विशेष रिपोर्ट: 2020 में भाजपा की सत्ता में वापसी के बाद से लगभग हर संगीन अपराध में न्यायिक फैसले का इंतजार किए बिना आरोपियों को सज़ा देने के लिए उनसे जुड़े निर्माण अवैध बताकर बुलडोज़र चला दिया गया. कथित अपराध की सज़ा आरोपी के परिजनों को देने की इन मनमानी कार्रवाइयों का शिकार ज़्यादातर मुस्लिम, दलित और वंचित तबके के लोग ही रहे.
‘कई पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं. क़रीब 60 साल हो गए. मकान की रजिस्ट्री भी है, नगर निगम में भरे हाउस टैक्स की रसीदें भी हैं और कुछ वर्ष पहले जो इस मकान में निर्माण कराया था, नगर निगम से ली गई उसकी अनुमति के कागजात भी हैं…. लेकिन पुलिस और प्रशासन के लोग उस दिन कुछ भी देखने तैयार नहीं थे. बस आए और घर पर बुलडोजर चला दिया…’
ग्वालियर: यह शब्द मध्य प्रदेश के ग्वालियर ज़िले के माधौगंज थानाक्षेत्र में रहने वाले सुनील रावत के हैं. उनके 18 वर्षीय बेटे सुमित रावत को बीते जुलाई माह में एक छात्रा की हत्या के आरोप में पुलिस ने गिरफ़्तार किया था. वारदात 10 जुलाई को हुई, 13 जुलाई को सुमित पकड़ा गया और अगली ही सुबह स्थानीय पुलिस और प्रशासन के अधिकारी बुलडोजर के साथ सुमित के घर के बाहर खड़े थे.
सुनील की पत्नी क्रांति कहती हैं, ‘बेटे ने गलती की है, उसे सज़ा दो… लेकिन पुलिस और प्रशासन के अधिकारी आकर कहते हैं कि तुमने अपने बेटे को क्या सिखाया!’
सुनील ने द वायर को अपने मकान से संबंधित कागजात भी प्रस्तुत किए. गौरतलब है कि जिस मकान को अवैध निर्माण बताकर पुलिस और प्रशासन ने आनन-फानन में ढहा दिया, उसी मकान को गिरवी रखकर इस कार्रवाई से क़रीब छह महीने पहले ही उन्होंने बैंक से 5 लाख रुपये का लोन भी लिया था.
जब मकान को तोड़े जाने की भनक लोन जारी करने वाले ‘लक्ष्मीबाई महिला नागरिक सहकारी बैंक मर्यादित (ग्वालियर)’ को लगी तो उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार, ज़िला कलेक्टर (ग्वालियर), पुलिस अधीक्षक (ग्वालियर) और नगर निगम (ग्वालियर) के ख़िलाफ़ ग्वालियर हाईकोर्ट में याचिका लगा दी, जिसमें इस कार्रवाई को अवैध और मनमाना बताते हुए चारों प्रतिवादियों से ऋण की राशि वसूल किए जाने की मांग की गई है.
मकान का मालिकाना हक़ 75 वर्षीय कमल सिंह के पास है. कमल सिंह बीमार चल रहे हैं. मकान में वह, उनकी पत्नी, उनके बेटे-बहू सुनील और क्रांति समेत कुल 8 लोग रहते थे. सुनील बताते हैं कि इस मकान को गिरवी रखकर अब तक लिया जा चुका कुल कर्ज़ 7.5 लाख रुपये है.
हाईकोर्ट में लगाई गई बैंक की रिट पिटीशन में लिखा है:
‘प्रतिवादियों ने अवैध रूप से और मनमाने ढंग से उस मकान को तोड़ दिया जो याचिकाकर्ता बैंक के पास गिरवी रखा था. इसके पीछे उन्होंने कारण दिया कि यह मकान हत्यारोपी सुमित रावत का है, जबकि इस तथ्य का पता नहीं लगाया कि मकान का मालिक सुमित नहीं बल्कि कमल सिंह रजक है.’
