हिट और फ्लॉप की लिस्ट से इतर इस साल कई ऐसी फिल्मों पर भी लोगों की नज़रें टिकीं, जो समाजिक मुद्दों और असल शख्सियतों की प्रेरणा से बनी फिल्में थीं. कुछ ऐसी ही फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं...
श्याम बेनेगल हर बार एक नए विषय के साथ सामने आते थे. 'जुनून' (1979) जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फ़िल्म के तुरंत बाद उन्होंने 'कलयुग' (1981) में महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक दुनिया में रिश्तों की पड़ताल की और फिर 'मंडी' (1983) में कोठे के जीवन का प्रामाणिक चित्रण किया.
श्याम बेनेगल उस पीढ़ी के सिनेकर्मी थे जिसने आज़ाद भारत के उभरते सपनों के बीच सांस ली. एक समतावादी, लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति का सपना, एक धर्मनिरपेक्ष-जातिविहीन मूल्य-संहिता का सपना, नेहरू की कविता और गांधी की करुणा का सपना. उनके निधन के साथ उस युग के एक सपने का भी अंत हो गया.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी में ऐसा आलोचनात्मक माहौल बन गया है कि भाषा को महत्व देना या कि उसकी केंद्रीय भूमिका की पहचान करना, उस पहचान को ब्योरों में जाकर सहेजना-समेटना अनावश्यक उद्यम मान लिया गया है.
वीडियो: आंखों देखी, दम लगा के हईशा और लाल सिंह चड्ढा जैसी फ़िल्मों के साथ-साथ पंचायत, मिर्ज़ापुर और ब्रीद: इनटू द शैडोज जैसी वेब-सीरीज़ में अभिनय कर चुके अभिनेता श्रीकांत वर्मा से उनके जीवन, रंगमंच, सिनेमा और ओटीटी पर उनके अनुभव और यात्रा के बारे में बातचीत.
95वें अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ मूल (ओरिजनल) गीत की श्रेणी में एसएस राजामौली की फिल्म 'आरआरआर' के गीत 'नाटू-नाटू' को चुना गया है, वहीं कार्तिकी गोंसाल्वेस द्वारा निर्देशित 'द एलीफ़ेंट व्हिसपरर्स' सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्म चुनी गई है.
स्मृति शेष: बीते दिनों इस दुनिया को अलविदा कहने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर फ़रीद काज़मी सिनेमा के ऐसे अध्येता थे, जिन्होंने समानांतर या कला फिल्मों की बजाय पॉपुलर सिनेमा को चुना और इसमें दिखने वाले वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श को रेखांकित किया.
अरुण बाली को धारावाहिक ‘स्वाभिमान’ और फिल्म ‘3 इडियट्स’ में निभाए उनके किरदार के लिए काफी सराहना मिली थी. वह ‘राजू बन गया जेंटलमैन’, ‘खलनायक’, ‘सत्या’, ‘हे राम’, ‘लगे रहो मुन्ना भाई’, ‘बर्फी’, ‘मनमर्ज़ियां’, ‘केदारनाथ’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’ और ‘लाल सिंह चड्ढा’ जैसी फिल्मों में भी नज़र आए थे.
सिंगापुर की इन्फोकॉम मीडिया डेवलपमेंट अथॉरिटी ने संस्कृति, समुदाय और युवा मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय के साथ एक संयुक्त वक्तव्य में कहा कि इस फिल्म को सिंगापुर के फिल्म वर्गीकरण दिशानिर्देशों के मानकों से परे पाया है.
लोग ये बहस कर सकते हैं कि फिल्म में दिखाई गई घटनाएं असल में हुई थीं और कुछ हद तक वे सही भी होंगे. लेकिन किसी भी घटना के बारे में पूरा सच, बिना कुछ भी घटाए, जोड़े और बिना कुछ भी बदले ही कहा जा सकता है. सच कहने के लिए न केवल संदर्भ चाहिए, बल्कि प्रसंग और परिस्थिति बताया जाना भी ज़रूरी है.
सिनेमाघरों में द कश्मीर फाइल्स देखने वालों के नारेबाज़ी और सांप्रदायिक जोश से भरे वीडियो तात्कालिक भावनाओं की अभिव्यक्ति लगते हैं, लेकिन ऐसे कई वीडियो की पड़ताल में कट्टर हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं और संगठनों की भूमिका स्पष्ट तौर पर सामने आती है.
विवेक रंजन अग्निहोत्री भाजपा के पसंदीदा फिल्मकार के रूप में उभर रहे हैं और उन्हें पार्टी का पूरा समर्थन मिल रहा है.
गंगूबाई फिल्म एक सिनेमेटिक अनुभव की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, पर इस फिल्म के योगदान को जिस चीज़ के लिए माना जाना चाहिए वह है- वेश्याओं के छुपे हुए संसार को अंधेरे गर्त से निकाल कर सतह पर लाना.
कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ हिंसा ऐसी त्रासदी है जिस पर बात करते समय सिर्फ उसी पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए. किसी त्रासदी को तुलनीय बनाना उसका अपमान है. 'कश्मीर फ़ाइल्स' के निर्माताओं को यह सवाल करना चाहिए कि क्या वास्तव में कश्मीरी पंडितों की पीड़ा ने उन्हें फिल्म बनाने को प्रेरित किया या उसकी आड़ में वे अपनी मुसलमान विरोधी हिंसा को ज़ाहिर करना चाहते थे?
कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर बदनुमा दाग़ है और उसे मिटाने के लिए तथ्यों के धार्मिक सांप्रदायिक नज़रिये वाले फिल्मी सरलीकरण की नहीं बल्कि व्यापक और सर्वसमावेशी नज़रिये की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से यह ज़रूरत अब तक नहीं पूरी हो पाई है और पंडितों को राजनीतिक लाभ के लिए ही भुनाया जाता रहा है.