छठ का भाजपाईकरण एक और पवित्र अवसर को विकृत करने का प्रयास है

छठ में कोई पंडित, पुरोहित नहीं होता, यह भाजपा के सांसद महोदय को किसी ने नहीं बताया. छठ बिना नदी या घाट के नहीं हो सकता, यह भी सांस्कृतिक मूर्ख ही बोल सकते हैं. असल बात है मन का पवित्र होना. मन में द्वेष, घृणा और दूसरे को नीचा दिखाने की सोच के साथ छठ की बात सोचना भी पाप है.

जय भीम: आशा और निराशा दोनों के यथार्थ दिखाता न्याय का संघर्ष

टीजे ज्ञानवेल की जय भीम उम्मीद और नाउम्मीदी की फ़िल्म है. उम्मीद इसलिए कि यह दिखाती है कि इंसाफ़ के लिए लड़ा जा सकता है, जीता भी जा सकता है. नाउम्मीदी इसकी कि शायद हमारे इस वक़्त में यह सब कुछ एक सपना बनकर रह गया है.

‘हिंदू त्योहार अब मुसलमान विरोध का हथियार बन रहे हैं’

वीडियो: दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद बता रहे हैं कि किस तरह हिंदू त्योहारों का इस्तेमाल सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने और अल्पसंख्यकों को अलग-थलग करने के लिए किया जा रहा है.

त्रिपुरा में हुई सांप्रदायिक हिंसा का लाभ किसे मिल रहा है…

त्रिपुरा में मुसलमान विरोधी हिंसा भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता है. एक तो चुनाव होने वाले हैं और जानकारों का कहना है कि हर चुनाव में ऐसी हिंसा से भाजपा को लाभ होता है. दूसरे, इस फौरी कारण के अलावा मुसलमान विरोधी घृणा को हिंदू समाज का स्वभाव बनाने के लिए ऐसी हिंसा का संगठन ज़रूरी है.

सरदार उधम फ़िल्म के पास कहने को बहुत कुछ नहीं है…

इस दौर में जब देशभक्ति का नशा जनता को कई शक्लों में दिया जा रहा है, तब एक क्रांतिकारी के जीवन और उसके दौर की बहसों के सहारे राष्ट्रवाद पर सामाजिक विचार-विमर्श अर्थपूर्ण दिशा दी जा सकती थी, लेकिन यह फ़िल्म ऐसा करने की इच्छुक नहीं दिखती.

कोरोना महामारी ने स्कूली छात्रों और उनके अध्यापकों पर क्या असर डाला है

पश्चिम बंगाल के प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों के एक समूह 'शिक्षा आलोचना' द्वारा महामारी के दौरान पढ़ाई को लेकर जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि स्कूल परिसर के बाहर अपना काम जारी रखना कितना चुनौतीपूर्ण था लेकिन अध्यापकों ने उसे किया. यह रिपोर्ट पढ़ी जानी चाहिए, अध्यापकों की वकालत के लिए नहीं, यह समझने के लिए कि प्राथमिक शिक्षा कितना जटिल मसला है और उसके कितने पक्ष हैं.

फैब इंडिया का विज्ञापन वापस लेना देश के उद्योग जगत की प्राथमिकताएं दिखाता है

मिश्रित संस्कृति, भाषा की यात्रा आदि की शिक्षा का अब कोई लाभ नहीं है. उर्दू या मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचार किसी अज्ञानवश नहीं किया जा रहा. यह उनके रोज़ाना अपमान का ही एक हिस्सा है. टाटा के बाद फैब इंडिया ने भी इसी अपमान को शह दी है.

बांग्लादेश हिंसा: जिस देश में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं, वह सभ्य कैसे कहला सकता है?

बांग्लादेश में हिंसा के नए चक्र से शायद हम एक दक्षिण एशियाई पहल के बारे में सोच सकें जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा और उनकी बराबरी के हक़ के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते का निर्माण करे.

राजनाथ सिंह झूठ क्यों बोले?

अगर राजनाथ सिंह को झूठ ही सही, सावरकर के माफ़ीनामे को स्वीकार्य बनाने के लिए गांधी की छतरी लेनी पड़ी तो यह एक और बार सावरकर पर गांधी की नैतिक विजय है. नैतिक पैमाना गांधी ही रहेंगे, उसी पर कसकर सबको देखा जाएगा. जब-जब भारत भटकता है, दुनिया के दूसरे देश और नेता हमें गांधी की याद दिलाते हैं. 

मां, इस अभागे देश को रूप दो, रूप की संवेदना दो…

द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को...

क्या हिंसा की संस्कृति अब भारत की पहचान बनती जा रही है

अगर किसी के ख़िलाफ़ शक़ और नफ़रत समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है. आज हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह देश को पूरी तरह तबाह कर दे.

असम फायरिंग को अवैध क़ब्ज़े से ज़मीन ख़ाली कराने के मसले के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए

असम में ज़मीन से ‘बाहरी’ लोगों की बेदख़ली मात्र प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक अभियान है. बेदख़ली एक दोतरफा इशारा है. हिंदुओं को इशारा कि सरकार उनकी ज़मीन से बाहरी लोगों को निकाल रही है और मुसलमानों को इशारा कि वे कभी चैन से नहीं रह पाएंगे.

मनीष गुप्ता की मृत्यु फिर एक मौक़ा है कि उत्तर प्रदेश के लोग यह साबित करें कि वे ज़िंदा इंसान हैं

उत्तर प्रदेश पुलिस की बुनियादी गै़र क़ानूनी हरकत पर सवाल नहीं किया गया है. हम मान बैठे हैं कि पुलिस को कहीं भी, किसी भी वक़्त बेधड़क घुस जाने, किसी को, किसी भी अवस्था में उठा लेने का हक़ है. वह मारपीट कर सकती है, यह तो उसे सच उगलवाने के लिए करना ही पड़ता है: यही हमारी समझ है और इसलिए पुलिस कार्रवाई में कोई मारा जाए, इससे तब तक विचलित नहीं होते जब तक वह हमारा अपना न

आम आदमी पार्टी की तिरंगा यात्रा बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का ही नमूना है

आम आदमी पार्टी का दावा है कि उसके तिरंगे के रंग पक्के हैं. शुद्ध घी की तरह ही वह शुद्ध राष्ट्रवाद का कारोबार कर रही है. भारत और अभी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को राष्ट्रवाद का असली स्वाद अगर चाहिए तो वे उसकी दुकान पर आएं. उसकी राष्ट्रवाद की दाल में हिंदूवाद की छौंक और सुशासन के बघार का वादा है.

‘भारत का प्रधानमंत्री होने का… अधिकार हमारा है’

रघुवीर सहाय की 'अधिकार हमारा है' एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके 'प्रधानमंत्री' पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?

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