दो महीने से जारी हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री मणिपुर का ‘म’ भी बोलने का साहस नहीं कर पा रहे हैं

तमाम सर्वे बताते हैं कि नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि ‘अत्यंत’ लोकप्रिय मोदी सांप्रदायिक दंगों, आंदोलनों या जातीय हिंसा के समय कोई अपील जारी क्यों नहीं करते? महात्मा गांधी के गुजरात से आने वाले मोदी मणिपुर के विभिन्न समुदायों के बीच जाकर शांति की अपील क्यों नहीं करते? दरअसल उनकी लोकप्रियता महज़ चुनावी है.

हिंदी अंचल को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. उसका लक्ष्य बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटा सांप्रदायिकता-हिंसा, भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग को बढ़ावा देना है.

‘कोई मजिस्ट्रेट उन मुलज़िमों के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकता जिनके साथ ख़ुद सरकार ऐसा करना न चाहे’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.

इंदिरा गांधी नरेंद्र मोदी जितनी ‘भाग्यशाली’ होतीं, तो उन्हें इमरजेंसी की ज़रूरत नहीं पड़ती!

इंदिरा गांधी यदि नरेंद्र मोदी की तरह बिना आपातकाल वैसे हालात पैदाकर लोकतांत्रिक व संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को अंजाम दे सकतीं, तो भला आपातकाल का ऐलान क्यों करातीं?

गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार गांधी और पुरस्कार दोनों को कमतर करने की कोशिश है

आधुनिक भारत में हिंदू धर्म के संबंध में गांधी जो करने की कोशिश कर रहे थे, गीता प्रेस उसके ठीक उलट लड़ाई लड़ रही थी और लड़ रही है.

देश में आगामी चुनाव बहुलतावादी लोकतंत्र को बचाने के सामूहिक संकल्प की परीक्षा होंगे

नागरिकों की चेतना को आत्मसमर्पण के लिए भ्रमित करने की बाध्यकारी राजनीति को ख़त्म करने की जरूरत है. जो लोग वैकल्पिक नेतृत्व की बात कर रहे हैं उनके कंधों पर ऐसे ऐतिहासिक मार्ग को चुनने और बनाने के साथ उस पर चलने की बड़ी चुनौती है.

सर्वेश्वर चुप रहने वाले कवि नहीं थे…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.

उत्तराखंड में संविधान और संविधान की शपथ निरर्थक हो गई है

उत्तराखंड में किस मज़हब के लोग कहां व्यवसाय करें, इसका फैसला संविधान या क़ानून नहीं बल्कि कट्टरपंथी करेंगे! नफ़रत के बीज बोने वाले जिन लोगों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वे युगपुरुष बनकर क़ानून को ठेंगा दिखा रहे हैं और संविधान की शपथ लेने वाले उनके आगे दंडवत हैं.

मुग़लकाल को पाठ्यक्रम से बाहर निकलवाकर ‘औरंगज़ेब-औरंगज़ेब’ खेलना क्या कहता है?

यह निर्णायक बात कि इस बहुभाषी-बहुधर्मी देश में सुलह, समन्वय, सामंजस्य और शांति के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है, अकबर के वक़्त यानी सोलहवीं शताब्दी में ही समझ ली गई थी, उसे आज क्यों नहीं समझा जा सकता?

क्या स्टूडियो के तूफ़ान में हिलती एंकर देश के मीडिया की स्थिति का प्रतीक है

श्वेता स्टूडियो में हिल रही हैं. इसे देखकर लोग हंस रहे हैं मगर श्वेता वीडियो में गंभीरता के साथ हिली जा रही हैं. यह नरेंद्र मोदी का आज का भारत है और उनके दौर का मीडिया है. आज के भारत का मानसिक और बौद्धिक स्तर यही हो चुका है. वर्ना गोदी मीडिया से ज़्यादा आम दर्शक इसकी आलोचना करता.

कोरोमंडल एक्सप्रेस तो पटरी पर वापस आ गई, लेकिन व्यवस्थागत जोखिम बने हुए हैं

कोलकाता और चेन्नई के बीच मुख्य ट्रंक रूट पर कोरोमंडल एक्सप्रेस के संचालन की बहाली राहत की असली वजह नहीं बन सकती क्योंकि भारतीय रेलवे की जोखिमपूर्ण व्यवस्थागत ख़ामियां अभी दूर नहीं हुई हैं.

कबीर को समझने की नई दृष्टियां

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बहुत ज़रूरी है कि कबीर को एक कवि के रूप में देखा-समझा जाए जो अपने विचार से कविता की स्वायत्तता को अतिक्रमित नहीं बल्कि पुष्ट करता है.

1 11 12 13 14 15 31