उत्तराखंड के चमोली ज़िले के कई गांवों के लोगों ने क्षेत्र में सड़कों की कमी के कारण चिकित्सा सुविधाएं मिलने में देरी को लेकर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए आगामी लोकसभा चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया है. उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीटों के लिए 19 अप्रैल को मतदान होना है.
राजस्थान के जोधपुर शहर स्थित एमडीएम अस्पताल का मामला. कैंसर से पीड़ित मरीज़ अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर में वेंटिलेटर पर थे, जब बिजली कटौती से कथित तौर पर ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने के बाद उनकी मौत हो गई. मरीज़ के परिजनों ने अस्पताल प्रबंधन पर लापरवाही से मौत का आरोप लगाते हुए जमकर हंगामा किया.
उत्तर प्रदेश में भीषण गर्मी और लू के बावजूद राज्य सरकार तब जागी, जब बड़ी संख्या में लोगों की मौत मीडिया के ज़रिये सामने आई. सरकार ने लू के कारण कोई भी मौत होने की बात से इनकार किया है और साल 2017 में हुए गोरखपुर के ऑक्सीजन त्रासदी के बाद अपनाई गई ‘इनकार नीति’ पर चल रही है.
भारत के रजिस्ट्रार जनरल की रिपोर्ट के अनुसार साल 2020 में पंजीकृत कुल मौतों में से करीब 1.3 फ़ीसदी लोगों को एलोपैथी या अन्य चिकित्सा क्षेत्रों के योग्य पेशेवरों से चिकित्सा सुविधा मिली थी. मरने वालों में से 45 फ़ीसदी को उनकी मृत्यु के समय कोई चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाई थी. चिकित्सा सुविधा के अभाव में 2019 में मरने वालों की संख्या 35.5 प्रतिशत थी.
भारत ने डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रामाणिक आंकड़ों की उपलब्धता के बावजूद कोरोना वायरस महामारी से संबंधित अधिक मृत्यु दर अनुमानों को पेश करने के लिए गणितीय मॉडल के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि इस्तेमाल किए गए मॉडल और डेटा संग्रह की कार्यप्रणाली संदिग्ध है.
मामला उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले का है. एक वृद्ध व्यक्ति द्वारा अपनी बीमार पत्नी को ठेले पर लेकर अस्पताल पहुंचने संबंधी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं. मुख्य चिकित्सा अधिकारी के मुताबिक, महिला की उसी रात इलाज के दौरान मौत हो गई थी.
ऑक्सफैम इंडिया ने भारत में कोविड-19 टीकाकरण अभियान के साथ चुनौतियों पर अपने त्वरित सर्वेक्षण के परिणामों को जारी किया है, जिसमें दावा किया गया है कि कुल जवाब देने वालों में से 30 फ़ीसदी ने धर्म, जाति या बीमारी या स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर अस्पतालों में या स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की ओर से भेदभाव किए जाने की जानकारी दी है.
नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि ज़िला अस्पतालों को प्रति एक लाख आबादी पर कम से कम 22 बिस्तर की सिफ़ारिश की गई है. हालांकि 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के ज़िला अस्पतालों में बिस्तरों की औसत संख्या 22 से कम थी. इसमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि राज्य शामिल हैं. पुदुचेरी में सर्वाधिक औसतन 222 बिस्तर और बिहार में सबसे कम छह बिस्तर उपलब्ध हैं.
देश के ज़िला अस्पतालों की प्रदर्शन मूल्यांकन रिपोर्ट जारी करने के बाद नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल ने कहा कि सेहतमंद समाज के निर्माण में ऐसे अस्पतालों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो बड़ी आबादी की स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतों को पूरा करते हैं. हालांकि उनकी अहम भूमिका के बावजूद दुर्भाग्य से कुछ कमियां भी हैं.
एक मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्ट में सूरत के एक केंद्रीय कारागार में कई क़ैदियों को टीबी होने की जानकारी सामने आने के बाद एनएचआरसी के एक दल ने जेल का दौरा किया था. बताया गया था कि जेल में उचित चिकित्सा के अभाव में 21 साल के एक विचाराधीन क़ैदी की 15 जुलाई 2020 को टीबी से मौत हो गई थी. अप्रैल 2019 में जेल में आने के वक़्त यह व्यक्ति स्वस्थ था.
कोरोना महामारी की दूसरी लहर के प्रकोप से देश के गांव भी नहीं बच सके हैं. इस दौरान मीडिया में प्रकाशित ख़बरें बताती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 का प्रभाव सरकारी आंकड़ों से अलहदा है.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीते दिनों गोरखपुर के दो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को गोद लेने की घोषणा की थी. स्थापना के कई साल बाद भी इन केंद्रों में न समुचित चिकित्साकर्मी हैं, न ही अन्य सुविधाएं. विडंबना यह है कि दोनों अस्पतालों में एक्स-रे टेक्नीशियन हैं, पर एक्स-रे मशीन नदारद हैं.
कोरोना महामारी की घातक दूसरी लहर के दौरान जहां जनता तमाम संकटों से जूझ रही थी, वहीं योगी आदित्यनाथ की सरकार एक अलग वास्तविकता की तस्वीर पेश कर रही थी.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने एक बयान जारी कर आरोप लगाया कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोविड-19 की दूसरी लहर से निपटने के लिए उपयुक्त कदम नहीं उठाए. मंत्रालय की ढिलाई और अनुचित कदमों को लेकर वह बिल्कुल हैरान है. साथ ही संगठन ने कहा कि मंत्रालय ने पेशवरों के सुझावों को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया है.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से कहा गया है कि अगर संभव हो तो गुजरात सरकार को 14 दिनों का पूर्ण लॉकडाउन लगाना चाहिए. अगर राज्य सरकार इसके पक्ष में नहीं है तो उसे लोगों को उनके घरों तक सीमित करने के लिए पाबंदी लगाने के बारे में सोचना चाहिए. गुजरात हाईकोर्ट ने डॉक्टरों से कोविड-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए सुझाव मांगें थे.