क्रांति कहती हैं, ‘हमें तो बिना कुछ किए ही सज़ा देकर बेघर कर दिया. यहां-वहां रहकर हमने दिन काटे. वो तो पड़ोसियों के घरों से हमारे घर की दीवारें सटी हुई थीं, इसलिए तोड़-फोड़ का असर जब उनके घरों पर भी पड़ा तो वे विरोध में उतर आए और मकान का कुछ हिस्सा जमींदोज होने से बच गया. ‘ टूट-फूट से बचे मकान के उसी छोटे से हिस्सा की मरम्मत कराकर परिवार वहां रहने लगा है.
यह सिर्फ एक बानगी है, उन कार्रवाइयों की जो मध्य प्रदेश की सत्ता में वर्ष 2020 में हुए तख्तापलट के बाद बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार में शुरू हुईं. विधि विरुद्ध की गईं ऐसी कार्रवाइयों को राज्य सरकार और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का समर्थन प्राप्त हुआ. वह इस ‘बुलडोजर जस्टिस’ के ब्रांड एबेंसडर बने और खुले मंच से सार्वजनिक तौर पर कई बार इसका महिमामंडन करते नज़र आए.
मध्यप्रदेश में जितने गुंडे, बदमाश हैं, कान खोलकर सुन लें कि गरीब, कमजोर की तरफ हाथ उठा, तो मकान खोदकर मैदान बना दूंगा. मैं चैन से नहीं रहने दूंगा. pic.twitter.com/WVO0UMW0Lj
— Shivraj Singh Chouhan (@ChouhanShivraj) March 22, 2022
विधि द्वारा स्थापित शासन में किसी अपराधी को अदालतें सज़ा सुनाती हैं लेकिन न्याय के इस त्वरित तरीके के तहत पुलिस, प्रशासन के साथ मिलकर, उन संपत्तियों को बुलडोजर चलाकर जमींदोज कर देती है जिनसे आरोपी का ताल्लुक होता है. इस दौरान यह देखने तक की ज़हमत नहीं उठाई जाती है कि वास्तव में आरोपी उस संपत्ति का मालिक है भी या नहीं.
यह संपत्तियां अवैध बताकर ढहाई जाती हैं, जबकि ऐसे अनेक मामले सामने आ चुके हैं जब किसी और के नाम पर पंजीकृत वैध संपत्तियां भी आरोपी की अवैध संपत्ति बताकर ढहा दी गई हों.
अप्रैल 2022 में खरगोन में रामनवमी के जुलूस पर हुए पथराव के बाद 16 मकान और 29 दुकानों पर बुलडोजर चला दिया गया था, इनमें हसीना खान का ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत बना मकान भी शामिल था.
इसी तरह, अप्रैल 2022 में राजगढ़ में भी पीएम आवास योजना के तहत बने अजीज खां और रेहाना खां के मकान को तोड़ दिया गया था क्योंकि उनका बेटा सलमान बलात्कार के एक मामले में फरार था. इसकी शिकायत मुख्यमंत्री तक से की गई थी. मां रेहाना के मुताबिक, तोड़ा गया मकान सलमान के नाम नहीं था बल्कि उनके ससुर गफूर खां के नाम था. बेटे का कसूर हो या न हो, लेकिन सज़ा घर में रहने वाले 11 लोगों को बेघर करके दे दी.
ऐसी अधिकांश कार्रवाइयों में देखा गया है कि अवैध बताकर निर्माण तोड़े जाने से पहले नोटिस तक जारी नहीं किया जाता है. जिन मामलों में नोटिस जारी भी होता है तो महज़ खानापूर्ति के लिए, क्योंकि सब कुछ इतना आनन-फानन में होता है कि लोगों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलना तो दूर, घर से सामान तक बाहर निकालने का समय नहीं मिलता.
सुनील रावत को भी नोटिस नहीं मिला था, और न ही घर से सामान बाहर निकालने का मौका.
