हिंसा पर भाजपा सरकार या आरएसएस का नियंत्रण न रहना क्या उनके लिए भी चिंता की बात है?

भाजपा सरकार और हिंसक समूह अब अलग नहीं हैं. मोनू मानेसर ही सरकार है. यह ज़रूर है कि आरएसएस इस हिंसा को हर जगह संचालित नहीं करता, न ही भाजपा करती है. नरसिंहानंद हो या प्रमोद मुतालिक, उनके नियंत्रण से बाहर हैं. लेकिन उनकी हिंसा हमेशा आरएसएस और भाजपा को फ़ायदा पहुंचाती है.

हिंदुओं को रैडिकल बनाने के संगठित अभियान से ईमानदार पुलिस अधिकारियों का चिंतित होना वाजिब है

बीते दिनों हुई पुलिस महानिदेशकों, महानिरीक्षकों की बैठक में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री भी शामिल थे. यहां राज्यों के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी चेतावनी दे रहे थे कि हिंदुत्ववादी रैडिकल संगठन देश के लिए ख़तरा बन गए हैं. हालांकि, यह ख़बर बाहर आते ही सम्मेलन की वेबसाइट से यह रिपोर्ट हटा दी गई.

‘जिस बर्बर ने किया तुम्हारा ख़ून पिता… वह नहीं मूर्ख या पागल, वह प्रहरी है स्थिर-स्वार्थों का’

गांधी की हत्या पर नागार्जुन की लिखी कविता 'तर्पण' में गोडसे को जिन्होंने तैयार किया था, वे कवि की निगाह से छिप नहीं सके. गोडसे अकेला न था. वह उन स्वार्थों का प्रहरी था जिन्हें गांधी की राजनीति से ख़तरा था. वे कौन-से स्थिर स्वार्थ थे जो गांधी को रास्ते से हटाना चाहते थे?

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री: विश्वविद्यालयों के कुलपति बहुसंख्यकवादी अधिनायकवाद के लठैत हो गए हैं

ग़ैरत निहायत ही ग़ैरज़रूरी और अनुपयोगी चीज़ है. इसके बिना इंसान बने रहना भले मुश्किल हो, ग़ैरत के साथ कुलपति बने रहना असंभव है. जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कुलपति समय-समय पर इस बात की तसदीक़ करते रहते हैं. 

संघ प्रमुख जिसे युद्ध कह रहे हैं, वह असल में हिंदुत्ववादी गिरोहों का हमला है

संघ प्रमुख ने ठीक कहा कि हिंदू युद्धरत हैं. लेकिन यह एकतरफ़ा हमला है. पिछले कुछ वर्षों में सारे हिंदू नहीं, लेकिन उनके नाम पर हिंदुत्ववादी गिरोहों ने मुसलमानों, ईसाइयों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है. और दूसरा पक्ष, यानी मुसलमान और कुछ जगह ईसाई, इसका कोई उत्तर नहीं दे सकते. फिर इसे युद्ध क्यों कहें?

भारत में मुस्लिम या ईसाई के धर्मनिरपेक्ष होने की शर्त है कि वे बहुसंख्यकवादी आग्रह स्वीकार लें

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एसए नज़ीर के विदाई समारोह में सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के अध्यक्ष ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं. उनकी नज़र में जस्टिस नज़ीर में धर्मनिरपेक्षता इसलिए थी कि शीर्ष अदालत के बाबरी मस्जिद विवाद में निर्णय देने वाली पीठ में वे एकमात्र मुस्लिम सदस्य थे पर उन्होंने मंदिर बनाने के लिए मस्जिद की ज़मीन को मस्जिद तोड़ने वालों के ही सुपुर्द करने वाले फ़ैसले पर दस्तख़त किए.

‘लव जिहाद’ के षड्यंत्र का सिद्धांत अब सामान्य सामाजिक बोध का हिस्सा बन गया है

टीवी कलाकार तुनीषा शर्मा की आत्महत्या के बाद बहस मानसिक स्वास्थ्य पर होनी चाहिए थी, इस पर कि इस उम्र में इतना काम करने का दबाव किसी के साथ क्या कर सकता है, वह भी उस दुनिया में जिसकी प्रतियोगिता असामान्य होती है. लेकिन बहस को 'लव जिहाद' का एंगल देते हुए सुविधाजनक दिशा में मोड़ दिया गया है.

