साहित्य की नागरिकता ऐसी विशाल नागरिकता से घिरी है, जिसे उसके होने का पता ही नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.

मोदी सरकार के विकास और वृद्धि दर के ऊंचे आंकड़ों में समाज कहां है?

सरकार के अर्थव्यवस्था व विकास के ढांचे में सामूहिक समाज तो है ही नहीं. वह उसके हिस्सों को अलग-अलग कर उठाती है और विकास के अपने खाकों में इस तरह से फिट करती है कि उसके अपने व कॉरपोरेट जगत के राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ सधते रहें.

स्त्री तेरी आज़ादी: दर्द की अंजुमन जो मिरा देश है

एक स्वतंत्र और ख़ुद को विकसित बताने वाले देश में स्त्रियों का सुरक्षित न महसूस कर पाना हमारे लोकतंत्र और समाज की साझी असफलता है, लेकिन अपराधी को समय से सज़ा न दे पाना उससे भी बड़े ख़ौफ़ और शर्म का सबब है.

लोकसभा चुनाव ने नई उम्मीद को जन्म दे दिया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया आदि में जो ज़हर फैल गया है वह रातोंरात ग़ायब नहीं हो जाएगा, न हो रहा है. हमारे समय का एक दुखद अंतर्विरोध यह है कि ये शक्तियां अब भी हावी और सक्रिय हैं, उन्हें समर्थन देने वाला पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग झांसों-वायदों की गिरफ़्त में है.

वक़्फ़ संशोधन विधेयक संविधान का उल्लंघन है

वक़्फ़ एक विशेष मुस्लिम क्षेत्र है क्योंकि यह सदियों से मुस्लिम संपत्तियों के दान से उपजा है, लेकिन मोदी सरकार इसे पचा नहीं पाई. वक़्फ़ संशोधन विधेयक के ज़रिये इस सरकार का मुस्लिम विरोधी चेहरा एक बार फिर सामने आया है.

स्वतंत्रता एक बार मिल गई स्थिति नहीं है; उसे लगातार समृद्ध करना और बचाना होता है

कभी कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता के अर्थ में बदलते परिवेश और समय के अनुसार कई और अर्थ जुड़ते रहे. अगर आज विचार करें तो लगेगा कि इस समय का अर्थ प्रमुख रूप से यह है कि हम झूठ-नफ़रत-हिंसा की मानसिकता और राजनीति की ग़ुलामी करने से मुक्त रहें.

दलित आरक्षण: वर्गीकरण का विरोध जातिगत हित साधने की कवायद है

कुछ मेहरबान तर्क दे रहे हैं कि वर्गीकरण से दलित एकता कमज़ोर होगी. दलितों में फूट पड़ जाएगी. इसका मतलब यह हुआ कि महादलित वाल्मीकि/मज़हबी, मुसहर, मादिगा जैसे दलित समुदाय एकता के नाम पर कभी यह सवाल न करें कि वे आगे की पंक्ति में क्यों नहीं हैं.

शेख़ हसीना ने जो चुनावी बूथ पर नहीं होने दिया, वह सड़क पर होकर रहा

शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ हुआ विद्रोह अपनी तार्किक परिणति पर तब तभी पहुंच सकता है जब वह छात्रों को सुनेगा: यह आंदोलन एक ऐसा समाज बनाने का आंदोलन है जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न होगा.

‘मैं यहां नौकरी करने नहीं आया’… योगी आदित्यनाथ किससे और क्या कहना क्या चाहते हैं?

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीते हफ्ते विधानसभा में कहते नज़र आए कि 'मैं यहां नौकरी करने नहीं आया हूं... मुझे इससे ज्यादा प्रतिष्ठा अपने मठ में मिल जाती है.' सवाल उठता है कि क्या उनकी निगाह में मुख्यमंत्री पद गोरक्षपीठाधीश्वर के पद से कम प्रतिष्ठित है?

कश्मीर के होंठ सिल दिए गए हैं और उसकी छाती पर भारतीय राज्य का बूट है

5 अगस्त, 2019 के बाद का कश्मीर भारत के लिए आईना है. उसके बाद भारत का तेज़ गति से कश्मीरीकरण हुआ है. नागरिकों के अधिकारों का अपहरण, राज्यपालों का उपद्रव, संघीय सरकार की मनमानी.

कश्मीर की तलाश में: पहली क़िस्त

कश्मीर पर हो रही बहस से कश्मीरवासी अनुपस्थित है. उसके बग़ैर उसकी भूमि की नियति निर्धारित हो रही है. इस विडंबना के सहारे आप झेलम के पानी में उतर सकते हैं- यह नदी दोनों समुदायों की गर्भनाल से बंधी स्मृतियों और कसमसाती डोर में बंधी पीड़ाओं को लिए बहती है.

लोकसभा चुनाव के बाद सुर्ख़ियों से नदारद हुए अयोध्या में अब क्या हो रहा है?

मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा लोकसभा चुनाव के बाद अयोध्या को अपनी ख़बरों व चर्चाओं से बाहर का रास्ता दिखा देने के बीच बीते दिनों अवध विश्वविद्यालय की कुलपति फेसबुक पर मुहर्रम की 'मुबारकबाद' देती नज़र आईं, तो शहर के नामचीन साकेत डिग्री कॉलेज के गेट पर सेना का टैंक स्थापित कर दिया गया.

इतिहास की बावरी स्त्रियां

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अरुंधति सुब्रमण्यम की किताब ‘वाइल्ड वीमेन’ के परिप्रेक्ष्य में यह जानना बहुत आश्वस्तिकर है कि भारत में पहले भी स्त्री बोलती रही है, आवेग, समझ, निर्भीकता और साहस से.

अरुणा रॉय का संस्मरण सिर्फ उनका नहीं, एक पूरे सामुदायिक आंदोलन का संस्मरण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अरुणा रॉय अथक स्वप्नदर्शी कर्मशील हैं. उन्होंने मौलिक नवाचार किया है पर वे जड़ों पर भी जमी रही हैं. उनके संस्मरण में ‘मैं’ बहुत सहजता से ‘हम’ में बदलता रहता है.

उत्तर प्रदेश: ‘बुलडोजर राज’ ने घरों को घर ही कहां रहने दिया है

योगी आदित्यनाथ सरकार ने कुकरैल नदी पुनर्जीवन परियोजना के तहत लखनऊ में ध्वस्तीकरण के लिए चिह्नित घरों पर बुलडोजर की कार्रवाई रोक दी है. ऐसा मानना है कि इस नरमी का एक सिरा लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद भाजपा की अंदरूनी राजनीति में जारी उस उठापटक तक भी जाता है, जिससे मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं.

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