शहर के ही एक अन्य मामले में ललिता सक्सेना (परिवर्तित नाम) के साथ भी यही हुआ. उनके इकलौते 26 वर्षीय बेटे का नाम एक हत्याकांड में सामने आया था. ललिता के मुताबिक, उन्हें पड़ोसियों ने ही बताया कि दरवाजे पर मकान तोड़ने का नोटिस लगा है. यह सुबह 8 बजे की बात थी. वे कुछ कर पातीं, उससे पहले ही घंटेभर के भीतर पुलिस और प्रशासन के अधिकारी बुलडोजर के साथ दरवाजे पर खड़े थे.
चिकित्सा विभाग से सेवानिवृत्त ललिता के पति की मृत्यु हो चुकी है. उन्होंने द वायर को बताया, ‘बेटे की 3-4 महीने पहले ही शादी हुई थी. घर पर मैं और नई आई बहू ही थे बस. उन्होंने सामान तक निकालने का मौका नहीं दिया और बुलडोजर चला दिया. तब कुछ पड़ोसी आए और जो संभव हो सका, उन्होंने निकाल लिया. जीवनभर की जमा पूंजी से 5-6 साल पहले मकान बनाया था. मैंने उन्हें बोला भी कि यह अवैध नहीं है, इसकी रजिस्ट्री मेरे नाम है, लेकिन उन्होंने कह दिया कि यह तुम्हारे बेटे की अवैध कमाई से बना है.’
उन्होंने आगे बताया कि बाद में उनके टूटे पड़े मकान में चोरी भी हो गई और उसके अंदर रखे सामान के साथ-साथ चोर नल की टोंटियां तक चुरा ले गए.
आंसू भरी आंखों से ललिता पूछती हैं, ‘बेटा, जिसने अपराध किया है उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए… हम बचाव नहीं कर रहे, लेकिन ये कौन-सा न्याय है! अपराध किया है तो सज़ा कोर्ट देगा न? अपराध अभी साबित तो हुआ नहीं है न? और हमारा क्या कसूर है जो हमें बेघर कर रहे हो.’
वे सवाल करती हैं, ‘अधिकारी उस दिन बोले- तुमने अपने बेटे को क्या सिखाया- क्या इसके लिए मुझे सज़ा दी गई?’
इसी तरह ग्वालियर की ज्योति सुर्वे का दावा है कि उनका मकान भी तब तोड़ा गया जब उस पर ताला लगा हुआ था और वे महाराष्ट्र में थीं. उनके बेटे बाला सुर्वे को भी सुमित रावत वाले मामले में ही आरोपी बनाया गया था. उनके मकान से थोड़ी ही दूरी पर रहने वालीं उनकी एक रिश्तेदार पुलिस-प्रशासनिक कार्रवाई की प्रत्यक्षदर्शी थीं.
वे बताती हैं, ‘हमें पड़ोसियों ने बताया कि पुलिस मकान तोड़ने आई है. हम दौड़े-भागे वहां गए तो देखा कि काफी हिस्सा तोड़ा जा चुका था. जो सामान निकाल पाए, वो निकाल लिया, बाकी सब अंदर ही फंसा रहा और वो लोग घन से मकान तोड़ते रहे.’
ज्योति का मकान एक संकरी गली में हैं और अन्य मकानों से सटा हुआ है. बुलडोजर का पहुंचना संभव नहीं हुआ तो निगमकर्मियों ने घन (बड़े हथौड़े) ले जाकर मकान पर मारने शुरू कर दिए. जब सटे हुए अन्य मकानों को क्षति पहुंचने लगी तो लोगों के विरोध के बाद वे रुके. हालांकि, तब तक छत-सीढ़ियां और दीवारें तोड़े जा चुके थे. इस मकान में सिर्फ ज्योति और बाला रहा करते थे.
क़रीब 55 वर्षीय ज्योति के मुताबिक, यह पट्टे का मकान था और उनकी दिवंगत सास वत्सला बाई सुर्वे के नाम पर है. 60-70 सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी उनका परिवार यहां रह रहा था. बाला जेल में है और ज्योति अब अपने रिश्तेदारों के यहां रह रही हैं.
