जवाहरलाल नेहरू: जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते…

जन्मदिन विशेष: जोश मलीहाबादी ने लिखा था कि नेहरू की सियासत मौजूदा सियासत के बिल्कुल बरअक्स थी, इसलिए कहा जाता था कि वे अच्छे सियासतदां नहीं थे. मैं इसकी तस्दीक करता हूं. इसलिए कि आज के अच्छे सियासतदां के लिए यह एक लाजिमी शर्त है कि उसूलों की खिदमत और इंसानियत के एतबार से वह नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हद तक बुरा आदमी हो.

सीवी रमन, जिन्होंने सिखाया कि ‘क्यों और कैसे’ को न भूलें, क्योंकि यही वैज्ञानिकता के आधार हैं

सीवी रमन की यादों को ताज़ा करने या उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करने की दिशा में इससे बेहतर कोई और क़दम नहीं हो सकता कि देश को उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दिशा में ले जाने के बहुविध जतन किए जाएं, जिसकी अपेक्षा हमारे संविधान में की गई है.

क्या इंदिरा गांधी को बस तानाशाह की छवि में सीमित कर देना सही है

इंदिरा गांधी को आम तौर पर उनके बड़े फैसलों, करिश्मों और कीर्तिमानों आदि की रोशनी में 'आयरन लेडी' या कि तानाशाह की छवि को मजबूत करने वाले आईने में ही देखा जाता है, जबकि उन्हें उनके दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे फैसलों के आईने में देखना भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है.

जब बापू ने अंग्रेज़ों को लिखा था खुला ख़त…

गांधी जयंती विशेष: महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों से शत्रुता नहीं, बल्कि न्याय और सम्मान पर आधारित मित्रता की अपील की थी. जलियांवाला बाग़ जैसे नरसंहार और दमन के बीच भी उन्होंने उन्हें खुला ख़त लिखकर उनसे आत्ममंथन और बदलाव का आह्वान किया था. हालांकि यह कारगर नहीं हुआ.

भगत सिंह: ‘मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से!’

जयंती विशेष: 28 सितंबर हो या शहादत दिवस (23 मार्च), इन चर्चाओं में इस बात पर हैरत व अफ़सोस जताने से परहेज़ संभव नहीं हो पाता कि देश का सत्तातंत्र भगत सिंह की शहादत का सिला उनके अरमानों से मुंह मोड़कर और उनके परिजनों से कृतघ्नता बरत कर देता आ रहा है.

‘हमें आज़ादी तो मिल गई है पर पता नहीं कि उसका करना क्या है’

हमारी हालत अब भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी क़ैद के बाद पिंजरे में से आज़ाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आज़ादी का करना क्या है. उसके पास पंख हैं पर ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है.

जब तक हिंदू सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी, अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव भी बना रहेगा: डॉ. आंबेडकर

भेदभाव का मूल हिंदुओं के हृदयों में बसे हुए उस भय में निहित है कि मुक्त समाज में अस्पृश्य अपनी निर्दिष्ट स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिए ख़तरा बन जाएंगे.

शहीद दिवस: भगत सिंह के अरमानों को मंज़िल तक पहुंचाने वाली राह कब की भूल चुके हम…

धर्मांध शक्तियों को न भगत सिंह के जीवन से कुछ सीखना गवारा है, न विचारों से और न शहादत से. आज की तारीख में इस सिलसिले में हम जो कुछ भी देख रहे हैं, यकीनन, वह उसी 'हम नहीं सुधरेंगे' का चरम पर पहुंच जाना है.

हमने महात्मा गांधी के स्वराज्य का क्या हाल कर डाला?

महात्मा गांधी मानते थे कि जब तक मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेहद अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्य व्यवस्था कायम नहीं हो सकती. उन्होंने स्वराज्य को लेकर यह सपना तक देखा कि दोनों (पूंजीपति और गरीब) ही अंत में हिस्सेदार बनें, क्योंकि दोष पूंजी में नहीं, उसके दुरुपयोग में है.

‘यह गांधी कौन था?’ ‘वही, जिसे गोडसे ने मारा था’

गांधी को लिखे पत्र में हरिशंकर परसाई कहते हैं, 'गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था. बताया जाएगा कि उस वीर ने गांधी को मार डाला था. तो आप गोडसे के बहाने याद किए जाएंगे. अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था. एक महान पुरुष के हाथों मरने का कितना फायदा मिलेगा आपको.'

सत्यमेव जयते हमारा मोटो है, मगर गणतंत्र दिवस की झांकियां झूठ बोलती हैं

'यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु उद्योगों की. दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं.' गणतंत्र दिवस पर पढ़िए हरिशंकर परसाई को.

हॉकी, कुश्ती समेत 9 खेल राष्ट्रमंडल खेलों से बाहर; पिछली बार इनमें से 6 में भारत को मिले थे 37 पदक

ग्लासगो में होने वाले 2026 के राष्ट्रमंडल खेलों से बैडमिंटन, क्रिकेट, हॉकी, स्क्वैश, टेबल टेनिस और कुश्ती को हटा दिया गया है. इससे पहले बर्मिंघम में हुए 2022 के खेलों से निशानेबाजी और तीरंदाजी को बाहर किया गया था. इन खेलों में भारत का दबदबा रहा है.

भगत सिंह: ‘प्रेम हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊंचा उठाता है…’

भगत सिंह ने अंतिम दिनों में अपने साथी शहीद सुखदेव को लिखे पत्र में जताया था कि प्रेम में अनुरक्ति न किसी महान उद्देश्य के लिए जान देने से रोकती है, न कायर बनाती है. इसके उलट वह जान देने की तमीज़ सिखाती है.

सार्वजनिक अस्पतालों के निजीकरण से स्वास्थ्य सेवाओं पर बुरा असर पड़ता है: लांसेट रिपोर्ट

लांसेट के अध्ययन में पाया गया है कि सार्वजनिक से निजी में बदले जाने के बाद अस्पतालों के मुनाफ़े में बढ़ोतरी होती है, मुख्य रूप से यह वृद्धि अस्पताल के कर्मचारियों की संख्या में कटौती करके तथा चुनिंदा तरीके से मरीज़ों को भर्ती करने से होती है.

जब नौ साल की उम्र में कोरेगांव गए आंबेडकर को जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा

प्रासंगिक: अपनी किताब ‘वेटिंग फॉर अ वीज़ा’ में भीमराव आंबेडकर ने 1901 में कोरेगांव यात्रा के दौरान हुए छुआछूत के कटु अनुभव पर विस्तार से चर्चा की है.

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