बहिश्ती ज़ेवर विवाद: मुस्लिमों के दानवीकरण की दक्षिणपंथी योजना में किताबों को लपेटने की कोशिश

दक्षिणपंथी स्तंभकार मधु किश्वर के 'मानुषी' ट्रस्ट ने दारुल उलूम देवबंद में 'बहिश्ती ज़ेवर' नाम की किताब पढ़ाए जाने का दावा करते हुए कहा था कि इसमें यौन हिंसा और यौन अपराध को वैध बताने की कोशिश की गई है. हालांकि, सच यह है कि यह किताब दारुल उलूम के पाठ्यक्रम में ही शामिल नहीं हैं. 

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बहिश्ती ज़ेवर और दारुल उलूम देवबंद. (फोटो साभार: रेख्ता/विकीमीडिया कॉमन्स)

दक्षिणपंथी स्तंभकार मधु किश्वर के ‘मानुषी’ ट्रस्ट ने दारुल उलूम देवबंद में ‘बहिश्ती ज़ेवर’ नाम की किताब पढ़ाए जाने का दावा करते हुए कहा था कि इसमें यौन हिंसा और यौन अपराध को वैध बताने की कोशिश की गई है. हालांकि, सच यह है कि यह किताब दारुल उलूम के पाठ्यक्रम में ही शामिल नहीं हैं.

बहिश्ती ज़ेवर और दारुल उलूम देवबंद. (फोटो साभार: रेख्ता/विकीमीडिया कॉमन्स)

भारतीय मुसलमानों को अपने ही मुल्क में खलनायक बना देने वाली विभाजनकारी राजनीति बड़े पैमाने पर वैधता हासिल कर चुकी है.

कहना चाहिए कि हिंदुत्व और इनकी विचारधारा से संचालित समूहों द्वारा पैदा किए गए मिथकों ने मुसलमानों के दानवीकरण के प्रयासों में मनचाही सफलता अर्जित करते हुए सांप्रदायिक ताकतों को हर तरह से सशक्त कर दिया है.

अब इसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार कहें, प्रोपगेंडा कहें या सीधे-सीधे इस्लामोफ़ोबिया का नाम दें, सच्ची बात तो यही है कि ये नफ़रत प्रायोजित है.

और कौन जाने अभी और कितने नश्तर टूटने बाक़ी हैं… हालांकि, इस नफ़रत ने जान लेने तक का हुनर सीख लिया है. मुसलमान लाख कहें कि वो ऐसे नहीं हैं या वैसे नहीं हैं, बात तो वही है कि नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता है.

ऐसे में मुसलमानों के बारे में कही जाने वाली कौन-सी बेहूदा बात किसे हैरान करती होगी, इसका अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है.

अभी पिछले दिनों ख़बर पढ़ी, जिसमें दावा किया गया था कि देश के प्रमुख धार्मिक शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद में ऐसी तालीम दी जा रही है, जिसमें हर तरह की यौन हिंसा और यौन अपराध को वैध या सामान्य बताने की कोशिश की गई है.

साफ़ शब्दों में कहें, तो आरोप लगाया गया कि क्या जानवर, क्या डेड बॉडी (मृत शरीर), क्या बच्चे, क्या बच्चियां, क्या औरत, क्या मर्द और क्या नामर्द सबके साथ यौन संबंधों (गुदा मैथुन तक) के बारे में पढ़ाया जाता है.

एक प्रमुख और विश्वस्तरीय धार्मिक शिक्षण संस्थान के ख़िलाफ़ इतने गंभीर आरोपों को लोगों के बीच क्या सिर्फ़ इसलिए सच नहीं समझा गया होगा कि ये एक मदरसे से संबंधित ख़बर थी? और मदरसों के बारे में जिस तरह के दुष्प्रचार हमारे सामने हैं, उनकी मौजूदगी में मुसलमानों को कामवासना में लिप्त दुराचारी बता देना कौन-सी ऐसी बड़ी मशक़्क़त है.

ख़ैर, इस तरह के दुष्प्रचार और प्रोपगेंडा के सहारे जहां एक प्रमुख मदरसे को बदनाम किया गया, वहीं स्वतः ही मुस्लिम समाज के बेहद ‘शर्मनाक चेहरा’ के चित्रांकन में भी इन्हें सफलता मिल गई.

