रज़ा की दृष्टि में मनुष्य जैसे पंच तत्व से गढ़ा गया है वैसे ही वह प्रकृति का भी अंग है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत की प्राचीन दृष्टि से इत्तेफ़ाक रखते हुए रज़ा मानते हैं कि मानवीय कर्तव्य ऋत को बनाए रखना है जो वे स्वयं अपनी कला के माध्यम से करने की कोशिश करते हैं. उनकी कला चिंतन, मनन और प्रार्थना है.

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सैयद हैदर रज़ा. (फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन/फेसबुक पेज)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत की प्राचीन दृष्टि से इत्तेफ़ाक रखते हुए रज़ा मानते हैं कि मानवीय कर्तव्य ऋत को बनाए रखना है जो वे स्वयं अपनी कला के माध्यम से करने की कोशिश करते हैं. उनकी कला चिंतन, मनन और प्रार्थना है.

सैयद हैदर रज़ा. (फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन/फेसबुक पेज)

प्रकृति और आधुनिकता के बीच अगर गहरा द्वैत न भी रहा हो, उनके बीच दूरी रही है और बहुत कम मूर्धन्य आधुनिक प्रकृति के चितेरे कहे जा सकते हैं. फिर भी, ऐसे कुछ हैं जिनका प्रकृति से गहरा अटूट सर्जनात्मक संवाद रहा है. रज़ा उनमें से एक थे: वे अपने बचपन में कान्हा-किसली के अभयारण्य में प्रकृति से घिरे थे और जीवन भर प्रकृति को मनुष्य का, जीवन का सबसे पर्याप्त और विश्वसनीय रूपक मानते रहे. इसलिए उचित ही था कि भारत और हिंदीविद् अनी मांतो ने इनालको भाषा संस्थान में रज़ा पर जो परिसंवाद आयोजित किया उसका विषय था: ‘रज़ा, प्रकृति और भारतीय आधुनिकता’.

संस्थान का एक छोटा सभागार काफ़ी भर गया. उसमें जितने श्रोता थे, उतने पाम्पिदू सेंटर में नहीं थे. वे अधिक मुखर, जिज्ञासु और जानकार भी थे. चार्ल्स मलामूद ने इसका विस्तार से विवेचन किया कि कैसे रज़ा के यहां प्रकृति और पुरुष की अवधारणा सिर्फ़ एक चाक्षुष रूपक नहीं बल्कि एक गहरा सर्जनात्मक अभिप्राय भी है. उन्हें लगा कि रज़ा की कला में, धीरे-धीरे पुरुष का अभिप्राय ओझल होता गया और प्रकृति की बनी रही.

मैंने यह तर्क किया कि यह अदृश्यता इस कारण भी लगती है कि प्रकृति को उद्बुद्ध करने में रज़ा यह मानने लगे थे कि पुरुष अनिवार्य रूप से उद्बुद्ध हो जाएगा. दूसरे, रज़ा का काम चिंतन नहीं सृजन था और अक्सर जो चिंतन में परस्पर विरोधी लगता है, कला में सहज सहअस्तित्व ग्रहण कर लेता और ग्राह्य भी हो जाता है. मुझे यह भी लगता है कि जैसे रंगों से वैसे ही विचारों या अभिप्रायों से रज़ा खेलते थे. यह लीला-भाव उन्हें सर्जनात्मक स्वतंत्रता देता था.

अनी मांतो ने इस बात की ओर संकेत किया कि रज़ा की संवेदना में अपार सहृदयता थी और ‘कोई दूसरा नहीं’ था. रज़ा की दृष्टि में मनुष्य जैसे पंच तत्व से गढ़ा गया है वैसे ही वह प्रकृति का भी अंग है. भारत की प्राचीन दृष्टि से इत्तेफ़ाक रखते हुए रज़ा मानते हैं कि मानवीय कर्तव्य ऋत को बनाए रखना है जो वे स्वयं अपनी कला के माध्यम से करने की कोशिश करते हैं. उनकी कला चिंतन, मनन और प्रार्थना है.

रज़ा का लंबा सुविचारित शोध करने वाली विशेषज्ञ क्रिस्तिआन द लांतानक ने अपने निबंध ‘हाथ जो आंखों को आत्मन का रहस्य बताता है’ में भारत की प्राचीनता और निरंतरता और समकालीनता के बीच स्थित कई अंतर्विरोधों को स्पष्ट करते हुए अंत में स्वयं रज़ा द्वारा अपना हस्तलिपि में अपनी डायरी ‘ढाई अक्षर’ में आइंस्टाइन के उद्धरण का हवाला देते हुए बताया कि सबसे सुंदर और सघन भाव जो हम अनुभव कर सकते हैं वह रहस्य भाव है. वह सारे विज्ञान का बीज है. जिस अपनी को यह रहस्य भाव पराया लगता है और जो उसमें डूब नहीं पाता वह मृतप्राय है.

महान वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि कॉस्मिक धर्म सबसे सशक्त और प्राचीन स्रोत है वैज्ञानिक शोध का. रज़ा की कला को रहस्य-भाव प्राण-प्रतिष्ठा की एक आधुनिक चेष्टा के रूप में भी देखा-समझा जा सकता है.

स्वर्ण द्वीप की स्वप्न-कथा

उदयन वाजपेयी प्रख्यात फ्रेंच लेखक एलेन सिक्स्‍यू से मिलने गए जिनसे उनका पुराना परिचय है. वे इन दिनों वयोवृद्ध और कृशकाय हैं. उनके सुझाव पर और सहायता से हम दोनों को महान फ्रेंच रंग-निर्देशक आरियन मुश्किन की नई रंग प्रस्तुति देखने मिल गई. सोले रंगमंच पेरिस शहर के लगभग बाहर है और वहां जाना आसान नहीं है. हम टैक्सी से गए और इतवार को दोपहर साढ़े बारह बजे पहुंचे. बड़ी संख्या में दर्शक जमा थे और प्रस्तुति के पहले जापानी भोजन सबको मिला.

