‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को राजनीतिक एजेंडा कहना ज़्यादा बेहतर है. जहां इसके सरकारी आयोजन से जुड़ी प्रदर्शनी की सामग्री में विभाजन की त्रासदी में मुसलमानों से जुड़ा कोई दुखद पहलू प्रदर्शित नहीं किया गया है, वहीं आयोजक अतिथियों को 'अखंड भारत' के नक़्शे वाले स्मृति चिह्न भेंट करते दिखे.
समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता पूरी नहीं हो सकती. बाबा साहब आंबेडकर का भी यही मानना था कि अगर राज्य समाज में समानता की स्थापना नहीं करेगा, तो देशवासियों की नागरिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रताएं महज धोखा सिद्ध होंगी.
हिंदुस्तान में जगह-जगह दरारें पड़ रही हैं या पड़ चुकी हैं. यह कहना बेहतर होगा कि ये दरारें डाली जा रही हैं. पिछले विभाजन को याद करने से बेहतर क्या यह न होगा कि हम अपने वक़्त में किए जा रहे धारावाहिक विभाजन पर विचार करें और उसे रोकने को कुछ करें?
अफ़सोस की बात थी कि जिस वक़्त संसद में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं.
निर्मम बलात्कार या यौन अपराधों के कई मामलों में अपराधी का पॉर्न देखने का आदी होना बड़ी वजह बनकर सामने आया है. पॉर्न देखने के मामले में भारत विश्व में तीसरे नंबर पर है, जिसमें 48% दर्शक युवा है. ऐसे में ज़रूरी है कि किशोर होते बच्चों को स्कूलों और सामुदायिक स्तर पर 'पॉर्न की सच्चाई’ को लेकर शिक्षित किया जाए.
राष्ट्रीय स्तर पर एक तरफ कांग्रेस वर्तमान हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ने का दम भरती है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश में इसके वरिष्ठ नेता कमलनाथ हिंदुत्व के घोर सांप्रदायिक चेहरों की आरती उतारते और भरे मंच पर उन्हें सम्मानित करते नज़र आते हैं.
देश की ग़ुलामी के दौर में विदेशी हुक्मरानों तक ने अपनी पुलिस से लोगों के जान-माल की रक्षा की अपेक्षा की थी, मगर अब आज़ादी के अमृतकाल में लोगों की चुनी हुई सरकार अपनी पुलिस के बूते सबको सुरक्षा देने में असमर्थ हो गई है.
डिजिटल निजी डेटा सुरक्षा (डीपीडीपी) विधेयक का वह संस्करण जिसे कैबिनेट की मंज़ूरी मिली है, सार्वजनिक डोमेन में नहीं है. फिर भी यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि क़ानून में वो ख़ामियां न हों, जो पिछले मसौदे में थीं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कई बार लगता है कि साहित्य और समाज, परिवर्तन और व्यक्ति के संबंध में भूमिकाओं को बहुत जल्दी सामान्यीकृत करने के वैचारिक उत्साह में उनकी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.
कई बार एकताओं व गठबंधनों से कुछ भी हासिल नहीं होता. दल मान लेते हैं कि गठबंधन कर लेने भर से बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन ज़मीनी स्तर पर समर्थकों के बीच बहुत-सी ग्रंथियां होती हैं. 'इंडिया' के घटक दलों के समर्थकों के बीच भी ऐसी ग्रंथियां कम नहीं हैं.
लगभग सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय पार्टियां मज़बूत हैं, कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. स्थानीय कांग्रेस इकाइयां इन दलों से वर्षों से मुक़ाबला कर रही हैं. अब इनका एकजुट होना, भले ही किसी बड़े मक़सद के लिए, आसान नहीं होगा.
आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.
प्रेमचंद मानते थे कि भारत न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन है बल्कि एक आंतरिक उपनिवेश भी है जो यहां के विशाल श्रमिक समाज को ग़ुलाम बनाए हुए है. जहां वे पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात करते हैं, वही सामंती जकड़न, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता जैसे विचारों से भी उनका अनवरत संघर्ष चलता रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.