दरअसल, इस पूरे प्रसंग को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के संज्ञान में लाने वाले ट्रस्ट मानुषी ने अपनी लंबी-चौड़ी शिकायत में ‘बहिश्ती ज़ेवर‘ नामी किताब को पाठ्यपुस्तक के तौर पर संदर्भित करते हुए यौन हिंसा के हवाले से तमाम तरह के घिनौने आरोप कहीं न कहीं मुसलमानों से भी जोड़ दिए.

और ये तब है जबकि ये और इस तरह की कोई किताब दारुल उलूम देवबंद तो क्या मुल्क के किसी छोटे-बड़े मदरसे के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है.

मदरसों के पाठ्यक्रम से अलग ज़रूर इसे लड़कियां अपने घरों में और अक्सर शादी के बाद पढ़ती रही हैं, और एक ज़माने में इसे कई जगहों पर अपनी बेटियों को शादी के मौक़े पर लाज़मी तौर पर देने का रिवाज रहा है.

बहरहाल, यौन अपराधों से संबंधित इस ख़बर को मिर्च-मसाला लगाकर कई जगहों पर छापा गया और अपनी कुंठित मानसिकता का परिचय देते हुए कहीं न कहीं इसे मुस्लिम समाज का सच बनाकर पेश करने की कोशिश की गई.

इसी कड़ी में आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने मानुषी की कर्ता-धर्ता और ‘द गर्ल फ्रॉम कठुआ: अ सैक्रिफाइज़्ड विक्टिम ऑफ गज़वा-ए-हिंद  की लेखक मधु किश्वर के हवाले से बताया कि जहां पूरे पाठ्यक्रम की जांच की ज़रूरत है, वहीं बच्चों के दिमाग़ से इसे खिलवाड़ बताते हुए दारुल उलूम को ख़ुफ़िया एजेंसियों के रडार पर रखने की मांग उठने जैसी बातें भी कही गईं.

इस पूरे प्रसंग में अलग से ये जतलाने की जिद्द-ओ-जहद भी की गई कि इस तरह के संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली तमाम पाठ्यपुस्तकें अरबी, उर्दू या फ़ारसी में होती हैं, इसके बावजूद ट्रस्ट ने कुछ विवादास्पद पाठ्यपुस्तकों से ‘विचित्र सामग्री’ को सामने लाने का कारनामा अंजाम दिया.

कुल मिलाकर महिला और समाज को समर्पित पत्रिका और ट्रस्ट मानुषी ने बताने की कोशिश की कि ‘यौन विकृतियों’ की बस ये एक छोटी-सी झलक है, ऐसे में शायद जो बात नहीं कही गई वो ये है कि जाने और कैसे-कैसे जघन्य अपराधों और विकारों को मदरसों में सामान्य बनाया जाता होगा.

ये भी रेखांकित किया गया कि इसके लेखक अशरफ़ अली थानवी के प्रशंसक भारतीय मुसलमानों में तो हैं ही, आईएसआईएस, तालिबान और अल-क़ायदा जैसे संगठनों में भी बड़े पैमाने पर इन्हें लोकप्रियता हासिल है. यहां ख़ासतौर पर उर्दू जैसी भाषा के अलावा इन संगठनों के संदर्भ और इशारों से भी दक्षिणपंथी सियासत की मंशा को समझने की कोशिश कर सकते हैं.

बहरहाल, यहां कुछ भी कहने से पहले मामले में शिकयत करने वाली दक्षिणपंथी कार्यकर्ता मधु किश्वर के बारे में याद कर लेना शायद ज़रूरी है कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुखर समर्थक समझी जाती हैं, और कई बार उन पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ अफ़वाह फैलाने और भ्रामक जानकारी देने के आरोप लग चुके हैं.

ऐसे ही आरोपों की बात करें तो इससे पहले मधु किश्वर ने बेहद आपत्तिजनक ढंग से अपने एक पोस्ट में मुसलमान मर्दों को ‘प्रशिक्षित सांड’ की संज्ञा दी थी और लिखा था कि मुस्लिम पुरुषों की यौन कला (Sexual Prowess) उन्हें हिंदू, ईसाई और सिख लड़कियों को लुभाने की अनुमति देती है.

