अपने हालिया प्रकाशित निबंध संकलन, 'शताब्दी के झरोखे से', की भूमिका में रामचंद्र गुहा बतौर निबंधकार अपनी यात्रा को विस्तार से दर्ज करते हैं. वे लिखते हैं कि उनकी किताबें बौद्धिक चुनौतियों से जन्म लेती हैं, अखबारी कॉलम तात्कालिक घटनाओं से उद्वेलित होते हैं, जबकि निबंध विधा किसी गहरी अनुभूति से जन्म लेती है.
रामचंद्र गुहा के हालिया प्रकाशित निबंध संकलन, 'शताब्दी के झरोखे से', की भूमिका में आशुतोष भारद्वाज लिखते हैं कि वे किसी कथावाचक की दृष्टि से इतिहास लिखते हैं. उनके प्रिय शीर्षक को थोड़ा फेर कर कहें, वे ‘इतिहासकारों के बीच स्थित उपन्यासकार’ हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस क़दर लुच्चई-लफंगई-टुच्चई-दबंगई दृश्य पर छा गई हैं कि लगता है भद्रता और सिविल समाज जैसे ग़ायब या पूरी तरह से निष्क्रिय हो गए हैं.
अगर मुझे होती हुई या हो चुकी घटना के विवरण को लिखना हो, तो मैं गद्य का सहारा लेती हूं, लेकिन उस घटना से मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे मैंने कैसे देखा, यह ज़ाहिर करना हो, तो मैं कविता का सहारा लेती हूं. 'रचनाकार का समय' की इस क़िस्त में पढ़ें लवली गोस्वामी का आत्म-कथ्य.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जीने का देखने से बड़ा गहरा और अनिवार्य संबंध है. अगर दिखाई न दे तो जीवन, प्रकृति, घर-परिवार आदि का क्या अस्तित्व? बहुत सारी सचाई तो इसलिए सचाई है, हमारे लिए, कि हम उसे देख पाते हैं. पर यह भी सच है कि बहुत सारी सचाई हम अनदेखी करते हैं.
यह समय औसत के महिमामंडन का समय है. अधीरता को नई मूल्य-संहिता के केंद्र में लाकर नव-औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठानों ने गंभीर एवं दार्शनिक लेखन के प्रति अरुचि का प्रसार किया है. रचनाकार के लिए ज़रूरी है अपने को पूर्वाग्रहों, वैचारिक हदबंदियों, भौतिक लिप्साओं और मानसिक संकीर्णताओं से मुक्त कर औदात्य की सतत साधना करना. 'रचनाकार का समय' में पढ़िए आलोचक रोहिणी अग्रवाल को.
वीडियो: साहित्यिक डायरी लेखन साहित्य की वो विधा है, जिसके बारे में माना जाता है कि यहां लेखक उन बातों साझा करता है जिन्हें उन्होंने दुनिया से छिपाया था. लेखक-पत्रकार अमिताव कुमार ने कोविड महामारी के बाद से कई ऐसे जर्नल्स में अपने अनुभव दर्ज किए हैं. उनसे द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज की बातचीत.
रचनाकार को अक्सर यह मुगालता होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा. इस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं.
साठेक बरस पहले तक, नफ़रत, दंगे और हिंसा काफ़ी हद तक रोज़मर्रा की जिंदगी को महफ़ूज़ रहने देते थे. अब तो धार्मिक और वैचारिक भेदभाव, तमाम तबकों और धर्मों के बीच स्थायी नफ़रत और वैमनस्य जगा चुके हैं. महात्मा गांधी के प्रार्थना प्रवचनों से लेकर फेक ख़बरों और बढ़ते प्रदूषण के उदाहरण देते हुए वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग एक लम्बे दौर का बड़े आत्मीय स्वर में स्मरण करती हैं.
किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.
बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
इस सप्ताह से हम एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसके तहत रचनाकार समय के साथ अपने संवाद को दर्ज करते हैं. पहली क़िस्त में पढ़िए प्रकृति करगेती का आत्म-वक्तव्य: त्रिकाल जब एक संधि पर आकर ठहर जाता है.
वीडियो: इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हालिया किताब 'द कुकिंग ऑफ बुक्स' और उनके विलक्षण संपादक रुकुन आडवाणी के बारे में द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज के साथ उनका संवाद.