अडानी समूह के दबाव में हटाए गए ईपीडब्लू के संपादक प्रंजॉय गुहा ठाकुरता

ख़र्चीले मुक़दमे की धमकी से घबराकर ईपीडब्लू को चलाने वाले ट्रस्टियों ने अडानी पॉवर लिमिटेड की आलोचना करने वाले लेखों को हटाने का आदेश दिया था.

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देश के एक बड़े कॉरपोरेट घराने की तरफ से ख़र्चीले मुक़दमे की धमकी से घबराकर ईपीडब्लू को चलाने वाले ट्रस्टियों ने अडानी पॉवर लिमिटेड की आलोचना करने वाले लेखों को हटाने का आदेश दिया था.

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प्रंजॉय गुहा ठाकुरता (बाएं) ओर गौतम अडानी.

नई दिल्ली: इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्लू) के संपादक प्रंजॉय गुहा ठाकुरता को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा है.

कॉरपोरेट इंडिया द्वारा करोड़ों रुपये के महंगे मानहानि के मुकदमे का इस्तेमाल अपने ख़िलाफ़ की गई आलोचनात्मक रिपोर्टिंग से निपटने के लिए हथियार के तौर पर किए जाने की बढ़ रही प्रवृत्ति का शिकार होने वाले वे पहले बड़े संपादक बन गए हैं.

इस प्रतिष्ठित पत्रिका को चलाने वाले ट्रस्ट के निदेशकों द्वारा अडानी समूह से जुड़े लेखों को हटाने का आदेश के बाद ठाकुरता ने इस्तीफा देने का कदम उठाया.

पिछले महीने अडानी पॉवर लिमिटेड ने अपने वकीलों के जरिए ईपीडब्लू, लेख के चार लेखकों (जिनमे गुहा भी शामिल हैं) और इस पत्रिका के मालिक और इसे चलाने वाले समीक्षा ट्रस्ट को एक चिट्ठी भेजी थी.

वकील की इस चिट्ठी में दो लेखों-‘डिड द अडानी ग्रुप इवेड रूपीज 1000 करोड़ टैक्सेज’ (क्या अडानी समूह ने 1000 करोड़ रुपये के कर की चोरी की) (14 जनवरी, 2017) और ‘मोदी गवर्नमेंट्स रूपीज़ 500 करोड़ बोनांजा टू अडानी ग्रुप’ (मोदी सरकार द्वारा अडानी समूह को 500 करोड़ रुपये का फायदा) (24 जून, 2017) को ‘हटाने/डिलीट करने और बिना किसी शर्त के वापस लेने’ के लिए तुरंत कदम उठाने की मांग की गई थी.

वकीलों के मुताबिक ये दोनों लेख उनके मुवक्किल की मानहानि करनेवाले और उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाले हैं. चिट्ठी में कहा गया कि जब तक ऐसा नहीं किया जाता, ‘हमारे मुवक्किल सलाह के मुताबिक कदम उठाने के लिए मजबूर होंगे.’

मंगलवार को दिल्ली में हुई समीक्षा ट्रस्ट बोर्ड की बैठक में संपादकीय विभाग को दोनों लेखों को हटाने का आदेश दिया गया. (जिसके साथ ठाकुरता ने अडानी की चिट्ठी और ईपीडब्लू द्वारा उसके कानूनी जवाब की कॉपी भी पोस्ट की थी.)

ठाकुरता ने बैठक के तुरंत बाद अपना इस्तीफा दे दिया. उन्होंने द वायर  से कहा कि वे दिल्ली में अपने परिवार के साथ ज़्यादा समय बिताने के बारे में सोच रहे हैं. ईपीडब्लू का संपादकीय दफ्तर मुंबई में है.

द वायर  ने इस मामले में समीक्षा ट्रस्ट के अध्यक्ष दीपक नय्यर और बोर्ड के दूसरे सदस्यों, इतिहासकार रोमिला थापर, राजनीति वैज्ञानिक राजीव भार्गव और समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन इनमें से कोई भी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे.

यह समझा जा रहा है कि इस मामले पर ट्रस्ट की ओर से 20 जुलाई को बयान जारी किया जाएगा.

मूल रूप से ईपीडब्लू में प्रकाशित इन दोनों लेखों को द वायर ने उसी समय पुनर्प्रकाशित किया था. ये दोनों लेख यहां उपलब्ध रहेंगे:

Did the Adani Group Evade Rs 1,000 Crore in Taxes?
मोदी सरकार ने अडानी समूह को 500 करोड़ का फ़ायदा पहुंचाया

अडानी के वकीलों ने ठाकुरता को सूचित किया है कि वे द वायर को भी इन लेखों को हटाने की मांग करने के लिए लिखेंगे.

1949 में इकनॉमिक वीकली के नाम से शुरू, ईपीडब्लू को उसका मौजूदा नाम 1966 में मिला. यह भारत की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक है, जो अकादमिक विद्वता और राजनीतिक टिप्पणी, दोनों काम करती है.