उन्होंने इसे ‘सेक्स जिहाद’ का भी नाम दिया था, हालांकि बाद में इस पोस्ट को हटा लिया गया. इसी तरह पुलित्जर पुरस्कार विजेता दिवंगत फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी को उन्होंने ‘जिहादी’ बताया था.

इस बार भी उन्होंने अपने ट्रस्ट के माध्यम से दारुल उलूम देवबंद और उसके पाठ्यक्रम को निशाना बनाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन जल्द ही इस मामले मे बनाई गई जांच समिति ने दारुल उलूम को क्लीन चिट देकर कथित इल्ज़ाम से बरी कर दिया.

इस सिलसिले में दारुल उलूम ने अपने बयान में कहा कि पहले ही बात साफ़ कर दी गई थी ये किताब दारुल उलूम के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है. साथ ही, दारुल उलूम ने इस पूरे मामले को संस्था को बदनाम करने की साज़िश भी बताया.

क्या ये क्लीन-चिट सही मानों में इस विवाद का अंत है?

इसे पूरे घटनाक्रम को मुसलमानों के दानवीकरण की कोशिश से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए था.

असल में बड़ा सवाल यही है कि इस पूरे मामले की जड़ ‘बहिश्ती ज़ेवर‘ नामी किताब जो किसी मदरसे के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है, उसे ही मधु किश्वर की संस्था ‘मानुषी’ ने प्रमुखता से अपनी शिकायत का आधार क्यों बनाया?

इसका एक साफ़-सुथरा जवाब तो यही है कि ‘बहिश्ती ज़ेवर’ हमेशा से एक विवादित पुस्तक रही है, इसके ख़िलाफ़ किताबें लिखी गई हैं, फ़तवे दिए गए हैं और इसके कई अंशों को ख़ारिज करने वाले जाने कितने तर्कसंगत लेख मौजूद हैं.

ऐसे में निश्चित ही ‘मानुषी’ को मुसलमानों के ख़िलाफ़ दिल की मुराद पाने और अपना प्रोपगेंडा चलाने में इस किताब से बड़ी मदद मिली होगी.

तो क्या सचमुच ये किताब ‘यौन विकृतियों’ को जायज़ ठहराती है और इसमें वही बातें हैं जो शिकायत का दफ़्तर खोलते हुए कही गई हैं?

दरअसल, जैसे बातों के जमा-ख़र्च का हासिल कुछ नहीं होता ठीक वैसे ही हमें इस शिकायत से पता चलता है कि किसी टेक्स्ट को कैसे नहीं पढ़ना चाहिए, और कब ये ख़तरनाक हो सकता है.

और यहां तो मंशा ही कुछ और थी.

‘बहिश्ती ज़ेवर’ में है क्या?

ये किताब मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने लड़कियों के लिए लिखी थी, और उनके मुताबिक़ जब लड़कियां एक बार क़ुरान पढ़ लें तब ये किताब उन्हें दी जा सकती है.

इस किताब में जहां पैदाइश से लेकर मौत तक के हालात और मसले को दर्ज किया गया है, वहीं ख़त लिखने के तरीक़े से लेकर, बीमारियों के इलाज और कढ़ाई समेत कई दूसरे सामान तैयार करने तक के बारे में बताया गया है.

कह सकते हैं कि ये किताब आजीविका, स्वास्थ्य और आस्था के कई पहलुओं का संग्रह है.

ज़ाहिर है कि इसमें माहवारी, यौन-क्रिया या संभोग जैसे मसलों पर भी चर्चा की गई है, जिस पर पहले से ही एक बड़ी आपत्ति ये है कि इसमें बहुत कुछ खोलकर लिख दिया गया है. यहां तक कि जब इस्मत चुग़ताई जैसी लेखक पर ‘अश्लीलता’ के आरोप लग रहे थे और उस समय के कुछ लेखक भी उनकी लेखनी को अच्छी निगाह से नहीं देख रहे थे. इसी सिलसिले में जब उनकी मज़हबी तालीम पर सवाल उठाया गया तो उन्होंने लिखा कि;

