कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जैसे अक्सर क्रांति को क्रांति की संतानें ही खा जाती हैं वैसे ही संविधान की संतानें, राजनीतिक दल, लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकारें संविधान को कुतर-काट रहे हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं.
इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी.
बीते दिनों सज़ायाफ़्ता गैंगस्टर मुख़्तार अंसारी ने यूपी की एक स्थानीय अदालत में अर्ज़ी देकर कहा कि मीडिया को उनके नाम के साथ 'बाहुबली' और 'डॉन' जैसे शब्द न इस्तेमाल करने के निर्देश दिए जाएं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि आम बोलचाल और क़ानून में यह शब्द कैसे पहुंचे?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है.
शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद को उर्दू भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार के लिए आवंटित बजट संस्थान की कोई जनरल बॉडी गठित न होने के चलते इस्तेमाल नहीं किया जा सका है. ऐसे में जानकार और भाषाविद सरकार की मंशा को लेकर संदेह जता रहे हैं.
संस्कृत भारती द्वारा आयोजित अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने अदालतों में संस्कृत इस्तेमाल करने की बात करते हुए कहा कि संस्कृत को आधिकारिक भाषा बनाने का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है.
पुस्तक समीक्षा: नीलाक्षी सिंह का ‘खेला’ आसानी से हाथ आने वाला कथानक नहीं है. इसमें कई पात्रों का भंवर जाल-सा है, तो कहीं लगता है कि समकालीन विमर्शों का लावा फूट पड़ा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध ने आज से लगभग छह दशक पहले जो भारतीय यथार्थ अपनी कविता में विन्यस्त किया था, वह अपने ब्यौरों तक में आज का यथार्थ लगता है.
‘आदिवासी सेंगेल अभियान’ ने सरना धर्म संहिता और जनगणना प्रपत्र में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कॉलम की मांग को लेकर कहा कि यदि केंद्र 20 नवंबर तक ऐसा न करने की वजह बताने में विफल रहा तो ओडिशा, बिहार, झारखंड, असम और पश्चिम बंगाल के पचास ज़िलों में आदिवासियों को 30 नवंबर से ‘चक्का जाम’ करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं. मुसलमान उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं?