27 मई को तिनसुकिया के बाघजान गांव के पास ऑयल इंडिया लिमिटेड के एक तेल के कुएं में विस्फोट होने के बाद गैस रिसाव शुरू हुआ था. राज्य सरकार और कंपनी का कहना है कि इसे नियंत्रित करने के प्रयास जारी हैं. वहीं किसी भी नुकसान के डर से क्षेत्र के हज़ारों लोगों को यहां से हटाकर राहत कैंपों में पहुंचा दिया गया है.
अतीत में हमने कोरोना से ज़्यादा संहारक महामारियां झेली हैं, वो भी तब, जब हमारे पास आज जैसा ज्ञान-विज्ञान नहीं था लेकिन कभी इतने भयाक्रांत नहीं हुए कि अपने मनुष्य होने पर ही संदेह होने लगे और संक्रमण से बचाव का डर उस हद तक पहुंच जाए, जहां से घर लौटते प्रवासी मज़दूर अवांछनीय नज़र आने लग जाएं!
रेलवे सुरक्षा बल के आंकड़ों के मुताबिक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में करीब 80 लोगों की मौत 9 मई से 27 मई के बीच हुई है. इनमें चार वर्ष से लेकर 85 वर्ष तक के यात्री शामिल थे.
राज्य के तीन अलग-अलग क्वारंटीन सेंटर्स में रह रहे प्रवासी श्रमिकों की दो साल से भी कम उम्र की तीन बच्चियों की मौत हो गई है. अधिकारियों का कहना है कि दो बच्चियों की मौत खाते समय दम घुटने से हुई और एक कई दिन से बीमार थी.
बीते महीने चेबरोलू लीला प्रसाद और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ का फैसला एक बार फिर यह दिखाता है कि भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची, जिस पर आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व है, को कितना कम समझा गया है.
श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को न सिर्फ़ खाने-पीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, बल्कि रेलवे द्वारा रूट बदलने के कारण कई दिनों की देरी से वे अपने गंतव्य तक पहुंच पा रहे हैं. इस दौरान भूख-प्यास और भीषण गर्मी के कारण मासूम बच्चों समेत कई लोग दम तोड़ चुके हैं.
बीते दो महीनों में दिल्ली में हज़ारों लोगों के बीच खाना और राशन पहुंचाते हुए देखा कि हम भूख के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं. सैकड़ों लोग बेबसी और अनिश्चितता के अंधेरे में जी रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि अगला निवाला उन्हें कब और किसके रहमोकरम पर मिलने वाला है.
मज़दूरों के नाम पर हो रही बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बीच यह स्पष्ट दिख रहा है कि सरकार और समाज के पास न तो उनके लिए सरोकार है, न सम्मान की भाषा और व्यवहार. न ही वह गरिमा और आंख का पानी बचा है, जिसके साथ एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य समझते हुए देखता है.
आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी चीज़ का कोई तर्क बचा है? क्या यह इसलिए है कि सरकार निश्चिंत है कि उसके फैसलों की तर्कहीनता की हिमाकत पर उसकी जनता मर मिटने को तैयार बैठी है?
इतिहास से अगर कुछ साबित होता है तो सिर्फ़ यही कि आधुनिक राज्य आम तौर पर हुकूमत करने के लिए और ख़ास तौर पर दमन करने के लिए जो तरीके अपनाता है, किस तरह उनकी जड़ें महामारियों से निपटने के उपायों तक भी जाती हैं.
मध्यम वर्ग को पता है कि छह साल में उसकी कमाई घटी ही है, बिजनेस में गच्चा ही खाया है. उसके मकानों की कीमत गिर गई है, हर राज्य में सरकार नौकरी की प्रक्रिया की दुर्गति है, वह सब जानता है, लेकिन ये समस्याएं न तो नौजवानों की प्राथमिकता हैं और न ही उनके मध्यमवर्गीय माता-पिता की.
जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग की स्थापना करने वाले प्रोफेसर योगेंद्र सिंह का बीते दिनों निधन हो गया. उन्हें याद कर रहे हैं समाजशास्त्र विभाग के वर्तमान विभागाध्यक्ष प्रोफेसर विवेक कुमार.
दूसरे राज्यों में फंसे कामगारों को उनके गृह राज्य पहुंचाने के लिए चलाई गई श्रमिक स्पेशल ट्रेन के रजिस्ट्रेशन की जद्दोजहद के बाद यात्रा की तारीख तय न होने से मज़दूर हताश हैं. कर्नाटक, कश्मीर और गुजरात के कई कामगार इस स्थिति से निराश होकर साइकिल या पैदल निकल चुके हैं या ऐसा करने के बारे में सोच रहे हैं.
समाचार चैनल ज़ी न्यूज़ के आउटपुट के एक कर्मचारी के कोरोना संक्रमित पाए जाने के बाद चैनल परिसर को सैनेटाइज किया गया है.
बीते दिनों लॉकडाउन में प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को लेकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी और एक संगठन के मज़दूरों संबंधी सर्वे के आंकड़े पेश किए थे. इस पर शीर्ष अदालत का कहना था कि वह किसी भी निजी संस्थान के अध्ययन पर भरोसा नहीं करेगी क्योंकि सरकार की रिपोर्ट इससे इतर तस्वीर पेश करती है.