‘मैंने बहिश्ती ज़ेवर पढ़ा, उसमें ऐसी खुली-खुली बातें लिखी हैं…जब बचपन में वो बातें मैंने पढ़ीं तो मेरे दिल को धक्का सा लगा. वो बातें गंदी लगीं. फिर मैंने बीए के बाद पढ़ा तो मुझे मालूम हुआ कि वो बातें गंदी नहीं बड़ी समझ-बूझ की बातें हैं जो हर ज़ी-होश इंसान (समझदार) को मालूम होनी चाहिए. वैसे लोग चाहें तो नफ़्सियात (मनोविज्ञान) और डॉक्टरों के कोर्स में जो किताबें हैं उन्हें भी गंदी कह दें.’

तो क्या यहां इस्मत ने महज़ अपने बचाव में ये बातें कहीं हैं या सचमुच ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए एक ख़ास उम्र वाली समझ की ज़रूरत होती है?

यहां दोनों बातें सही हैं, लेकिन इस किताब पर वाजिब ऐतराज़ करने वालों के अलावा एक राय उनकी भी है जो किसी लेखक की परिकल्पना को अपने कुपाठ से जोड़कर कुछ का कुछ बना देते हैं.

ख़ासतौर पर यौन-क्रिया के कई मसले और इस क्रिया के बाद स्नान के ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी होने के सवाल पर कुछ बातें ऐसी हैं जो किसी भी इंसानी व्यव्हार और धर्म का हिस्सा नहीं समझी जातीं, लेकिन ये तो सच है ही कि कुंठित मानसिकता के लोग जानवर, बच्चे और मृत शरीर किसी के साथ पाप करने से बाज़ नहीं आते.

ऐसे में इस किताब पर वाजिब और बुनियादी सवाल यही है कि क्या लेखक को इस तरह के काल्पनिक (Hypothetical) मसले पर अपवादस्वरूप भी कुछ लिखना चाहिए था? लेकिन इस सवाल में ये इल्ज़ाम नहीं जोड़ा जा सकता कि वो उसे जायज़ ठहरा रहा है.

बात वही है कि ऐसे किसी भी घिनौने कृत्य में शामिल होने वाले के लिए स्नान के ज़रूरी होने न होने के मसले से क्या फ़र्क़ पड़ता है. और अगर इन बातों को अपनी तरफ़ से लिखने की कोई मजबूरी थी तो किसी भी तरह के कुपाठ के ख़तरे से बचने के लिए फुटनोट लगाना अत्यंत ज़रूरी था.

असल में यहां बात इस अंदाज़ में लिखी गई है कि ‘अगर कोई ऐसा करता है…’, ‘अगर कोई वैसा करता है…’ तो क्या इसका मतलब ये है कि यहां उसके ‘ऐसा करने’ या ‘वैसा करने’ को जायज़ ठहराया जा रहा है.

अगर कोई बीमार ज़ेहन भी चाहे तो इसे जायज़ नहीं ठहराया सकता, क्यों कि धार्मिक ग्रंथों से ऐसी बातों की पुष्टि नहीं की जा सकती. इसके बावजूद इसको पढ़ने वाले समझदार लोग भी कई बार धोखा खा सकते हैं कि कहीं लेखक ये मसला इसलिए तो नहीं बता रहा कि ऐसा किया जा सकता है, या ऐसा करना ठीक है.

शायद इसलिए ख़्वाजा हसन निज़ामी ने भी पहले-पहल इस किताब को उर्दू की पहली अश्लील किताब कह दिया था और बाद में अपना बयान वापस ले लिया था.

अब हर आदमी के लिए तो ये मुमकिन नहीं है कि वो किसी परिकल्पित प्रश्न के बारे में अलग से तस्दीक़ करता फिरे. शायद इसलिए बहिश्ती ज़ेवर की आलोचना में लिखी जाने वाली किताबों में इसके देखने तक को हराम बताया जा चुका है और हद तो ये है कि इसमें जहां कहीं औरतों के लिखने-पढ़ने और उनके सशक्तिकरण की कोई बात कही गई है तो उसे भी ग़लत ठहराने की कोशिश की जा चुकी है.

कह सकते हैं कि आलोचना के हर तीर पहले ही चलाए जा चुके हैं.

