ईरान में अगर गश्ती दस्ते हिजाब जबरन पहना रहे हैं तो भारत में सरकारी गश्ती दस्ते जबरन हिजाब उतार रहे हैं. फ़र्क़ यह है कि ईरान में एक इस्लामी हुकूमत मुसलमानों को अपने हिसाब से पाबंद करना चाहती है और भारत में एक हिंदू हुकूमत मुसलमानों को अपने क़ायदों में क़ैद करना चाहती है.
आरएसएस को फ़ासीवादी संगठन कहने पर कुछ लोग नाराज़ हो उठते हैं. उनका तर्क है कि वह देशभक्त संगठन है. क्या देश में रहने वाली आबादियों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करते हुए, उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते हुए देशभक्ति की जा सकती है?
ज्ञानवापी मामले में बनारस की अदालत ने अभी इतना ही कहा है कि हिंदू महिला याचिकाकर्ताओं की याचिका विचारणीय है. इस निर्णय को हिंदुओं की जीत कहकर मीडिया प्रचारित कर रहा है. इससे आगे क्या होगा, यह साफ़ है. वहीं, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मथुरा की धमकी दे रहे हैं.
सरकार हमें बार-बार कह रही है कि देशवासियों ने अपने अधिकारों की दुहाई दे-देकर पिछले 75 साल बर्बाद कर दिए हैं. वक़्त आ गया है कि वे अब राज्य के प्रति अपने कर्तव्य को याद करें. कर्तव्य में बहुत आकर्षण है. गीता की याद दिलाई जा सकती है. कर्तव्य का नाम लेकर लोगों को शर्मिंदा किया जा सकता है.
जगह-जगह क़ब्रिस्तान, ईदगाह की ज़मीन पर कभी पीपल लगा कर, कभी कोई मूर्ति रखकर भजन आरती शुरू करके क़ब्ज़ा करने की तरकीबें जमाने से इस्तेमाल की जाती रही हैं. अब सरकारें भी इसमें जुट गई हैं. मज़ा यह है कि अगर मुसलमान इसका विरोध करें तो उन्हें असहिष्णु कहा जाता है.
सावरकर ने अपनी किताब '6 गौरवशाली अध्याय' में बलात्कार को राजनीतिक हथियार के तौर पर जायज़ ठहराया था. आज़ाद होने के बाद एक अपराधी ने कहा भी कि उन्हें उनकी राजनीतिक विचारधारा के कारण दंडित किया गया. वे शायद यह कहना चाह रहे हों कि उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया था, मात्र सावरकर की राजनीतिक विचारधारा लागू की थी.
सदियों से एक दूसरे के पड़ोस में रहने के बावजूद हिंदू-मुसलमान एक दूसरे के धार्मिक सिद्धांतों से अपरिचित रहे हैं. प्रेमचंद ने अपने एक नाटक की भूमिका में लिखा भी है कि 'कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं. हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का एक कारण यह है कि हम हिंदुओं को मुस्लिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं.'
अक्सर गिरफ़्तारी हो या ज़मानत, पुलिस और अदालत सत्ता से सहमति रखने वालों के मामले में 'बेल नियम है, जेल अपवाद' का सिद्धांत का हवाला देते दिखते हैं पर मुसलमानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं या पत्रकारों का नाम आते ही इस नियम को उलट दिया जाता है.
किसी देश की आबादी का विविधतापूर्ण होना काफ़ी नहीं है. उसकी सभ्यता की पहचान यह है कि उसके प्रतिनिधियों में भी समानुपातिक रूप से वह विविधता है या नहीं. कोई देश सिर्फ़ दूसरी आबादियों को मताधिकार देता है या उन आबादियों को देश के नेतृत्व का अधिकार देने की क्षमता और साहस भी रखता है? इससे इस देश के आत्मविश्वास का पता चलता है.
कुछ साल पहले दिल्ली में कांवड़िए तिरंगा लेकर चलने लगे. वह त्रिलोक के स्वामी शिव का राष्ट्रवादीकरण था. तब से अब तक काफ़ी तरक्की हो गई है. यह शिवभक्तों की ही नहीं, उनके आराध्य की भी राष्ट्रवाद से हिंदुत्व तक की यात्रा है.
कहा जाता है कि मनुष्य अपनी छवि में अपने देवताओं को गढ़ता है. अज्ञेय ने लिखा है कि अगर आदमी की शक्ल घोड़े की होती तो उसके देवता भी अश्वमुख होते. इसलिए यदि वह शाकाहारी है तो उसके आराध्य को भी शाकाहारी होना होगा और दूषित आदतें छोड़नी होंगी.
उदयपुर की हत्या की वीभत्सता, नृशंसता को हम इतना भी अजनबी न मानें. यह हमारे समाज का स्वभाव है. पर क्या इस हत्या पर हमारा ध्यान इसलिए टिका हुआ है कि मारा जाने वाला कौन है और उसे मारा किसने है?
उदयपुर में हुई नृशंसता के बावजूद इस प्रचार को क़बूल नहीं किया जा सकता कि हिंदू ख़तरे में हैं. इस हत्या के बहाने जो लोग मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार कर रहे हैं, वे हत्या और हिंसा के पैरोकार हैं. यह समझना होगा कि एक सुनियोजित षड्यंत्र चलाया जा रहा है कि किसी घटना पर हिंदू, मुसलमान एक साथ एक स्वर में न बोल पाएं.
भाजपा की फूहड़, हिंसक, बेहिस विभाजनकारी शासन नीति से अलग सभ्य, शालीन, ज़िम्मेदार शासन नीति और आचरण के लिए उद्धव ठाकरे की सरकार को याद किया जाएगा. कम से कम इस प्रयास के लिए कि एक अतीत के बावजूद सभ्यता का प्रयास किया जा सकता है.
वीडियो: अग्निपथ से लेकर सीएए, कृषि क़ानून और नोटबंदी के कारण देश में विरोध की लहर को लेकर नरेंद्र मोदी के शासन के बारे में द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद की बातचीत.