युद्ध, नरसंहार और बर्बरता पर लेखक व अन्य सृजनधर्मी चुप या निष्पक्ष नहीं रह सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.

इस दीपावली पर मणिपुर हिंसा में मारे गए लोगों का भी स्मरण करें

आप अपने घर-परिवार में दीपावली मनाते समय मणिपुर में जारी हिंसा में मारे गए लोगों को याद करें कि आज उनके यहां यह त्योहार कैसे मन रहा होगा? क्या शेष भारत को इस उत्सव मनाते समय नहीं सोचना चाहिए कि उसके अपने ही बंधु-बांधव किस स्थिति में हैं. हमारा कर्तव्य और धर्म बनता है कि उनकी पीड़ा को महसूस करें.

संविधान का ढांचा तो औपचारिक रूप से बरक़रार है, पर उसकी आत्मा का हनन रोज़ हो रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जैसे अक्सर क्रांति को क्रांति की संतानें ही खा जाती हैं वैसे ही संविधान की संतानें, राजनीतिक दल, लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकारें संविधान को कुतर-काट रहे हैं.

पिकासो और रोथको के कला संसार में विचरण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिकासो की ऊर्जा और कल्पनाशीलता अथक और अपरंपार थी. फिर पिकासो से रोथको तक जाना बिल्कुल भिन्न कलासंसार में जाना है. उनके यहां कला गहन विचार, सतत चिंतन और बहुत ठहराव से उपजती है. वह कुछ गहरा और अप्रत्याशित देखती-दिखाती है पर ख़ुद को कुछ कहने से रोकती है.

अतीत में होना और व्यतीत न होना

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य और कलाओं में, तत्वचिंतन और सौंदर्यदर्शन में, भाषा-विचार आदि अनेक क्षेत्रों में ‘अगले वक़्तों के लोग’ जो कर गए हैं उस तक हमारा पहुंचना असंभव है. हमने शायद उस अपार संपदा में क्षमता भर कुछ ज़रूर जोड़ा है, फिर भी उनकी ऊंचाइयों को छू पाना हमारे बस की बात नहीं रही है.

पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सत्ता को ठोस मुद्दों, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम ही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें पत्रकारों का कृतज्ञ होना चाहिए कि वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.

गाज़ा के साथ इज़रायल की समस्या का सैन्य समाधान नहीं है, न ही इससे बदले की कार्रवाई को रोक सकते हैं

गाज़ा से होने वाले फिलीस्तीनी हमलों का इज़रायली सरकारों ने लगातार जो एकमात्र समाधान ढूंढा है, वो नाकाफ़ी है- कि अगर वो ज़मीन के रास्ते आए, तो दीवार बना देंगे; अगर रॉकेट दागे, तो इंटरसेप्टर बना लेंगे; अगर हमारे कुछ लोगों को मारा गया, तो उनके कइयों को मार डालेंगे. ऐसे ये सिलसिला लगातार चलता रहेगा.

न्यूज़क्लिक पर हमला: क्या कहता है ‘राजदंड’ का यह निर्मम प्रहार?

देखते ही देखते संविधान व क़ानून दोनों का अनुपालन कराने की शक्तियां ऐसी राजनीति के हाथ में चली गई हैं, जिसका ख़ुद लोकतंत्र में विश्वास बहुत संदिग्ध है और जो निर्मम और अन्यायी होकर उसे अपने कुटिल मंसूबों और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल कर रही है.

शाहरुख़ ख़ान की ‘जवान’ भारत और हिंदी सिनेमा के बारे में क्या कहती है?

शाहरुख़ ख़ान भले ही कहें कि उनकी दिलचस्पी सिर्फ 'एंटरटेन' करने में है, पर उनकी हालिया फिल्मों से पता चलता है कि मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें किसी न किसी क़िस्म के संदेश देने में भी दिलचस्पी है.

भारत को गांधी-मुक्त करने का कोई भी प्रयत्न विफल होने के लिए अभिशप्त है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.

‘न्यूज़क्लिक’ को जनता को बाख़बर रखने के साथ ख़बरदार करने की सज़ा मिल रही है

सरकार के जिस कदम से देश का नुक़सान हो, उसकी आलोचना ही देशहित है. 'न्यूज़क्लिक’ की सारी रिपोर्टिंग सरकार के दावों की पड़ताल है लेकिन यही तो पत्रकारिता है. अगर सरकार के पक्ष में लिखते, बोलते रहें तो यह उसका प्रचार है. इसमें पत्रकारिता कहां है?

मनोज झा के भाषण को लेकर विवाद की जडे़ं सिर्फ वहीं नहीं, जहां बताई जा रही हैं 

सामाजिक न्याय के लिए लड़ने का दावा करने वाले हिंदुत्ववादी शक्तियों से किसी सुविचारित दीर्घकालिक रणनीति के बजाय चुनावी समीकरणों के सहारे निपटते रहे. इसने उन्हें सत्ता दिलाई तो भी सामाजिक न्यायोन्मुख नीतियां लागू व कार्यक्रम चलाकर उसकी अपील का विस्तार नहीं किया. 

बाहरी भाषा-व्यवहार और संसदीय भाषा-व्यवहार के बीच भद्रता की दीवार दरक रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं.

मनोज झा के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया ने दिखाया कि ‘उच्च जातियां’ अपना वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहतीं

मनोज झा के एक वक्तव्य पर जिस प्रकार की हिंसक प्रतिक्रिया हुई है, उससे वर्चस्वशाली समुदाय के हिंसक स्वभाव को समझा जा सकता है.

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