भारत आदिवासी पार्टी ने स्थापना के मात्र ढाई महीने बाद हुए राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में 35 निर्वाचन क्षेत्रों (27 राजस्थान और 8 मध्य प्रदेश) में चुनाव लड़कर 4 सीटों पर जीत हासिल की.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंसा को सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग क़ानूनी माध्यम स्वीकार किया जाने लगा है. समाज उसे और उसके फैलाव को लेकर, उसके साथ जुड़े झूठों और घृणा को लेकर विचलित नहीं है. पढ़े-लिखे लोग उसे अवसर मिलते ही, उचित ठहराने लगे हैं.
अपनी जनतांत्रिक छवि चमकाने के लिए ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ होने के दावों से शुरू हुई भारत सरकार की यात्रा फिलवक्त डेमोक्रेसी रेटिंग गढ़ने के मुक़ाम तक पहुंची है. अभी वह किन-किन मुकामों से गुजरेगी इसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा.
चुनाव के साफ़ सुथरा और निष्पक्ष होने में विपक्ष के अलावा जनता को दिलचस्पी होनी चाहिए. आशा की जाती है कि जब शासक दल निरंकुश होने लगे तो राज्य की बाक़ी संस्थाएं मिलकर जनतांत्रिक प्रक्रियाओं की हिफ़ाज़त करेंगी. लेकिन जान पड़ता है राज्य की सभी संस्थाओं ने भाजपा में अपना विलय कर दिया है.
जेएनयू के नौजवानों ने छात्रसंघ चुनाव के नतीजों में दिखा दिया है कि सत्ता प्रतिष्ठान और हिंदुत्व के आक्रमण के बावजूद वह वैचारिक मज़बूती के साथ खड़ा हुआ है.
सार्वजनिक हित और सत्ता में हमेशा तनाव रहता है. बल्कि कई बार सत्ता अपने हित को ही सार्वजनिक हित मानने के लिए बाध्य करती है. जनता को इस द्वंद्व के प्रति सजग रखना ज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों का काम है. उनका सार्वजनिक बोलना या लिखना उनके लिए नहीं जनता के हित के लिए ज़रूरी है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध साहित्य और जीवन संबंधी अपने विचार और स्थापनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में रसे-बसे रहकर ही व्यक्त और विकसित करते थे. ऐसे रोज़मर्रा के जीवन के कितने ही चित्र, प्रसंग और छवियां उनकी कविताओं और विचारों में गहरे अंकित हैं.
चुनावी बॉन्ड के ज़रिये राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों में सड़क, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी बड़ी कंपनियों का शामिल होना दिखाता है कि भले चंदे की राशि राजनीतिक दलों को मिल रही है, लेकिन इनकी क़ीमत आम आदिवासी और मेहनतकश वर्ग को चुकानी पड़ रही है, जिसके संसाधनों को राजनीतिक वर्ग ने चंदे के बदले इन कंपनियों के हाथों में कर दिया.
राजस्थान की शिक्षिका हेमलता बैरवा के निलंबन के बीच संविधान की बहसों की याद किया जाना चाहिए, जहां धार्मिक होने के बावजूद सदस्यों का बहुमत इस बात पर सहमत था कि स्कूलों को, जिनका मूल मक़सद बच्चों के दिमाग खोलना है, को किसी भी क़िस्म की धार्मिक शिक्षा के लिए खोला नहीं जाना चाहिए.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना यह रही है कि उसके आरंभ में तो राजनीतिक नेतृत्व में बुद्धि ज्ञान और संस्कृति-बोध था जो धीरे-धीरे छीजता चला गया है. हम आज की इस दुरवस्था में पहुंच हैं कि राजनीति से नीति का लोप ही हो गया है.
नैतिक राजनीति का एक काम ऐसी सामूहिकता का निर्माण है जो भय पर आधारित न हो. वह लोगों को शामिल करने के विचार पर टिकी हो, अलग और दूर करने के नहीं. अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीतिक भाषा अभी ठीक इसके विपरीत है.
क्या वाकई सड़कों पर सभी प्रकार के धार्मिक आयोजनों पर रोक लगा सकते हैं? तब तो बीस मिनट की नमाज़ से ज़्यादा हिंदुओं के सैकड़ों धार्मिक आयोजन प्रभावित होने लग जाएंगे, जो कई दिनों तक चलते हैं. बैन करने की हूक सड़कों के प्रबंधन बेहतर करने की नहीं है, एक समुदाय के प्रति कुंठा और ज़हर उगलने की ज़िद है.
भारतीय स्टेट बैंक का सारा कामकाज डिजिटल प्रणाली से होता है. किसी भी तरह का रिकॉर्ड या जानकारी हासिल करना हो तो केवल एक क्लिक से हो जाता है. पर बैंक पूरे देश के सामने झूठ बोल रहा है कि चुनावी बॉन्ड की जानकारी हासिल करने में काफी वक़्त लगेगा. यह झूठ किसके दबाव में बोला जा रहा है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘सांस्कृतिक मार्क्सवादी’ और ‘वोक पीपल’ (Woke People) को लेकर संघ सुप्रीमो की ललकार एक तरह से उत्पीड़ितों की दावेदारी और स्वतंत्र चिंतन के प्रति हिंदुत्व वर्चस्ववाद की बढ़ती बेचैनियों को ही बेपर्द करती है.