एक बेहद प्रतिष्ठित बिजनेस जर्नलिस्ट और राजनीतिक टिप्पणीकार प्रंजॉय गुहा ठाकुरता ने जनवरी 2017 में सी. राममनोहर रेड्डी से इस पत्रिका का संपादन संभाला था, जिन्होंने एक दशक से ज़्यादा वक्त तक इस पत्रिका को चलाया.

आलोचना और खोजी पत्रकारिता पर रणनीतिक मुकदमेबाजी का डंडा

अडानी की चिट्ठी कॉरपोरेट इंडिया की उस रणनीति का उदाहरण है, जिसे मीडिया विश्लेषक और वकील ‘जन-भागीदारी के ख़िलाफ़ रणनीतिक मुकदमेबाजी’ (‘स्ट्रेटेजिक लॉसूट्स अगेंस्ट पब्लिक पार्टिसिपेशन’ या -स्लैप) का नाम देते हैं.

2015 के अपने एक संपादकीय में द लॉस एंजेलिस टाइम्स ने ताकतवर हितों के अतिक्रमण से अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने के लिए अमेरिकी सरकार से कैलिफोर्निया की तर्ज एक संघीय कानून बनाने की मांग करते हुए बेहद सारगर्भित तरीके से ‘स्लैप’ की व्याख्या की थी : ‘एक पैसे वाला कॉरपोरेशन, डेवलपर या सरकारी अधिकारी एक मुकदमा दायर करता है, जिसका असली मकसद आलोचना का गला घोंटना, भ्रष्टाचार उजागर करनेवालों ( व्हिसिल ब्लोवरों) को सजा देना या किसी वाणिज्यिक विवाद में जीत हासिल करना होता है.’

दोनों लेखों को हटाने के समीक्षा ट्रस्ट के फैसले में सबसे गौरतलब बात ये है कि अडानी ने उन्हें सिर्फ एक वकील की चिट्ठी ही भेजी थी और चिट्ठी में दी गई 48 घंटे की मियाद के बीत जाने के बावजूद सचमुच में कोई मुकदमा दायर नहीं किया था.

बड़े निगम खर्चीले और लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों की धमकी देने वाली कानूनी चिट्ठियों का इस्तेमाल संपादकों, मालिकों, पत्रकारों और लेखकों को डराने और गड़बड़ियों-घोटालों को सामने लाने से रोकने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा कर रहे हैं.

भारत में पैसे वाली कंपनियां सिर्फ सिविल मानहानि का मुकदमा दायर करने और करोड़ों रुपये के हर्जाने की मांग करने का ही रास्ता नहीं अपना सकतीं, वे अपराधिक मानहानि के कानून का इस्तेमाल करने के लिए भी आज़ादी हैं, जिसके तहत किसी आरोपी व्यक्ति को जेल भी भेजा जा सकता है.

पिछले साल आपराधिक मानहानि को असंवैधानिक घोषित करने की एक याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. इसके साथ ही भारत दुनिया के उन कुछ गिने-चुने लोकतंत्रों में शामिल हो गया, जो इस दमनकारी कानून को अपनी संहिताओं में जगह दिए हुए है.

निशाने पर द वायर

नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के नेता और सांसद राजीव चंद्रशेखर ने मार्च, 2017 में द वायर  के ख़िलाफ़ 10-10 करोड़ रुपये के दो मानहानि के मुकदमे दायर किये थे.

ये मुक़दमे उनके नए मीडिया वेंचर रिपब्लिक टीवी और रक्षा मामलों की संसद की स्टैंडिंग कमेटी में उनकी मौजूदगी और सैन्य क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों में उनके स्वामित्व से हितों के संभावित टकराव की स्थिति को लेकर द वायर  में प्रकाशित लेखों को लेकर दायर किये गए.

असामान्य तरीके से चंद्रशेखरन ने बेंगलुरु की एक स्थानीय अदालत से इन दो लेखों को हटाने के लिए एकतरफा आदेश हासिल कर लिया, जबकि इस मामले में द वायर  का पक्ष सुना भी नहीं गया.

चंद्रशेखर के मुकदमे को फिलहाल फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म द्वारा चुनौती दी जा रही है, जो द वायर  का प्रकाशन करने वाली एक गैर-लाभकारी कंपनी है.

द वायर  के संपादकों को आइजोल, मिजोरम के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की तरफ से भी समन भेजा गया है. यह समन ई-कूल गेमिंग सॉल्यूशंस के द्वारा आपराधिक मानहानि का मुकदमा दर्ज कराए जाने के बाद भेजा गया है.

यह कंपनी ज़ी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा से जुड़ी है. मानहानि का यह मुकदमा द वायर  में सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित एक लेख के कारण दायर किया गया है, जिसमें उत्तर पूर्वी राज्य में लॉटरी व्यवसाय में शामिल उनकी एक कंपनी की आलोचना की गई थी.