुनाव में क्या होता है इसमें आरएसएस के लोग नहीं पड़ते पर प्रचार के दौरान वे लोगों का मत-परिष्कार करते हैं. तो इस बार जब उनके पूर्व प्रचारक नरेंद्र मोदी और भाजपा घृणा का परनाला बहा रहे थे तो संघ किस क़िस्म का परिष्कार कर रहा था?

तानाशाही जनतंत्र के भीतर, उसी के सहारे पैदा होती है

जैसे सभ्यता का दूसरा पहलू बर्बरता का है, वैसे ही जनतंत्र का दूसरा पहलू तानाशाही है. जनतंत्र की तानाशाही इसलिए भी ख़तरनाक है कि उसे खुद जनता लाती है. वह लोकप्रिय मत के सहारे सत्ता हासिल करती है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 32वीं क़िस्त.

अधूरेपन का एहसास जनतांत्रिकता की बुनियाद है

जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं, ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 31वीं क़िस्त.

उत्तर प्रदेश: अगर विपक्षी गठबंधन ‘मंडल-2’ है तो इसे ‘कमंडल-2’ से सचेत रहना होगा

सामाजिक अन्याय झेलते आ रहे कई वंचित तबके सपा-कांग्रेस एकता की बिना पर आए लोकसभा चुनाव के नतीजों को ‘मंडल-2’ की संज्ञा दे रहे और भविष्य को लेकर बहुत आशावान हैं. हालांकि, इस एकता की संभावनाओं और सीमाओं की गंभीर व वस्तुनिष्ठ पड़ताल की ज़रूरत है.

उच्च शिक्षण संस्थानों में जातीय भेदभाव का स्तर भी ऊंचा बना हुआ है

बीते दस सालों में पूरे ही माहौल में बराबरी और न्याय की आवाज़ बहुत पीछे चली गई है. बराबरी की दिशा बनाने वाले आरक्षण को ही संदिग्ध बनाने की हवा बह रही है. ऐसे में उच्च शिक्षा के संस्थानों में जातीय भेदभाव और उत्पीड़न को मिटाए बिना समानता हासिल नहीं हो सकती.

क्या हैं विफलता के कर्तव्य?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विफल होने के बाद क्या करें या न करें यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि आपका क्या-कुछ दांव पर लगा है.

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