15 मिनट के अंतराल को छोड़ दें तो प्रस्तुति तीन घंटे की थी. बरसों पहले यहीं हमने मुश्किन की ‘आखि़री कारवां’ शीर्षक प्रस्तुति देखी थी जिसकी अवधि छह घंटे की थी: हबीब तनवीर भी हमारे साथ थे. तब भी भोजन की व्यवस्था थी और कैंटीन में भोजन परोसने का काम अभिनेता कर रहे थे और उनमें निर्देशक मुश्किन भी शामिल थीं.

मुश्किन का रंगमंच महाकाव्यात्मक तो है ही उसमें संसार में इन दिनों जो हो रहा है उसकी गहरी स्मृति और समझ होती है. कथानक यह है कि एक अधेड़ बीमार स्त्री एक स्वर्ण द्वीप जाने की कोशिश एक सपने में करती, जहां एक नाट्य समारोह हो रहा है. प्रस्तुति में इसकी अनेक छबियों और प्रसंगों का कोलाज जैसा बनता है: हर प्रसंग तेज़ी से होता और तेज़ी से ही बदलता है. तरह-तरह के तख़्ते इधर-उधर जमाकर अलग-अलग दृश्यों के अलग-अलग दृश्यबंध बनते रहते हैं.

अभिनेता ही मंच पर जमा रंग-सामग्री को हटाते-जमाते रहते हैं. इस प्रस्तुति में अद्भुत क्रियाशीलता थी- सारे अभिनेता दौड़कर दृश्यबंध बनाते और उसे उतनी ही फुर्ती से हटाते हैं. कई भाषाएं बोली जाती हैं जिनमें फ्रेंच के अलावा अंग्रेज़ी, जापानी आदि शामिल हैं. अन्य भाषाओं के बोले जाने पर उनके फ्रेंच अनुवाद रंगमंच के ऊपर लिखित रूप में प्रक्षेपित होते रहे. मौसम, उनके अनेक बदलाव भी पृष्ठभूमि में द्योतित होते रहे. हमारे समय में मानवीय आकांक्षा, प्रयत्न, सफलता-विफलता, संवाद और उसकी असंभवता, सहकार और उसकी अड़चनें, दुख-सुख-हंसी-चीत्कार आदि अनेक भाव और प्रसंग ऊभ-चूम होते रहे. टेक्नोलॉजी का अत्यन्त सक्षम-सुघर इस्तेमाल मुश्किन अपनी प्रस्तुति में करती हैं जिनकी दृष्टि के केंद्र में मनुष्य है. मुश्किन हर प्रस्तुति में एक नया पर ज़रूरी आदमीनामा प्रस्तुत करती हैं.

जापानी भोजन करते समय मेज़ पर नांत से आया एक युगल मिल गया जिसकी छह साल की हो रही बच्ची हिंदी सीख रही है और जो कुछ शब्द और वाक्य बोलने लगी है. जो पंक्ति याद रह गई वह थी: ‘मुझे बुखार नहीं है’.

कला और लोग

सेंटर द पाम्पिदू कला का एक विश्वविख्यात संग्रहालय है. वहां कई गैलरियां हैं और गैलरी 4 में रज़ा की, उनके कला-काल की सबसे बड़ी प्रदर्शनी शुरू हुई है जो 15 मई 2023 तक चलेगी. 14 फरवरी को इसके शुभारंभ के अवसर पर, जिसमें प्रवेश निमंत्रण से ही था, बारह सौ से अधिक लोग मौजूद थे. सेंटर के अनुसार, इस गैलरी में शुभारंभ पर यह संख्‍या असाधारण थी.

15 फरवरी से प्रदर्शनी सार्वजनिक रूप से खुलेगी लेकिन सेंटर में प्रवेश टिकट से ही संभव है. हम अगले पांच दिन वहां थे और कई बार अलग-अलग समयों पर वहां जाते रहे. हर समय कुछ न कुछ लोग थे जो रज़ा के चित्रों को निहार रहे थे. जानकारी लेने पर पता चला कि पहले पांच दिनों में हर दिन छह सौ से अधिक दर्शकों ने यह प्रदर्शनी देखी.

यह देखना गैलरी घूमना नहीं है जैसा कि अधिकांशतः भारतीय संग्रहालयों और गैलरियों में होता है. हमने हर बार पाया कि दर्शक रुक-थमकर गंभीरता से चित्र देख रहे थे, आपस में धीमे बात कर रहे थे. इस बात पर गौर करना चाहिये कि शुभारंभ के अवसर पर जो लोग एकत्र थे उनमें अधिक से अधिक दो सौ भारतीय रहे होंगे और अब तक जो चार-पांच हज़ार देख चुके हैं उनमें भारतीयों का प्रतिशत पांच से अधिक नहीं होगा.

अपने आस-पास के लोगों, दूरदराज़ स्थित युवा लोगों और मित्रों की लगातार चिंता और मदद करने वाले उदारचित्त रज़ा के चित्रों में ज़ाहिर तौर पर लोग नहीं हैं. लोग नहीं हैं पर उनके चित्रों में अदम्य मानवीय उपस्थिति है. वे प्रथमतः और अंततः मनुष्य के बारे में है. लोग इस तरह रुक-थमकर देखते हुए उनके चित्रों में व्यक्त उनका उदग्र रंगबोध, उनकी संवेदनशीलता और गहरे आशय और अभिप्राय पहचानने के अलावा, उम्मीद है उनकी अदम्य मनुष्यता भी पहचान रहे होंगे.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)