ज्योति का कहना है, ‘वारदात वाले दिन मेरा लड़का तो महाराष्ट्र में था. अन्य आरोपियों ने उसका नाम ले लिया तो पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. ऐसे तो कोई भी किसी का नाम ले ले तो क्या पुलिस उसे आरोपी बनाकर उसका घर तोड़ देगी? अपराध किया है तो साबित तो होने दो, तब सज़ा मिलेगी, घर तोड़ने का अधिकार थोड़ी है.’
सरकार की मनमानी को अदालत में चुनौती देने में आड़े आती आर्थिक असमर्थता
बीते तीन सालों में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने प्रदेश भर में ऐसी अनगिनत कार्रवाइयां की हैं. इस संबंध में मुख्यमंत्री शिवराज का कहना है, ‘मामा का बुलडोजर चला है, अब रुकेगा नहीं जब तक कि बदमाशों को दफन नहीं कर देगा.’
इन कार्रवाइयों को जबलपुर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका के माध्यम से अधिवक्ता अमिताभ गुप्ता ने वर्ष 2022 में चुनौती भी दी थी. उन्होंने याचिका में मुद्दा उठाया था कि आरोपियों/संदिग्धों के मकान एवं पक्के निर्माण बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के तोड़े जा रहे हैं.
उनकी याचिका में उल्लेख था;
‘हमारे संवैधानिक और कानूनी ढांचे के अनुसार पुलिस को किसी भी मामले में सजा देने का अधिकार नहीं है. यहां तक कि किसी भी अन्य कानून, नागरिक या आपराधिक, के तहत गठित प्राधिकरण भी कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद ही दंडित करने की शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिसमें कम से कम सुनवाई का अवसर देना शामिल होता है. यह पूरी तरह समझ से परे है कि किसी आरोपी के घर/संपत्ति को केवल इसलिए ध्वस्त कर दिया जाए क्योंकि उसे आरोपी बनाया गया है या उस पर कोई अपराध करने का संदेह है. उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी भी आरोपी के परिवार को उपरोक्त तरीके से दंडित किया जाना संभव नहीं है. ऐसी कोई भी गतिविधि भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.’
अमिताभ गुप्ता द वायर को बताते हैं, ‘इस याचिका को हाईकोर्ट की पीठ ने यह दलील देते हुए खारिज कर दिया था कि जिन लोगों के घरों को तोड़ा गया है, उनके पास स्वयं अपनी और अपनी संपत्तियों की रक्षा करने का कानूनी अधिकार है. इसलिए पीड़ित स्वयं न्यायालय का रुख करें.’
वहीं, ग्वालियर के अधिवक्ता विश्वजीत रतोनिया ने भी एक आवदेन मध्य प्रदेश मानवाधिकार आयोग को दिया था, जिसमें इन कार्रवाइयों को नागरिक अधिकारों का हनन बताया था. विश्वजीत बताते हैं कि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस नरेंद्र कुमार जैन ने सुनवाई से ही इनकार कर दिया और पूछने लगे, ‘आपका खुद का कोई नुकसान हुआ है क्या? दिक्कत है तो जनहित याचिका लगाओ.’
विश्वजीत कहते हैं, ‘किसी आरोपी के घरवालों और बच्चों की क्या गलती है जो घर तोड़कर उन्हें बेघर किया जाए? जब न्यायालय में ट्रायल नहीं हुआ, अदालत ने आदेश नहीं दिया, बावजूद इसके ऐसी कार्रवाइयां बताती हैं कि देश में न्यायालय नाम की संस्था शून्य हो गई है. मानवाधिकार आयोग ने भी पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया.’
द वायर ने मध्य प्रदेश के पचास के क़रीब ऐसी कार्रवाइयों का विश्लेषण किया और पाया कि सरकारी बुलडोजर का शिकार बने अधिकांश लोग निम्न आय वर्ग से आते हैं या फिर आर्थिक तौर पर इतने सक्षम नहीं होते हैं कि एक तरफ आरोपी बनाए गए अपने परिजन का क़ानूनी मुकदमा लड़ सकें और दूसरी तरफ उनकी संपत्ति तोड़ने वाली सरकार की अवैध कार्रवाई को न्यायालय में चुनौती दे सकें.
ज्योति सुर्वे की ही बात करें तो वह कुछ समय पहले तक 4,000 रुपये मासिक में एक स्कूल में साफ-सफाई का काम करती थीं. द वायर से बात करते हुए उनकी आंखों में आंसू छलक आते हैं. कहती हैं, ‘ महीनों से रिश्तेदार के घर रह रही हूं. पहली बात तो टूटे हुए मकान की मरम्मत कराने के पैसे नहीं है और दूसरी बात कि मरम्मत करा दूं और उन्होंने फिर से तोड़ दिया तो क्या होगा.’
वो मदद मांगते हुए कोई ऐसा तरीका बताने के लिए कहती हैं जिससे बिना किसी संकोच के अपना मकान रहने लायक बना सकें. जब उनसे अदालत का रुख करने की बात कही गई तो बोलीं, ‘केस लड़ने में बहुत पैसा लगता है, इतना पैसा कहां से लाएं. बेटे के केस के लिए भी तो पैसा चाहिए.’
कुछ ऐसा ही सुनील रावत कहते हैं, ‘हम भी सोच रहे हैं कि अदालत जाएं, लेकिन पैसा बहुत खर्च हो रहा है. पुलिस ने सुमित के साथ बड़े बेटे उपदेश को भी आरोपी बना दिया है. सुमित छूटे न छूटे लेकिन हम उपदेश को छुड़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं. इसलिए पहले बेटे को छुड़ाएं, तब मकान के केस का सोचेंगे.’
इनके अलावा जिन आरोपियोंं के मकान तोड़े गए, उनमें कोई पतंग का चीनी मांझा बेचने, कोई स्मैक की पुड़ियां बेचने, तो कोई मजदूरी करने का काम करता था. एक तरफ आर्थिक असमर्थता, ऊपर से आरोपी की आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते इन लोगों के परिजन बुलडोजर कार्रवाई को चुनौती ही नहीं दे सके.
वहीं, ललिता कहती हैं, ‘हाल ही में रिटायर हुई हूं. कमाने वाला कोई है नहीं. पेंशन तक शुरू नहीं हुई है, जिससे खर्चा चल सके. उसके लिए चक्कर काट रही हूं. नाते-रिश्तेदारों ने दूरी बना ली है. किसी का एक पैसे का सहारा नहीं है. ऊपर से बेटे का केस भी लड़ना है.’
इस दौरान वह अपने शरीर के बाईं तरफ इशारा करते हुए बताती हैं कि हाल ही में पैरालिसिस अटैक भी आया है.
ललिता डरी हुई हैं. मकान का फोटो तक नहीं खींचने देतीं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं इससे अफसर-अधिकारी न चिढ़ जाएं. वे कहती हैं, ‘शासन तो जो चाहे कर सकता है, उससे थोड़ी लड़ सकते हैं. वो कहेगा ये गलत है तो गलत है, कहेगा ये सही है तो सही है. कौन लड़ सकता है सरकार से!’
उनका डर ग़ैरवाजिब नहीं है. इसका एक उदाहरण ज़ैद पठान हैं. सरकार के बुलडोजर अभियान का विरोध करने की कीमत इस सामाजिक कार्यकर्ता को पिछले साल खरगोन ज़िले में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत गिरफ़्तार होकर चुकानी पड़ी थी.
बहरहाल, अमिताभ गुप्ता भी इस बात से सहमति जताते हैं कि अवैध और मनमाने ढंग से सरकारी बुलडोजर का शिकार बने अधिकांश लोग आर्थिक तौर पर इतने सक्षम नहीं हैं कि वह अपने मामले अदालत में ले जा सकें. इससे सरकार को कोई चुनौती नहीं मिल रही और वह अपने भय पैदा करने के मकसद में कामयाब हो पा रही है.
वे कहते हैं, ‘इन कार्रवाइयों के जरिये सरकार का मकसद किसी को न्याय देने या किसी पीड़ित को राहत पहुंचाने के लिए कुछ करने का नहीं था, बल्कि भय पैदा करने का था. बुलडोजर दिखाकर वह लोगों को डराना चाहती थी.’
