कनाडा के कार्लटन विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने वालीं डॉ. नवशरण सिंह रोहतक विश्वविद्यालय, नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक्स रिसर्च और इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च काउंसिल में काम कर चुकी हैं. बीते माह प्रवर्तन निदेशालय ने उनसे लंबी पूछताछ की थी.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत की प्राचीन दृष्टि से इत्तेफ़ाक रखते हुए रज़ा मानते हैं कि मानवीय कर्तव्य ऋत को बनाए रखना है जो वे स्वयं अपनी कला के माध्यम से करने की कोशिश करते हैं. उनकी कला चिंतन, मनन और प्रार्थना है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 1948 में सैयद हैदर रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, वे यह कहकर नहीं गए कि भारत उनका वतन है और वे उसे नहीं छोड़ सकते. अब विडंबना यह है कि उनके कला-जीवन की सबसे बड़ी प्रदर्शनी पेरिस के कला संग्रहालय में हो रही है, भारत के किसी कला संस्थान में नहीं.
फ्रांस के पेरिस शहर में भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी आरंभ हो चुकी है. यह किसी भी भारतीय चित्रकार की अब तक की सबसे लंबे समय तक चलने वाली प्रदर्शनी है, जो 14 फरवरी से शुरू होकर 15 मई तक चलेगी.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा कहते थे कि चित्र कैसे बनाए जाएं यह कौशल उन्होंने फ्रांस से सीखा पर क्या चित्रित करें यह भारत से. वे दो संस्कृतियों के बीच संवाद और आवाजाही का बड़ा और सक्रिय माध्यम बने. उसी फ्रांस में उनकी अब तक की सबसे बड़ी प्रदर्शनी होना एक तरह से उनकी दोहरी उपस्थिति का एहतराम है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुछ लोग, जो एक जन्म को ही मानते हैं और पुनर्जन्म में यक़ीन नहीं कर पाते, उनमें से अधिकांश के लिए एक ही जीवन हो पाता है, अच्छा-बुरा, जैसा भी. पर कुछ बिरले होते हैं जो अपने विचार या सृजन से लंबा मरणोत्तर जीवन पाते हैं जो कई बार उनके भौतिक जीवन से कहीं अधिक लंबा होता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ध्रुपद के उत्कर्ष के समय इतने तरह के संगीत नहीं थे जितने आज ख़याल की व्याप्ति के वक़्त हैं. ख़याल के ख़ुद को बचाने के संघर्ष की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. जैसे आधुनिकता एक स्थायी क्रांति है और बाद के सभी परिवर्तन उसी में होते रहे हैं, वैसे ही ख़याल भी स्थायी क्रांति है.
वीडियो: बीते दिनों कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अभिनेता अमिताभ बच्चन ने नागरिक स्वतंत्रता और सेंसरशिप पर टिप्पणी की थी, जिसे मुख्यधारा के मीडिया में न के बराबर तवज्जो दी गई. इससे जुड़े व्यापक संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद से द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन की बातचीत.
कोलकाता में हुए एक फिल्म समारोह में अभिनेता अमिताभ बच्चन का सत्यजीत रे की 'गणशत्रु' ज़िक्र करते हुए लगाया गया अनुमान ठीक है कि आज जनता के लिए आवाज़ उठाने वाले रे की फिल्म के 'डॉक्टर गुप्ता' ही हैं, जो जनता को सावधान करना चाहते हैं, मगर सत्ता सफल हो जाती है कि जनता उन्हें ही अपना शत्रु मानकर उनकी हत्या को आमादा हो जाए.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता-संघर्ष का एक ऐसा उपक्रम है जो कभी समाप्त नहीं होता. सामान्य रूप से देखें, तो इस समय हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को कोई गंभीर ख़तरा नहीं है. ख़तरा बौद्धिक-सर्जनात्मक-वैचारिक और नागरिक स्वतंत्रता को है और हर दिन बढ़ता ही जा रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: श्रीकांत वर्मा ने कहा था कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां/हैजे से बस्तियां/वकील रक्तचाप से/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.' क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह उसकी शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो ख़ुद षड्यंत्र करता है वह यह मानकर चलता है कि जो उसके साथ नहीं है या उससे असहमत है वह भी षड्यंत्र कर रहा है.
विशेष: मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग पर लगे वित्तीय अनियमितताओं के आरोप देश में होने वाले बड़े घोटालों की तुलना में छोटे लग सकते हैं, लेकिन इसका असली नुकसान कला और संस्कृति को भुगतना पड़ रहा है.