कृष्णा सोबती: क्या एक लेखक को उसकी लेखनी से जाना जा सकता है?

जन्मदिवस विशेष: साहित्य में स्त्री की उपस्थिति एक विचारणीय बात है. जिस प्रकार से कला-संस्कृति-समाज सब पुरुषों द्वारा परिभाषित और व्याख्यायित रहे हैं, ऐसे में स्त्री और उसकी भूमिका को भी प्राय: पुरुषों ने परिभाषित किया है. इसीलिए जब स्त्री और उसके इर्द-गिर्द निर्मित संसार को एक स्त्री अभिव्यक्त करती है तो एक अलग दृष्टि-एक अलग पाठ की निर्मिति होती है.

प्रेमचंद के साहित्य में स्त्रियां: परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व

आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.

क्या दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू जैसे कैंपस हिंदुत्व के प्रशिक्षण केंद्र में शेष हो जाएंगे

कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.

साहित्य में स्त्री दृष्टि

महिला दिवस विशेष: साहित्य में स्त्री दृष्टि निजी मुक्ति का नहीं बल्कि सामूहिक मुक्ति का आख्यान रचती है, इसीलिए ज़्यादा समावेशी है और अपने वृत्त में पूरी मानवता को समेट लेती है.

‘इंडिपेंडेंस’ विभाजन की पृष्ठभूमि में इतिहास और कल्पना का सामंजस्य बिठाने में सफल हुई है

पुस्तक समीक्षा: विभाजन-साहित्य उन असंख्य लोगों का इतिहास है, जिसे शासकीय ब्योरों में भुला दिया गया. चित्रा बनर्जी दिवाकरुनी का उपन्यास 'इंडिपेंडेंस' इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ता है, जहां राष्ट्रों के जन्म, विभाजन की हिंसा, उपद्रव और इसके प्रभावों को आम स्त्रियों की दृष्टि से देखा गया है.

कलाएं हमें अधिक मानवीय, संवेदनशील और सहिष्णु बनाती हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिन्दी अंचल की बढ़ती धर्मांधता, सांप्रदायिकता और हिंसा की मानसिकता आदि का एक कारण इस अंचल की मातृभाषा और कलाओं से ख़ुद को वंचित रहने की वृत्ति है. स्वयं को कला से दूर कर हम असभ्य राजनीति, असभ्य माहौल और असभ्य सार्वजनिक जीवन में रहने को अभिशप्त हैं.

महादेवी वर्मा: तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना…

जन्मदिन विशेष: महादेवी वर्मा जीवन भर व्यवस्था और समाज के स्थापित मानदंडों से लगातार संघर्ष करती रहीं और इसी संघर्ष ने उन्हें अपने समय और समाज की मुख्यधारा में सिर झुकाकर भेड़ों की तरह चुपचाप चलने वाली नियति से बचाकर एक मिसाल के रूप में स्थापित कर दिया.

यशपाल: ‘मैं जीने की कामना से, जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखता हूं…’

विशेष: यशपाल के लिए साहित्यिकता अपने विचारों को एक बड़े जन-समुदाय तक पहुंचाने का माध्यम थी. पर इस साहित्यिकता का निर्माण विद्रोह और क्रांति की जिस चेतना से हुआ था, वह यशपाल के समस्त लेखन का केंद्रीय भाव रही. यह उनकी क्रांतिकारी चेतना ही थी जो हर यथास्थितिवाद पर प्रश्न खड़ा करती थी.

कमला भसीन: सरहद पर बनी दीवार नहीं, उस दीवार पर पड़ी दरार…

स्मृति शेष: प्रख्यात नारीवादी कमला भसीन अपनी शैली की सादगी और स्पष्टवादिता से किसी मसले के मर्म तक पहुंच पाने में कामयाब हो जाती थीं. उन्होंने सहज तरीके से शिक्षाविदों और नारीवादियों का जिस स्तर का सम्मान अर्जित किया, वह कार्यकर्ताओं के लिए आम नहीं है. उनके लिए वे एक आइकॉन थीं, स्त्रीवाद को एक नए नज़रिये से बरतने की एक कसौटी थीं.

नहीं रहीं प्रख्यात महिला अधिकार कार्यकर्ता और लेखक कमला भसीन

भारत और दक्षिण एशियाई क्षेत्र में नारीवादी आंदोलन की प्रमुख आवाज़ रहीं 75 वर्षीय कमला भसीन का शनिवार तड़के निधन हो गया. वे लैंगिक समानता, शिक्षा, ग़रीबी-उन्मूलन, मानवाधिकार और दक्षिण एशिया में शांति जैसे मुद्दों पर 1970 से लगातार सक्रिय थीं.

रशीद जहां: उर्दू अदब की बाग़ी आवाज़…

जन्मदिन विशेष: 20वीं सदी में भारतीय नारीवाद के शैशवकाल में रशीद जहां न केवल स्त्रियों के विषय में विचार कर सकने वाली उभरती आवाज़ बनीं, बल्कि आने वाले समय के नारीवादी साहित्य के लिए उन्होंने ब्लूप्रिंट तैयार किया. उनका जीवन संक्षिप्त था, रचनाएं कम हैं, पर उनका प्रभाव युगांतरकारी है.

यूपी: मुज़फ़्फ़रनगर की खाप पंचायत ने महिलाओं के जींस और पुरुषों के शॉर्ट्स पहनने पर पाबंदी लगाई

राजपूत समुदाय की खाप पंचायत ने कहा कि जींस आदि परिधान पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा हैं और महिलाओं को साड़ी, घाघरा तथा सलवार-कमीज जैसे पांरपरिक भारतीय वस्त्र पहनना चाहिए. पंचायत ने चेतावनी भी दी है कि जो भी इसका उल्लंघन करते पाए जाएंगे, उन्हें दंडित और बहिष्कृत किया जा सकता है.

बलात्कार हर देश में होते हैं पर सिर्फ हमारे यहां पीड़िता को इसका दोष दिया जाता है: निर्मला बनर्जी

साक्षात्कार: महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों, सीमित किए जा रहे अधिकारों के बीच उनसे संबंधित मुद्दों पर बात करने की ज़रूरत और बढ़ गई है. देश में महिलाओं की वर्तमान परिस्थितियों को लेकर बीते पांच दशकों से महिला आंदोलनों का हिस्सा रहीं वरिष्ठ अर्थशास्त्री निर्मला बनर्जी से सृष्टि श्रीवास्तव की बातचीत.

क्या भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन ने फेमिनिज़्म को भी बांट दिया है

समाज की विभिन्न असमानताओं से घिरीं भारतीय क़स्बों-गांवों की औरतें अपनी परिस्थितियों को बदलने की जद्दोजहद में लगे हुए अपने स्तर पर किसी भी तरह अगर पितृसत्ता को चुनौती दे रहीं हैं, तो क्या वे महानगरों में फेमिनिज़्म की आवाज़ बुलंद कर रही महिलाओं से कहीं कमतर हैं?

कंगना रनौत को फेमिनिज़्म के बारे में अभी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है

कंगना रनौत का एक साथी महिला कलाकार के काम को नकारते हुए उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास और घर गिराए जाने की तुलना बलात्कार से करना दिखाता है कि फेमिनिज़्म को लेकर उनकी समझ बहुत खोखली है.