भाजपा प्रदेश प्रवक्ता राजपाल सिसोदिया भी यह बात स्वीकारते हुए द वायर से कहते हैं, ‘हमने अपराधियों के अंदर यह भय व्याप्त करने के लिए कि सरकार अपराधियों के लिए वज्र-सी कठोर है, जबकि जनता के लिए फूल-सी कोमल, ये कार्रवाइयां कीं और इसमें हमें सफलता भी मिली.’
‘सरकार को क्या तभी अवैध निर्माण का पता चलता है जब कोई अपराध करता है…’
द वायर की पड़ताल में एक बात और सामने आई कि सरकारी बुलडोजर तले अपने निर्माणों से हाथ धो बैठे लोगों की पहली प्राथमिकता अपराध में आरोपी बनाए गए अपने परिजन को कानूनी मदद उपलब्ध कराना होती है, जिसके चलते वह इस सरकारी मनमानी को नजरअंदाज कर देते हैं. इस भागदौड़ में काफी वक्त बीत जाता है, जिसके बाद लोग सब भुलाकर टूटे निर्माणों की मरम्मत कराकर वहीं रहने लगते हैं.
ललिता भी टूटे मकान में आड़ के लिए एक दीवार उठवाकर वहीं रहने लगी हैं. सुनील रावत ने भी यही किया है. ऐसे और भी उदाहरण मिले.
पिछले साल, राज्य के ही एक जिले में एक बच्ची के साथ घटित बलात्कार की घटना के मामले में एक बुजुर्ग को आरोपी पाया गया था. अगले ही दिन पुलिस-प्रशासन की कार्रवाई में उनके मकान का एक हिस्सा बुलडोजर से गिरा दिया गया. आरोपी जेल में हैं और मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट में चल रहा है.
आरोपी के बेटे जतिन (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘मकान पूरी तरह से वैध है और पिता के नाम है. बिना नोटिस दिए की गई तोड़-फोड़ की कार्रवाई के बाद साल भर हमें किराए से रहना पड़ा था, लेकिन अब मरम्मत कराकर यहीं रहने लगे हैं.’
जतिन बताते हैं कि वह उनके मकान पर बुलडोजर चलाने की कार्रवाई के ख़िलाफ़ अदालत जाने की तैयारी में हैं. उन्होंने बताया, ‘मेरी वकील से बात हुई है. उन्होंने कहा है कि इस तरह के मामलों में तीन साल तक अपील की जा सकती है. कागज पूरी तरह तैयार हैं, बस पिता के मामले में फैसला आने वाला है इसलिए सोच रहा हूं कि उसके बाद ही इस पर आगे बढ़ूं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘अपराध किसी ने किया, सजा परिवार को क्यों? हम 30-32 साल से यहां रह रहे हैं, अब तक मकान अवैध नहीं दिखा. पिता पर अभी सिर्फ आरोप हैं, अपराध कहां सिद्ध हुआ है. कल को वो बेकसूर साबित हुए फिर इस कार्रवाई को अधिकारी कैसे न्यायोचित ठहराएंगे?’
ज्यादातर पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यक और आरक्षित जाति समूहों के लोग
द वायर ने बिना किसी तय पैमाने के रैंडम तरीके से 58 ऐसे मामलों की पड़ताल की, जिनमें आरोपियों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाए जाने की कार्रवाई की गई थी. इनमें से 49 मामलों (85 फीसदी) में आरोपी बनाए गए लोगों में मुस्लिम, दलित, आदिवासी या ओबीसी समुदाय के लोग शामिल थे.
28 मामले मुस्लिमों से जुड़े थे. लगभग इन सभी मामलों में सभी आरोपी (मुख्य आरोपी और सह आरोपी) मुस्लिम ही थे. 10 मामलों में दलित आरोपियों के घर बुलडोजर चलाए गए (इनमें से कुछ मामलों में दलित आरोपियों के साथ अन्य जाति वर्ग के सह आरोपी भी शामिल थे).
10 मामले ओबीसी वर्ग के आरोपियों के रहे (इनमें से कुछ मामलों में ओबीसी आरोपियों के साथ अन्य जाति वर्ग के सह आरोपी भी शामिल थे).
