मिश्रित संस्कृति, भाषा की यात्रा आदि की शिक्षा का अब कोई लाभ नहीं है. उर्दू या मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचार किसी अज्ञानवश नहीं किया जा रहा. यह उनके रोज़ाना अपमान का ही एक हिस्सा है. टाटा के बाद फैब इंडिया ने भी इसी अपमान को शह दी है.
अगर राजनाथ सिंह को झूठ ही सही, सावरकर के माफ़ीनामे को स्वीकार्य बनाने के लिए गांधी की छतरी लेनी पड़ी तो यह एक और बार सावरकर पर गांधी की नैतिक विजय है. नैतिक पैमाना गांधी ही रहेंगे, उसी पर कसकर सबको देखा जाएगा. जब-जब भारत भटकता है, दुनिया के दूसरे देश और नेता हमें गांधी की याद दिलाते हैं.
द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को...
अगर किसी के ख़िलाफ़ शक़ और नफ़रत समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है. आज हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह देश को पूरी तरह तबाह कर दे.
असम में ज़मीन से ‘बाहरी’ लोगों की बेदख़ली मात्र प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक अभियान है. बेदख़ली एक दोतरफा इशारा है. हिंदुओं को इशारा कि सरकार उनकी ज़मीन से बाहरी लोगों को निकाल रही है और मुसलमानों को इशारा कि वे कभी चैन से नहीं रह पाएंगे.
वर्तमान में जिस तरह से धार्मिक शिक्षा के लिए रास्ता सुगम किया जा रहा है, ऐसे में यह भी याद रखना चाहिए कि जैसे-जैसे यह शिक्षा आम होती जाएगी, वह वैज्ञानिक चिंतन के विकास को बाधित करेगी. नागरिकों को यह बताना ज़रूरी है कि धार्मिक चेतना और वैज्ञानिक चेतना समानांतर धाराएं हैं और आपस में नहीं मिलतीं.
भाजपा के ‘मॉडल’ राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में विजय रूपाणी के इस्तीफ़ा देने के पांच संभावित कारण.
आम आदमी पार्टी का दावा है कि उसके तिरंगे के रंग पक्के हैं. शुद्ध घी की तरह ही वह शुद्ध राष्ट्रवाद का कारोबार कर रही है. भारत और अभी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को राष्ट्रवाद का असली स्वाद अगर चाहिए तो वे उसकी दुकान पर आएं. उसकी राष्ट्रवाद की दाल में हिंदूवाद की छौंक और सुशासन के बघार का वादा है.
लगभग साल भर से दिल्ली दंगों से संबंधित मामले में जेल में बंद उमर ख़ालिद की मां कहती हैं कि उसे बाहर आने पर हिंदुस्तान छोड़ देना चाहिए, लेकिन कुछ पलों बाद वो बदल-सी जाती हैं.
रघुवीर सहाय की 'अधिकार हमारा है' एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके 'प्रधानमंत्री' पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?
पहचान की अवधारणा खालिस इंसानी ईजाद है. पहचान के लिए ख़ून की नदियां बह जाती हैं. पहचान का प्रश्न आर्थिक प्रश्नों के कहीं ऊपर है. उस पहचान को अगर कोई भूमिगत कर दे, तो उसकी मजबूरी समझी जा सकती है और इससे उसके समाज की स्थिति का अंदाज़ा भी मिलता है.
राष्ट्रध्वज को जब बहुसंख्यकवादी अपराध को जायज़ ठहराने के उपकरण के रूप में काम में लाया जाने लगेगा, वह अपनी प्रतीकात्मकता खो बैठेगा. फिर एक तिरंगे पर दूसरा दोरंगा पड़ा हो, इससे किसे फ़र्क़ पड़ता है?
सरकार को सवाल पूछने, अधिकारों की बात करने और उसके लिए संघर्ष करने वाले हर इंसान से डर लगता है. इसलिए वो मौक़ा देखते ही हमें फ़र्ज़ी आरोपों में फंसाकर जेलों में डाल देती है.
75वें स्वतंत्रता दिवस पर नरेंद्र मोदी ने सौ लाख करोड़ रुपये वाली महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री गति शक्ति योजना का ऐलान कर विकास और रोजगार के संकट के समाधान का सब्ज़बाग दिखाया, तो भूल गए कि वे देश के सालाना बजट से भी बड़ी ऐसी ही योजना इससे पहले के स्वतंत्रता दिवस संदेशों में भी घोषित कर चुके हैं.
मुसलमान विरोधी घृणा से मुक्ति फ़ौरी राष्ट्रीय काम है. इसमें पहले ही 70 साल की देर हो चुकी है. अब और देर नहीं की जा सकती. अगस्त के महीने में यह नहीं हो सकता कि चीखें भारत के आसमान को ढंक लें: मुझे बचाओ और आप स्वाधीनता के बैंड बाजे के शोर से उन चीखों को दबा दें. स्वाधीनता का ऐसा पतन हमें क़बूल नहीं होना चाहिए.