नवाबों का शहर फ़ैज़ाबाद, अब उस अयोध्या नगर निगम का अनाम-सा हिस्सा है, जिसके ज़्यादातर वॉर्डों के पुराने नाम भी नहीं रहने दिए गए हैं. नवाबों के काल की उसकी दूसरी कई निशानियां भी सरकारी नामबदल अभियान की शिकार हो गई हैं. हालांकि अब भी ग़ुलामी के वक़्त के तमाम नाम नज़र आते हैं, जो सरकार को नज़र नहीं आते.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है. सामग्री की विविधता, उसका विस्मयकारी उपयोग चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है.
क्या भाजपा सरकार 'योग्य उम्मीदवार' न मिलने का बहाना बनाकर रफ़्ता-रफ़्ता इस संविधानप्रदत्त अधिकार को ख़ारिज करने की योजना बना रही है?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पौराणिक कल्पना में रसातल सबसे नीचे है पर कितना नीचे है इसका पता नहीं. देश की राजनीति में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदलता रहता है कि लगता है कि वह नीचता के और तल पर नीचे उतर गया. रसातल अभी इतना दूर नहीं है.
राम राज्य अपने आप नहीं आएगा, इसके लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक प्रयास करने होंगे. सभी के लिए न्याय चाहिए होगा. लिंग, जाति, समुदायों के बीच समता लानी होगी. सभी के लिए उचित कमाई वाले रोज़गार, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं और माहौल चाहिए होगा. लेकिन सिर्फ राम का आह्वान करने से ये नहीं होगा.
राम मंदिर आयोजन की चकाचौंध में ग्राहम स्टेंस की बर्बर हत्या और उसके निहितार्थों को याद करना भी मुनासिब नहीं समझा गया. जबकि इस बर्बर हत्याकांड में वह तमाम संकेत मिलते हैं, जिन्हें 21वीं सदी की बहुसंख्यकवादी राजनीति में भरपूर प्रयोग में लाया गया.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिसे कोई रचना पढ़ते हुए कोई और रचना, अपना कोई अनुभव, कोई भूली-बिसरी याद न आए वह कम पढ़ रहा है. पाठ किसी शून्य में नहीं होता और न ही शून्य में ले जाता है.
कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष बताता है कि उनकी और भाजपा की राजनीति में ज़मीन-आसमान का अंतर है. मोदी सरकार का कोई भी नेता कर्पूरी ठाकुर की नैतिकता और ईमानदारी को अपनी जीवन में जगह नहीं देता है. मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न ज़रूर दिया है मगर इसका मक़सद केवल चुनावी हिसाब-किताब है.
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा करोड़ों साधारण आस्थावान हिंदुओं के लिए उनके आराध्य का भव्य मंदिर बनने का विशेष पर्व था. उनमें से अधिकांश के मन में कोई कट्टरता नहीं रही होगी. लेकिन इसके आयोजकों और प्रायोजकों ने इसके राजनीतिक निहितार्थ के बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है.
क्या हमारे बच्चे ऐसे भारत में बड़े होंगे जहां धर्म हमारी सभी पहचानों, बातचीत, जीवन के नियमों को समाहित कर लेता है- दूसरों को कम मानवीय, दूसरे दर्जे के का बना देता है?
राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण हिंदुत्व की राजनीति करने वाले व्यक्ति का संबोधन था. वो, जिसने धर्म की भावुकता और राजसत्ता की बेईमानी से एक ऐसा मिश्रण किया है जिसके ज़रिये वह आम आस्थावान जनता को छल सके.
क्या हुआ जब राम स्वप्न में आए?
तमिल फिल्म अन्नपूर्णी, जिसे नेटफ्लिक्स ने हटा दिया है, को लेकर उपजा विवाद हुआ ही नहीं होता, अगर फिल्म के दृश्य से आहत होने वाले कथित धार्मिकों ने वाल्मीकि रामायण पढ़ ली होती.
यह विडंबना ही है कि मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम के नाम पर संविधान की मर्यादा का हनन हो रहा है और हिंदू इसमें उल्लास, उत्साह एवं उमंग से भाग ले रहे हैं तथा गर्व का अनुभव भी कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में आगमन की तैयारियां भी रामलला के स्वागत की तैयारियों से कमतर नहीं हैं. स्ट्रीट लाइट्स पर मोदी के साथ भगवान राम के कट-आउट्स लगे हुए हैं, जिनकी ऊंचाई पीएम के कट-आउट्स से भी कम है. यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान राम आएंगे या प्रधानमंत्री मोदी को आना है?