फिर समझा जा सकता है कि ‘मानुषी’ जैसी कोई संस्था इस किताब को किस-किस तरह से इस्तेमाल कर सकती है.

क्या इसका मतलब ये है कि बहिश्ती ज़ेवर विवादित मगर अच्छी किताब है? इसके कई जवाब हो सकते हैं और एक मोहतात जवाब इस तरह हो सकता है कि ये किताब अपने समय में औरतों को शिक्षित करने की एक कोशिश थी, लेकिन ये अपने तमाम 10 हिस्सों के साथ बिना चेतावनी के हर किसी को पढ़ने के लिए नहीं दी जा सकती, वरना ये इस्मत चुगताई की तरह किसी को भी गंदी और बेहूदा लग सकती है.

‘बहिश्ती ज़ेवर’ से विवादों का रिश्ता

बहिश्ती ज़ेवर की आड़ में भले ही दारुल उलूम देवबंद को इस तरह से पहली बार निशाना बनाया गया हो, लेकिन इसको लेकर विवाद नया नहीं है. इससे पहले भी जहां इसके कई धार्मिक मसलों को गुमराहकुन बताया गया है वहीं भारतीय मुस्लिम समाज में व्याप्त जाति के सवाल पर इसको ‘मनुस्मृति’ तक की संज्ञा दी गई है.

दरअसल, मुसलमानों में जाति के सवाल पर ये किताब शादी के मसले को विषय बनाते हुए बात करती है और बहुत खुले शब्दों में जन्म के आधार पर सैयदों को सबसे ऊपर रखती है और फिर इसी तरह दूसरी जातियों का दर्जा तय करती है.

हालांकि, इसके लिए लेखक ने किसी धार्मिक ग्रंथ से कोई हवाला नहीं दिया है. इसलिए बजा तौर पर ये भी कहा जा सकता है कि ये किताब अभिजात्य  वर्ग की मानसिकता को ज़्यादा दर्शाती है.

अंत में इसके लेखक मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) के बारे में बस चंद बातें ये कि वो अपने समय के बड़े विद्वान समझे जाते हैं, और कुछ साहित्यिक कृतियों के संदर्भ में महत्वपूर्ण समझे जाने वाले आलोचनात्मक लेखों के अलावा धार्मिक मामलों पर उनकी सैकड़ों किताबें हैं.

इससे इतर उनके सियासी नज़रिये की बात करें, तो वो मुस्लिम लीग और उसकी विचारधारा के कट्टर समर्थक थे. शायद इसलिए कांग्रेस और महात्मा गांधी के बारे में उनके विचार नेक नहीं थे, बल्कि एक क़दम आगे बढ़कर वो इन्हें मुसलमानों का दुश्मन मानते थे. वो कांग्रेस और गांधी के ऐसे सख़्त विरोधी थे कि जब दारुल उलूम में कांग्रेस की हिमायत की जाने लगी और देवबंद ने उस समय की सियासत में खुलकर कांग्रेस का साथ देना शुरू किया, तो थानवी ने इस संस्था से इस्तीफ़ा तक देने में देर नहीं की.

अब ऐसे लेखक की विवादित पुस्तक को आगे करके दक्षिणपंथी क्या हासिल करना चाहते हैं, सिवाय इसके मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक गंदी राय बनाई जा सके.

अगर मामले में शिकायत करने वाले किसी भी तरह से मुसलमानों का भला चाह रहे होते तो अपने कुपाठ का परिचय देने के बजाय इसी किताब से भारतीय मुस्लिम में जाति के मुद्दे को उठाकर बताते कि देखिए कैसे भारत में जातिवाद को मज़बूत किया गया और इसके लिए उन्हें अलग से कोई मतलब निकालने की मश्श्क़त भी नहीं उठानी पड़ती क्यों कि यहां लिखने का अंदाज़ परिकल्पित नहीं है, लेकिन ये शायद उनकी अपनी विचारधारा के ख़िलाफ़ बात होती.

हां, ज़बानी जमा-ख़र्च करते हुए पसमांदा मुसलमानों की बात की जा सकती है, लेकिन उन्हें सही मानों में फ़ायदा पहुंचाने वाला कोई क़दम ये नहीं उठा सकते.

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