कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.
शेषेंद्र शर्मा तेलुगू के बड़े तेजस्वी कवि थे: उनकी कविता और व्यक्तित्व में समान तेजस्विता थी. उनकी जीवनसंगिनी इंदिरा देवी राजगीर ने उनकी स्मृति में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी, तेलुगू, संस्कृत और उर्दू विभागों में चार वार्षिक व्याख्यानमालाएं स्थापित हैं. यह एक अनूठा उपक्रम है और हिंदी विभाग ने मुझे इस बार यह आख्यान देने आमंत्रित किया. मैंने विषय चुना: ‘कविता और समय’
कविता और समय का संबंध बहुत पुराना है पर चूंकि दोनों तेज़ी से बदलते रहते हैं, विषय के रूप में वह बासा नहीं पड़ता. भारत में जो समय पारंपरिक रूप से कभी एकरैखिक, एकतान या इकहरा नहीं रहा है.
भारतीय बहुसमयता के नागरिक हैं. इसका एक सीधा प्रमाण यह है कि हम व्यापक रूप से आज भी अनेक पंचांग बरतते हैं. कुछ सामाजिक व्यवहार में, कुछ निजी जीवन में. किसी भी दिन हमारी कम से कम चार तिथियां होती हैं: पहली ग्रेगोरियन पंचांग से, दूसरी विक्रम संवत से, तीसरी हिजरी गणना से और चौथी किसी स्थानीय तेलुगू या बांग्ला या मराठी पंचांग के हिसाब से. आशय यह है कि हम चार तारीखों में एक साथ होते हैं.
समय के कई रूप हैं: इतिहास, स्मृति, परंपरा, आधुनिकता, समकालीनता और कालबोध. समय के साथ स्थान से, देश के साथ काल से कविता संबद्ध होती है. अगर लय, गति-यति, मौन-मुखरता, संकेत और छंद समय के गुण हैं तो वे कविता के भी हैं. पर कविता समय का जब-तब प्रतिरोध भी होती है. वह समय में रहकर उसके पार जाने की आकांक्षा करती है.
शायद इसलिए कि उसे पता है कि सच समय में पूरा नहीं समाता- वह समय के पार भी होता है. सच पर जितना दावा समय का है उससे कम कविता का नहीं हो सकता. अगर समय सच, किसी हद तक, रचता है तो कविता भी सच रचती है. यह आकस्मिक और अकारण नहीं है कि अक्सर कविता अनुसमय नहीं, प्रतिसमय होती है.
प्रेम की तरह कविता भी अपना समय रचती है. वह हमें कई समयों में एक साथ ले जा सकती है: कभी वह अतीत की अतीतता का एहसास कराती है, कभी अतीत की वर्तमानता का. कविता कई बार समय को बीतने से कुछ देर के लिए थाम लेती है. वह समय में रहकर समयातीत को छूने की चेष्टा करती है. कविता ‘दूसरा इतिहास’ होती है, दूसरा समय भी. छायावाद स्वतंत्रता-संग्राम का दूसरा इतिहास है- स्वतंत्रता का कल्पलोक रचते हुए.
महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-झूठ-फ़रेब-पाखंड से लदा-फंदा; सामाजिक सद्भाव, समरसता, पारस्परिकता को ध्वस्त करता समय; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने, असहमति और संवाद को दबाने का समय. ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.
उसे राजनीति-धर्म-बाज़ार-मीडिया के अभूतपूर्व गठबंधन के बरक़्स स्वयं एक तरह की प्रतिराजनीति के रूप में उभरता और सक्रिय हो सकना चाहिए जो राजनीति की सर्वग्रासिता का निषेध और प्रतिरोध करे. उसे इस सम्राग्रीकरण और सरलीकरण के विरुद्ध अथक सत्याग्रह होना चाहिए.
जब सचाई हर रोज़ विनियोजित हो रही है, उसे विकृत, तोड़ा-मरोड़ा जा रहा हो तो कविता का काम पूरी हिम्मत और हिकमत से समय और सचाई को दर्ज़ करना, उसकी गवाही बनना है. जब एकनिष्ठता थोपी जा रही हो तो कविता को सच की, सचाई की, दृष्टियों और शैलियों की बहुलता पर इसरार, ज़िद करना चाहिए. जब चुप्पी और ख़ामोशी, कायरता और डर बढ़ते जा रहे हों तो कविता को साहस की आवाज़, अंतकरण का शायद आखि़री बुर्ज बन सकना चाहिए.