नया साल: चिंता, चुनौती, आशा

नए साल में असल चिंता का विषय है, भारत में ऐसे हिंदू दिमाग़ का निर्माण जो श्रेष्ठतावाद के नशे में चूर है. मुसलमान मित्रविहीन अवस्था में है. चंद बुद्धिजीवी ही उसके साथ हैं. कश्मीर में मुसलमानों को अधिकार से वंचित किया जा रहा है. असम में उसे कोने में धकेला जा रहा है और पूरे देश में क़ानूनों और ग़ुंडों के गठजोड़ के ज़रिये उसे प्रताड़ित किया जा रहा है.

संत और साध्वी होने के लिए क्या घृणा प्रचारक होना प्राथमिक शर्त है?

पिछली सदी के आख़िरी दो दशकों में इस बात पर बहस होती थी कि साध्वी उमा भारती अधिक हिंसक हैं या साध्वी ऋतंभरा. इन दोनों की परंपरा फली फूली. साध्वी प्राची, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी शख़्सियतों के लिए सिर्फ़ लोगों के दिलों में नहीं, विधान सभाओं और संसद में भी जगह बनी.

सिख जिस हिंदुत्व का हथियार बनने से इनकार कर रहे हैं, हिंदू कब उसके धोखे को पहचान पाएंगे?

मुग़लों और सिख नेताओं में संघर्ष हुआ, लेकिन सिखों ने इस तथ्य को आज मुसलमानों पर हिंसा की राजनीति के लिए इस्तेमाल करने से गुरेज़ किया है. आरएसएस और भाजपा को यह बात खलती रही है. वे सिखों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा में शामिल करना चाहते हैं. इसलिए वे गुरु गोविंद सिंह या गुरु तेग़ बहादुर को याद करते हैं. इरादा इन्हें याद करने का जितना नहीं, उतना इस बहाने मुग़लों की ‘क्रूरता’ की याद को ज़िंदा रखने का

सरकारें अंतरधार्मिक रिश्तों के प्रति चिंतित, ताकि ‘लव जिहाद’ के दुष्प्रचार को ज़िंदा रख सकें

लड़कियां अपनी मर्ज़ी से जीना चाहती हैं. अपनी मर्ज़ी से रिश्ते बनाना चाहती हैं. इसके लिए उन्हें भागना न पड़े अपने लोगों से, ऐसा समाज बनाने की ज़रूरत है. जब तक वह न बने, तब तक इन औरतों को अगर बचाया जाना है तो उनके परिवारों से, बाबू बजरंगी जैसे गुंडों से और बजरंग दल जैसे हिंसक संगठनों से. लेकिन अब इस सूची में जोड़ना पड़ेगा कि उन्हें राज्य से भी बचाने की ज़रूरत है.

जो जनता के हित में अप्रिय सत्य बोलता है, सत्ता उसे जनता का दुश्मन घोषित कर देती है

कोलकाता में हुए एक फिल्म समारोह में अभिनेता अमिताभ बच्चन का सत्यजीत रे की 'गणशत्रु' ज़िक्र करते हुए लगाया गया अनुमान ठीक है कि आज जनता के लिए आवाज़ उठाने वाले रे की फिल्म के 'डॉक्टर गुप्ता' ही हैं, जो जनता को सावधान करना चाहते हैं, मगर सत्ता सफल हो जाती है कि जनता उन्हें ही अपना शत्रु मानकर उनकी हत्या को आमादा हो जाए.

क्या ग़ैर हिंदुओं के बारे में न जानकर हिंदू सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हैं या दरिद्र

आज के भारत में ख़ासकर हिंदुओं के लिए ज़रूरी है कि वे ग़ैर हिंदुओं के धर्म, ग्रंथों, व्यक्तित्वों, उनके धार्मिक आचार-व्यवहार को जानें. मुसलमान, ईसाई, सिख या आदिवासी तो हिंदू धर्म के बारे में काफ़ी कुछ जानते हैं लेकिन हिंदू प्रायः इस मामले में सिफ़र होते हैं. बहुत से लोग मोहर्रम पर भी मुबारकबाद दे डालते हैं. ईस्टर और बड़ा दिन में क्या अंतर है? आदिवासी विश्वासों के बारे में तो हमें कुछ नहीं मालूम.

हालिया चुनाव परिणाम बताते हैं कि प्रतिरोध का वक़्फ़ा और लंबा होने वाला है

भारत के लिए गुजरात के चुनाव परिणाम का विचारधारात्मक आशय काफ़ी गंभीर होगा. गुजरात के बाहर भी मुसलमान और ईसाई विरोधी घृणा और हिंसा में और तीव्रता आएगी. श्रमिकों, किसानों, छात्रों आदि के  अधिकार सीमित करने के लिए क़ानूनी तरीक़े अपनाए जाएंगे. संवैधानिक संस्थाओं पर भी दबाव बढ़ेगा.

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