धन के वर्चस्व ने बहुत चतुराई से साधारण जन को लोकतंत्र में निरुपाय कर दिया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत के साधारण वर्ग के नागरिक संवैधानिक अधिकार और पात्रता रखते हुए चुनाव नहीं लड़ सकते. हमने जो व्यवस्था बना ली है वह भारत की साधारणता को लोकतंत्र में कोई निर्णायक भूमिका निभाने से रोक रही है.

संपूर्ण क्रांति और भारतीय जनतंत्र पर उसके दूरगामी प्रभाव

आम तौर पर आपातकाल को भारतीय जनतंत्र के इतिहास में बड़ा व्यवधान माना जाता है. पर उसके पहले हुए उस आंदोलन के बारे में इस दृष्टि से चर्चा नहीं होती है कि वह जनतांत्रिक आंदोलन था या ख़ुद जनतंत्र को जनतांत्रिक तरीक़े से व्यर्थ कर देने का उपक्रम. कविता में जनतंत्र स्तंभ की सत्ताईसवीं क़िस्त.

छद्म जनतंत्र से मुक्त होना ज़रूरी है क्योंकि उससे जीवित होने का भ्रम होता है

जनतंत्र बिना राज्य के मूर्त नहीं होता. वह राज्य का गठन करता है और फिर राज्य सबसे पहले उस जन को सुरक्षित करने के नाम पर अपने अधीन कर लेता है. पर अपने इर्द गिर्द दीवार उठाकर व्यक्ति सुरक्षित होता है या अकेला? कविता में जनतंत्र स्तंभ की छब्बीसवीं क़िस्त.

वर्चस्व के पुराने समीकरण का अस्वीकार विश्वविद्यालय जीवन की पहली सीख है

विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी शिक्षा अगर कोई है तो वह है दूसरों से हमदर्दी. दूसरे यानी वे जिनसे मनुष्यत्व के अलावा हमारा और कुछ नहीं मिलता: न जेंडर, न धर्म, न भाषा, न राष्ट्रीयता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बाइसवीं क़िस्त.

मध्य प्रदेश: कथित ऊंची जाति के लोगों ने दलित दूल्हे को बग्घी से खींचकर पीटा, फायरिंग की

मामला ग्वालियर ज़िले के करहिया गांव का है. पुलिस का कहना है कि दूल्हे नरेश जाटव के परिवार ने आरोप लगाया है कि कथित ऊंची जाति के लोगों ने बारात के उनके इलाके से गुज़रने पर आपत्ति जताई थी.

कोई भाईचारा नहीं था कभी, न कोई गंगा जमुनी तहज़ीब…

भारतीय जनतंत्र एक वादा था और हिंदू-मुसलमान भाईचारा उसकी बुनियाद. लेकिन आज मुसलमान ख़ुद को बराबरी का नागरिक नहीं मान पा रहा है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की उन्नीसवीं क़िस्त.

नहीं का मुक़ाम

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अगर हम मनुष्य हैं, भारतीय लोकतंत्र के नागरिक हैं और अपने राष्ट्रीय आप्तवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ पर विश्वास करते हैं, अगर अब लग रहा है कि संविधान और उसके बुनियादी मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता को बचाना है तो हम चुपचाप नहीं रहें.

कर्नाटक: बीदर में अंतरधार्मिक संबंधों के शक में मुस्लिम महिला पर हमला, तीन गिरफ़्तार

घटना दो हफ्ते पहले घटित हुई थी, जो सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद प्रकाश में आई. पुलिस ने 5 लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है.

क़िस्साग्राम: कथा की संभावना का विस्तार करता उपन्यास

पुस्तक समीक्षा: प्रभात रंजन का हालिया उपन्यास इंगित करता है कि नैतिकता का उत्स भले ही आंतरिक हो, इसके बीज पारंपरिक आख्यान, धार्मिक कथाओं और प्रेरक जीवनियों से बोए जाते हैं.

बंगनामा: मानवता अभी जीवित थी

सड़क दुर्घटना में किसी की मृत्यु के बाद जुटी भीड़ का आक्रोश केवल दोषी वाहनचालक के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि यातायात को नियंत्रित करने में विफलता के लिए सरकार के ख़िलाफ़ भी है, और यह भी साबित करता है कि मनुष्य का मोल अभी बरक़रार है. बंगाल की सांस्कृतिक-राजनीतिक बारीकियों पर केंद्रित इस स्तंभ की पहली क़िस्त.

लोकतंत्र ही नहीं हमारी मानवीयता में भी लगातार कटौती हो रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल इस समय भाजपा और हिंदुत्व के प्रभाव में है, लगभग चपेट में. इस दौरान सार्वजनिक व्यवहार में कुल पंद्रह क्रियाओं से ही काम चलता है. ये हैं: रोकना, दबाना, छीनना, लूटना, चिल्लाना, मिटाना, मारना, पीटना, भागना, डराना-धमकाना, ढहाना, तोड़ना-फोड़ना, छीनना, फुसलाना, भूलना-भुलाना.

जानने और नकारने का अधिकार

जानना पहली सीढ़ी है. उसके सहारे या उसके बल पर जनतंत्र का रास्ता खुलता है. सत्ता के निर्णय की जांच करने और उसे नकारने का अधिकार जन को जन बनाता है.
हिंदी कविता में जनतंत्र की उपस्थिति को रेखांकित करती इस श्रृंखला की चौथी कड़ी.

संवैधानिक आचरण समूह का होना निष्पक्ष ढंग से असहमत और प्रतिरोधी होने का प्रमाण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पूर्व सिविल सेवकों के 'संवैधानिक आचरण समूह' ने सांप्रदायिक घृणा, हिंसा, चुनाव और मतदान, मौलिक अधिकारों समेत विभिन्न मुद्दों को लेकर पत्र लिखे हैं. किताब के रूप में उन पत्रों का संचयन इस डराऊ-धमकाऊ समय में निर्भय, जागरूक साहस और असहमति का दस्तावेज़ है.

लोकतंत्र को सीधी राह पर लाने का क्या उपाय है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र अपने आप सीधी राह पर वापस नहीं आता या आ सकता. हम ऐसे मुक़ाम पर हैं जहां नागरिक के लोकतांत्रिक विवेक की परीक्षा है. उन्हें ही निर्णय करना है कि वे लोकतंत्र पर सीधी राह पर वापस लाने की कोशिश करना चाहते हैं या नहीं.

‘आपको क्या मुफ़्त चाहिये’ – इस सवाल पर बच्चों के जवाब समाज की स्थिति बता देते हैं

भोपाल से प्रकाशित बच्चों की मासिक पत्रिका 'चकमक' हिंदी की अब तक की इकलौती 'बाल विज्ञान पत्रिका' है. इसका एक स्तंभ है- 'क्यों क्यों '. इसमें बच्चों से हर महीने एक सवाल पूछा जाता है और अगले महीने उसके जवाब प्रकाशित किए जाते हैं.

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