क्या हिंदू समाज हत्यारों का साझीदार हुआ?

यह भारत का सामाजिक स्वभाव बनता जा रहा है कि मुसलमानों को खुलेआम मारा जा सकता है, उनके ख़िलाफ़ हिंसक प्रचार किया जा सकता है और पुलिस-प्रशासन से लेकर राजनीतिक दलों तक कोई भी इसे गंभीर मामला मानने को तैयार नहीं.

क्या आरएसएस बदल रहा है?

वीडियो: हाल ही में आई किताब ‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’ के लेखक बद्री नारायण बता रहे हैं कि आरएसएस किस तरह से ज़मीन पर काम करता है. पहले के और अभी के आरएसएस में क्या-क्या बदल गया है. इस किताब और आरएसएस से जुड़े कई मुद्दों पर प्रोफेसर अपूर्वानंद ने उनसे बातचीत की.

क्या अदालतें ख़ुद को अपनी ही लगाई ग़ैर ज़रूरी बंदिशों से आज़ाद कर पाएंगी

इंसान की आज़ादी सबसे ऊपर है. जो ज़मानत एक टीवी कार्यक्रम करने वाले का अधिकार है, वह अधिकार गौतम नवलखा या फादर स्टेन का क्यों नहीं, यह समझ के बाहर है. अदालत कहेगी हम क्या करें, आरोप यूएपीए क़ानून के तहत हैं. ज़मानत कैसे दें! लेकिन ख़ुद पर यह बंदिश भी खुद सर्वोच्च अदालत ने ही लगाई है.

‘हिंद के जवाहर’ का जाना…

हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि जवाहरलाल नेहरू सफल राजनेता नहीं हो सके क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे.

पारुल खक्कर की कविता से गुजरात की बेहिसी के बीच उम्मीद दिखती है…

पारुल खक्कर की कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है, कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है. गुजरात के समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है.

शैलजा टीचर: प्रश्न व्यक्ति का नहीं व्यक्तित्व की उपेक्षा का है…

शैलजा टीचर प्रसंग बताता है कि माकपा में व्यापक जनमत को लेकर कोई विशेष सम्मान नहीं है. वह जनमत को पार्टी लाइन के आगे नहीं मानती है. इसी हठधर्मिता के कारण वो सिंगूर और नंदीग्राम में जनता के विरोध के बावजूद अपनी लाइन पर अड़ी रही और बर्बाद हो गई. सत्ता चली गई, लाइन बची रह गई!

क़ानूनों की सख़्ती को मानवता के चलते स्थगित किया जा सकता है

इंसानियत का ज़िक्र कहीं तहखाने में फ़ेंक दी गई संवेदना को जगाने की ताक़त रखता है, इसीलिए सत्ता इस शब्द को बर्दाश्त नहीं कर सकती. बावजूद ऐतिहासिक दुरुपयोग के मानवता शब्द में एक विस्फोटक क्षमता है. इसे अगर ईमानदारी से इस्तेमाल करें, तो यह भीतर तक जमी बेहिसी की चट्टानी परतों को छिन्न-भिन्न कर सकता है.

त्योहारों की साझा संस्कृति और साझा ऐतिहासिक चेतना आज कहां है

क्या हम पहले के मुकाबले भावनात्मक रूप से अधिक असुरक्षित हो गए हैं? क्या हमारा भाव जगत पहले की तुलना में कहीं संकुचित हो गया है? किसी भी अन्य समुदाय के त्योहार में साझेदारी करने में अक्षम या उस दिन को हथिया लेने की जुगत लगाते हुए क्या हम हीन भावना के शिकार होते जा रहे हैं?

चीख़ और नारे में फर्क है पर जो कविता नहीं सुन सकता, वह चीख़ भी नहीं समझ सकता

जिस समाज को नारों के बिना कुछ सुनाई न पड़े उसके कान नारों से भोथरे भी हो सकते हैं. ज़ोर से बोलते रहना, शब्दों को पत्थर की तरह फेंकना, उनसे वार करते रहना, इससे मन को तसल्ली हो सकती है लेकिन इससे समाज में आक्रामकता बढ़ती है. ‘गर्मियों की रात में कितना अच्छा लगता है उस रास्ते पर चलना, जिस पर मालती ने अपनी गंध छिड़क दी हो… ‘ मैंने अपनी बेटी को यह कविता सुबह सुबह भेजी. उसके नाना

इस बार तो बंगाल को टैगोर का जन्मोत्सव मनाने का हक़ है…

2021 में बंगाल गर्वपूर्वक अपने कवि से कह सकता है, ये जो फूल आपको अर्पित करने मैं आया हूं वे सच्चे हैं, नकली नहीं. इस बार प्रेम, सद्भाव, शालीनता के लिए स्थान बचा सका हूं. यह कितने काल तक रहेगा इसकी गारंटी नहीं पर यह क्या कम है कि इस बार घृणा और हिंसा के झंझावात में भी ये कोमल पुष्प बचाए जा सके.

बंगाल परिणाम: टीएमसी की जीत नहीं, उन दो नेताओं की हार महत्त्वपूर्ण है

बंगाल के समाज के सामूहिक विवेक ने भी उस ख़तरे को पहचाना, जिसका नाम भाजपा है. तृणमूल कांग्रेस की यह जीत इसलिए बंगाल में छिछोरेपन, लफंगेपन, गुंडागर्दी, उग्र और हिंसक बहुसंख्यकवाद की हार भी है.

कोविड टीकाकरण: आम आदमी की ज़िंदगी के प्रति भारत सरकार इतनी बेपरवाह क्यों है

टीकाकरण अगर सफल होना है तो उसे मुफ़्त होना ही होगा, यह हर टीकाकरण अभियान का अनुभव है, तो भारत में ही क्यों लोगों को टीके के लिए पैसा देना पड़ेगा? महामारी की रोकथाम के लिए टीका जीवन रक्षक है, फिर भारत सरकार के लिए एक करदाता के जीवन का महत्त्व इतना कम क्यों है कि वह इसके लिए ख़र्च नहीं करना चाहती?

शंख घोष: हममें से कोई पूर्ण नहीं, सब आंशिक ही हैं…

स्मृति शेष: कवि भविष्य देख सकता है क्योंकि उसके पास जो सामने है उसके आवरण को चीरकर अंदर झांक पाने का साहस होता है. जो आज बंगाल को लील जाने को खड़ा है और जिसके सामने बंगाल साधनविहीन नज़र आ रहा है, वह शंख बाबू को आज से बीस वर्ष पहले ही दिख गया था.

लानत है, लानत, विराग को राग सुहाए, साधू होकर मांस मनुज का भर मुंह खाए…

प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा करने से पहले याद कर लें कि जिस समय वे कुंभ में जमावड़े से बचने की अपील कर रहे थे, उसी समय बंगाल में अपनी सभाओं में जनता को आमंत्रित कर रहे थे. क्या वह भीड़ संक्रमण से सुरक्षित है? क्या यह अधिकार प्रधानमंत्री, उनके गृह मंत्री को है कि वे कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका के बीच उस संक्रमण का पूरा इंतज़ाम करें? क्या यह राष्ट्रीय आपदा क़ानून के तहत अपराध नहीं है?

बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता हासिल करना असंभव है

जाति एक ऐसी बाधा है जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती. राष्ट्र बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं होते. एकजुटता या बंधुत्व के अभाव में सामाजिक संपदा का निर्माण भी नहीं हो पाता.

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