1 मामले में आदिवासी का भी मकान गिराया गया. 4 मामलों में जाति का पता नहीं चल सका, जबकि 2 मामलों में आरोपियों के दलित होने की संभावना है. 3 मामलों में ब्राह्मण आरोपियों के भी घर बुलडोजर चलाए गए.
गौरतलब है कि सिर्फ मध्य प्रदेश में ही नहीं, देश भर के भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिमों के खिलाफ चुनिंदा तरीके से बुलडोजर कार्रवाइयां की गई हैं, जिनको लेकर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया था. इस संबंध में अप्रैल 2022 में उन भाजपा शासित राज्यों को सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भेजा था जहां मुसलमानों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाए गए थे. मध्य प्रदेश भी उन राज्यों में एक था.
इस मामले के याचिकाकर्ता गुलजार आजमी का निधन हो चुका है, जबकि उनके वकील रहे शाहिद नदीम ने बताया कि मामला अभी भी शीर्ष अदालत में विचाराधीन है.
कांग्रेस की चुप्पी का कारण
राज्य के वर्तमान विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा है, लेकिन न तो पार्टी के घोषणा पत्र, न चुनाव प्रचार और न ही किसी नेता की जुबान पर भाजपा सरकार के दौरान की गईं इन विधि विरुद्ध कार्रवाइयों का कोई जिक्र है.
वास्तव में मध्य प्रदेश में सरकारी बुलडोजर गरजने की शुरुआत कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में हुई थी. ‘एंटी माफिया’ और ‘शुद्ध के खिलाफ युद्ध’ अभियान चलाकर कमलनाथ सरकार ने प्रदेश भर में कथित माफियाओं की अवैध संपत्तियों पर बुलडोजर चलाए थे.
तब सरकार पर आरोप लगा था कि वह प्रतिशोध की भावना से राजनीतिक कार्रवाई करते हुए भाजपा से जुड़े लोगों को निशाना बना रही है.
15 महीने बाद कांग्रेस की सरकार गिर गई और फिर भाजपा ने शिवराज सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई. इस बार शिवराज बदले हुए थे, कमलनाथ सरकार द्वारा छोड़े गए बुलडोजरों को उन्होंंने रोका नहीं, बल्कि उनके पहिए कांग्रेसियों की संपत्तियों की ओर घुमा दिए.
भाजपा द्वारा चुनाव में ‘बुलडोजर न्याय’ का जिक्र नहीं
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भाजपा ने योगी की ‘बुलडोजर बाबा’ के तौर पर छवि को खूब प्रचारित किया था और अपराधियों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाने के मुद्दे पर वोट भी मांगे थे. कुछ समय पहले तक मध्य प्रदेश में भी शिवराज और पार्टी के अन्य नेता बुलडोजर कार्रवाई को अपनी उपलब्धि बताते हुए हर मंच से जिक्र करते थे.
हमने मध्य प्रदेश में बुलडोजर चलाकर माफियाओं से २१ हजार एकड़ जमीन मुक्त कराई है. अब यह सारी जमीन गरीबों में बांट दी जाएगी. #AmbedkarJayanti pic.twitter.com/UDFUH60fAM
— Shivraj Singh Chouhan (@ChouhanShivraj)
कुछ लोगों ने मुझे कहा कि गरीबों और जनजातीय भाई – बहनों की जमीन पर कब्जा कर, उन्हें परेशान किया जा रहा है.
गुंडे, दादा सावधान हो जाओ. मैं यह दादागिरी चलने नहीं दूंगा.
यह भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, जिन्होंने गरीबों और किसानों के साथ गड़बड़ की, उन्हें कड़ा दंड दिया जायेगा. pic.twitter.com/tNfSZaQ1Rk
— Shivraj Singh Chouhan (@ChouhanShivraj) September 29, 2021
हुजूर से भाजपा विधायक रामेश्वर शर्मा ने तो भोपाल में ‘मामा का बुलडोजर‘ के पोस्टर भी लगवा दिए थे. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से चुनाव प्रचार पार्टी या नेता बुलडोजर का जिक्र तक नहीं कर रहे हैं.