हमारी एकता हमारी बहुलता में है, किसी भाषिक या धार्मिक एकरूपता में नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भाषाओं की विविधता और उनमें रचना और विचार, ज्ञान और अनुभव की जो विपुलता और सक्रियता है उसे उजागर करें तो हर भारतीय को यह अभिमान सहज हो सकता है कि वह एक बहुभाषिक, बहुधार्मिक राष्ट्र का नागरिक है जिसके मुकाबले भाषाओं और बोलियों की संख्या कहीं और नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सिर्फ भाषा बदली है, विचार नहीं

बीते कुछ दिनों से आरएसएस नेताओं की भाषा बदली दिख रही है लेकिन बदलाव संघ के एजेंडा पर कभी रहा नहीं है. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि संघ ने ‘अराजनीतिक होने की राजनीति’ करते हुए अपने स्वयंसेवकों को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया है और कैसे वे लोकतंत्र व संविधान के गुणों व मूल्यों से खिलवाड़ कर रहे हैं.

हिंदू धर्म की कारा में क्यों रहें?

हिंदुओं को यह सोचने की ज़रूरत है कि आखिर क्यों हिंदू ही धर्म परिवर्तन को बाध्य होता है? क्यों उसमें रहना दलितों के लिए सचमुच एक अपमानजनक अनुभव है? क्यों हिंदू इसकी याद दिलाए जाने पर अपने भीतर झांककर देखने की जगह सवाल उठाने वाले का सिर फोड़ने को पत्थर उठा लेता है?

आरएसएस प्रमुख की भारत में जनसंख्या असंतुलन की बात केवल एक राजनीतिक प्रोपगैंडा है

1995 के बाद 2020 में सभी समुदायों में मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर में सबसे तेज़ गिरावट दर्ज हुई है. नतीजन उनकी जनसंख्या वृद्धि दर भी कम हुई है. एक राजनीतिक साज़िश के तहत मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की बात कहते हुए भय और अविश्वास पैदा करके हिंदुओं का ध्रुवीकरण किया जा रहा है.

मोहन भागवत की जनसंख्या असंतुलन की चिंता में समुदाय का नाम सामने न होकर भी मौजूद है

मोहन भागवत ने किसी समुदाय का नाम लिए बिना देश में समुदायों के बीच जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन पर चिंता जताई. संघ शुरू से इशारों में ही बात करता रहा है. इससे वह क़ानून से बचा रहता है. साथ ही संकेत भाषा के कारण बुद्धिजीवी भी उनके बचाव में कूद पड़ते हैं, जैसे अभी पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कर रहे हैं.

काशी विद्यापीठ का हालिया घटनाक्रम भारतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त गहरे संकट की चेतावनी है

काशी विद्यापीठ द्वारा एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गेस्ट लेक्चरर पर की गई कार्रवाई किसी एक संस्था के किसी एक शिक्षक के ख़िलाफ़ उठाया गया क़दम नहीं है बल्कि आज के भारत में हो रही घटनाओं की एक कड़ी है. यह आरएसएस की गिरफ़्त में बिना सचेत हुए लगातार बीमार होते जा रहे हिंदू समाज की दयनीयता का प्रमाण है.

75 साल पहले गांधी ने जिसे अनहोनी कहा था, वह आज घटित हो रही है

गांधी ने लिखा था कि कभी अगर देश की 'विशुद्ध संस्कृति' को हासिल करने का प्रयास हुआ तो उसके लिए इतिहास फिर से लिखना होगा. आज ऐसा हो रहा है. यह साबित करने के लिए कि यह देश सिर्फ़ हिंदुओं का है, हम अपना इतिहास मिटाकर नया ही इतिहास लिखने की कोशिश कर रहे हैं.

‘इकतारा’ हिंदी में बाल साहित्य बचाए रखने का एक सार्थक प्रयास है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बाल साहित्य का परिसर कौतूहल रहस्य, जिज्ञासा, सहज सुषमा, आश्चर्य, अप्रत्याशित आदि मनोभावों से समृद्ध होता है. हम एक तरह की अबोधता के अंचल में दाखिल होते हैं जो हमें अपने कई अपरीक्षित, पर गहरे धंसे पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है.

ईरान की औरतों का विद्रोह अपने तरीक़े से जीने के हक़ को कुचले जाने के ख़िलाफ़ रोष का इज़हार है

ईरान में अगर गश्ती दस्ते हिजाब जबरन पहना रहे हैं तो भारत में सरकारी गश्ती दस्ते जबरन हिजाब उतार रहे हैं. फ़र्क़ यह है कि ईरान में एक इस्लामी हुकूमत मुसलमानों को अपने हिसाब से पाबंद करना चाहती है और भारत में एक हिंदू हुकूमत मुसलमानों को अपने क़ायदों में क़ैद करना चाहती है.

हबीब तनवीर, जिनका जीवन पूरी तरह से रंगजीवी रहा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हबीब तनवीर का रंगसत्य लोग थे: लोग, जो साधारण और नामहीन थे, जो अभाव और विपन्नता में रहते थे लेकिन जिनमें अदम्य जिजीविषा, मटमैली पर सच्ची गरिमा और सतत संघर्षशीलता की दीप्ति थी.

फ़ासीवादियों की देशभक्ति नहीं, उनकी दूसरों से घृणा उन्हें परिभाषित करती है

आरएसएस को फ़ासीवादी संगठन कहने पर कुछ लोग नाराज़ हो उठते हैं. उनका तर्क है कि वह देशभक्त संगठन है. क्या देश में रहने वाली आबादियों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करते हुए, उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते हुए देशभक्ति की जा सकती है?

ज्ञानवापी: किसी एक मस्जिद को विवादित करने का अर्थ बहुसंख्यकवादी विस्तारवाद को शह देना है

ज्ञानवापी मामले में बनारस की अदालत ने अभी इतना ही कहा है कि हिंदू महिला याचिकाकर्ताओं की याचिका विचारणीय है. इस निर्णय को हिंदुओं की जीत कहकर मीडिया प्रचारित कर रहा है. इससे आगे क्या होगा, यह साफ़ है. वहीं, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मथुरा की धमकी दे रहे हैं.

श्रीकांत वर्मा: तुम जाओ अपने बहिश्त में, मैं जाता हूं अपने जहन्नुम में

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: श्रीकांत वर्मा ने कहा था कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां/हैजे से बस्तियां/वकील रक्तचाप से/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.' क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह उसकी शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.

‘कर्तव्य पथ’ के रास्ते सरकार ने ख़ुद को देशवासियों के प्रति कर्तव्य से आज़ाद कर लिया है

सरकार हमें बार-बार कह रही है कि देशवासियों ने अपने अधिकारों की दुहाई दे-देकर पिछले 75 साल बर्बाद कर दिए हैं. वक़्त आ गया है कि वे अब राज्य के प्रति अपने कर्तव्य को याद करें. कर्तव्य में बहुत आकर्षण है. गीता की याद दिलाई जा सकती है. कर्तव्य का नाम लेकर लोगों को शर्मिंदा किया जा सकता है.

राजपथ को ग़ुलामी का प्रतीक क्यों समझा गया?

नाम बदलकर बदलाव का भ्रम रचना दरअसल ऐसा करने वालों द्वारा यह स्वीकार लेना है कि उनके पास अपने काम से कोई बदलाव लाने का न बूता बचा है, न विवेक. अन्यथा अब तक वे इतना तो समझ ही गए होते कि ग़ुलामी के प्रतीकों की उनकी समझ कितनी नासमझी भरी है.

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