कविता किसी भी समय में ‘हम’ और ‘वे’ के द्वैत का अस्वीकार करती है: वह संसार के अनुराग से उपजती है और हर समय उस अनुराग को केंद्र में रखने की सार्थक, भले कई बार विफल, कोशिश करती है. कविता का स्थायी समय अनुराग और आसक्ति का, साहस और नैतिक ज़िम्मेदारी का समय होता है.
इस समय हिंदी अंचल की जो राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति है उसमें आज की ज़्यादातर हिंदी कविता, इस समय का प्रतिबिंब या समर्थन नहीं, उसका नैतिक प्रतिरोध है: वह प्रतिसमय है.
समय से बाहर
समय का वैसे हम पर इतना आतंक सा है कि हम भूल जाते हैं कि कविता का रसास्वादन करने में कई बार हम समय का ख़याल नहीं करते हैं. अपने से पहले के कई कवियों की रचनाएं पढ़ते-समझते-सराहते समय हम उनके अपने समय को ज़रूरी तौर पर हिसाब में नहीं लेते हैं.
कबीर की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए कि ‘गगन की ओट निसाना है/दाएं चंद्रमा बाएं सूरज/इनके बीच छिपना है’ क्या हम कबीर की शताब्दी या तुलसीदास की पंक्तियां पढ़ते कि ‘सीय रूप किमिजाइ बखानी. गिरा अनयन, नयन बिन बानी’ क्या हम उनकी शताब्दी या समय याद करते हैं?
बड़ी कविता अपने समय से पार निकल जाती है. ऐसी कई कविता-पंक्तियां इस समय याद आ रही हैं जिसमें उनका अपना समय जितना हो सो हो पर एक तरह का शाश्वत समय- समय के पार समय: ‘रहि री मानिनि कान न कीजै/यह जोबन अंजुरी को जल है/ज्यों गुपाल मांगे सो दीजै’ (सूरदास), ‘साये की तरह हम पै अजब वक़्त बड़ा है’ (ग़ालिब), ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ (निराला) ‘आह वेदना मिली विदाई’ (प्रसाद), ‘पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला’ (महादेवी), ‘है अभी कुछ और जो कहा नहीं गया’ (अज्ञेय), ‘अंत:करण का आयतन संक्षिप्त है’ (मुक्तिबोध), ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ (शमशेर), ‘जो मुझसे नहीं हुआ, मेरा संसार नहीं’ (श्रीकांत वर्मा), ‘सुबह छः बजे का वक़्त सुबह छ: बजे की तरह’ (विनोद कुमार शुक्ल).
विवान सुंदरम का जाना
पिछले महीने के अंत में हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कलाकार विवान सुंदरम का दुखद देहावसान हुआ. लगभग आधी सदी से अधिक से भारतीय कला परिदृश्य में एक सजग-सक्रिय उपस्थिति, विवान ने अथक और सार्थक प्रयोग किए. आधुनिकता की बंधी-बंधाई लीक से हटकर उन्होंने पहले चित्रकला में और फिर संस्थापन में अपनी अलग राह खोजी.
उनकी कला शिल्प-सक्षम होने के साथ-साथ वैचारिक, उत्तेजक और प्रश्नांकन करने वाली कला थी. जब बहुत सारी कला राजनीति से दूर चली गई थी, इस विपथगामी ने कला का राजनीति से रिश्ता जोड़ा और निजी रूप से स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के पक्ष में निडर स्टैंड लिया. विवान ने अपने अनेक समकालीनों और बाद के युवाओं को अपनी अलग राह खोजने के लिए प्रोत्साहित किया और देश भर में ऐसे विपथगामियों की एक बड़ी प्रभावशाली सक्रिय बिरादरी बनाई. वे एक नायक कलाकार थे.
विवान ने अपने कई कला-प्रकल्पों जैसे ‘माच्चू पिच्चू शिखर’, ‘डिसक्रीट चार्म्स ऑफ बुर्जुआजी’ ‘पोस्टरकार्ड पर गांधी’, ‘विक्टोरिया मेमोरियल प्रकल्प’ ‘अमृता शेरगिल प्रकल्प’ आदि से यह याद दिलाया कि आधुनिकता की भी अब परंपरा बन गई है जिसे याद किया जा सकता है.
विवान आधुनिकता के कला-संस्मरणकार बने. अपने समय में गहरी आलोचक-कला की रचना और साहस के लिए विवान सुंदरम हमेशा याद किए जाएंगे.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)