क्यों मध्य प्रदेश में कांग्रेस को हिंदुत्व का बुखार चढ़ गया है?

राष्ट्रीय स्तर पर एक तरफ कांग्रेस वर्तमान हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ने का दम भरती है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश में इसके वरिष्ठ नेता कमलनाथ हिंदुत्व के घोर सांप्रदायिक चेहरों की आरती उतारते और भरे मंच पर उन्हें सम्मानित करते नज़र आते हैं.

मनोहरलाल खट्टर सारे हरियाणवियों को सुरक्षा क्यों नहीं दे सकते?

देश की ग़ुलामी के दौर में विदेशी हुक्मरानों तक ने अपनी पुलिस से लोगों के जान-माल की रक्षा की अपेक्षा की थी, मगर अब आज़ादी के अमृतकाल में लोगों की चुनी हुई सरकार अपनी पुलिस के बूते सबको सुरक्षा देने में असमर्थ हो गई है.

डेटा संरक्षण क़ानून की ख़ामियों पर विचार करना ज़रूरी है

डिजिटल निजी डेटा सुरक्षा (डीपीडीपी) विधेयक का वह संस्करण जिसे कैबिनेट की मंज़ूरी मिली है, सार्वजनिक डोमेन में नहीं है. फिर भी यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि क़ानून में वो ख़ामियां न हों, जो पिछले मसौदे में थीं.

साहित्य और समाज के रिश्ते का सरलीकरण नहीं किया जा सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कई बार लगता है कि साहित्य और समाज, परिवर्तन और व्यक्ति के संबंध में भूमिकाओं को बहुत जल्दी सामान्यीकृत करने के वैचारिक उत्साह में उनकी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

‘इंडिया’ गठबंधन का अतिआत्मविश्वास से बचकर ज़मीनी सच्चाइयों से वाकिफ़ रहना ज़रूरी है

कई बार एकताओं व गठबंधनों से कुछ भी हासिल नहीं होता. दल मान लेते हैं कि गठबंधन कर लेने भर से बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन ज़मीनी स्तर पर समर्थकों के बीच बहुत-सी ग्रंथियां होती हैं. 'इंडिया' के घटक दलों के समर्थकों के बीच भी ऐसी ग्रंथियां कम नहीं हैं. 

विपक्षी दलों ने साथ आने का पहला क़दम ले लिया है, पर चुनौतियां अभी बाक़ी हैं

लगभग सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय पार्टियां मज़बूत हैं, कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. स्थानीय कांग्रेस इकाइयां इन दलों से वर्षों से मुक़ाबला कर रही हैं. अब इनका एकजुट होना, भले ही किसी बड़े मक़सद के लिए, आसान नहीं होगा.

प्रेमचंद के साहित्य में स्त्रियां: परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व

आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.

प्रेमचंद के लिए साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल थी

प्रेमचंद मानते थे कि भारत न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन है बल्कि एक आंतरिक उपनिवेश भी है जो यहां के विशाल श्रमिक समाज को ग़ुलाम बनाए हुए है. जहां वे पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात करते हैं, वही सामंती जकड़न, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता जैसे विचारों से भी उनका अनवरत संघर्ष चलता रहा है.

जिस विचार-विरोधी उपक्रम में कई तबके शामिल हैं, उसमें लेखक-कलाकार निश्चिंत नहीं बैठ सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.

मणिपुर की घटनाएं बार-बार गुजरात दंगों की याद ताज़ा करती क्यों दिख रही हैं

निरपराधों की हत्याएं, स्त्रियों के साथ खुली ज़्यादतियां, अपने ही मुल्क में शरणार्थी बनने को अभिशप्त लोग, क़ानून के रखवालों द्वारा अत्याचारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में ढिलाई के आरोप, हिंसा के धार्मिक या सांप्रदायिक होने के स्पष्ट पुट... हम घटनाओं के सिलसिले को दोहराते देख रहे हैं, बीच में बस एक लंबा अंतराल है.

त्रासदियों पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया दिखाती है कि मानवीयता उनकी प्राथमिकता नहीं है

हाल ही में मणिपुर में हुई हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं पर उनके बयान में किसी के दुख या पीड़ा को लेकर सहज मानवीय प्रतिक्रिया का अभाव नज़र आता है.

देश में जब भी हिंदुत्ववादी ताक़तवर हुए हैं, महिलाओं के हक़ों की लड़ाई कमज़ोर हुई है

हिंदुत्व के अनुकूलित सुधारक बाल गंगाधर तिलक वर्ण व जाति व्यवस्था को राष्ट्र निर्माण का आधार बताकर उसका बचाव तो किया ही करते थे, वैवाहिक व दांपत्य संबंधों में बालिग या नाबालिग पत्नियों के पूरी तरह अपने पतियों के अधीन रहने के हिमायती भी थे. वे महिलाओं की आधुनिक शिक्षा के विरोधी भी थे.

मणिपुर का कुकी वैसे ही भयभीत है जैसे नोआखली का हिंदू था, पर क्या देश के पास कोई गांधी है

भारत के इतिहास में नोआखली की हिंसा और महात्मा गांधी द्वारा वहां रहकर शांति का क़ायम किया जाना दोनों ही उल्लेखनीय हैं. अगर वास्तव में ही मणिपुर में शांति स्थापित करनी है, तो वहां किसी महात्मा गांधी को जाना होगा. 

रज़ा का मरणोत्तर कला-जीवन उनके भौतिक जीवन से कहीं बड़ा और लंबा होने जा रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा के देहावसान को सात बरस हो गए. इन सात बरसों में उनकी कला की समझ-पहचान और व्याप्ति उनके मातृदेश के अलावा संसार भर में बहुत बढ़ी है. 

समान नागरिक संहिता: गुलिस्तां में कभी भी फूल एकरंगी नहीं होते, कभी हो ही नहीं सकते

जिस सरकार को अरसे से धर्म के नाम पर भेदभावों को बढ़ाने की कोशिशों में मुब्तिला देख रहे हैं, वह उन भेदभावों को ख़त्म करने के नाम पर कोई संहिता लाए तो उसे लेकर संदेह गहराते ही हैं कि वह उसे कैसे लागू करेगी और उससे उसे कैसी समानता चाहिए होगी?

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