अब धर्म, सत्ता, कॉरपोरेट और मीडिया के चार पाटों के बीच पिस रही है अयोध्या

'मुख्यधारा' के मीडिया को अयोध्या से जुड़ी ख़बर तब ही महत्वपूर्ण लगती है, जब किसी तरह की सरकारी दर्पोक्ति या सनसनीखेज़ बयान उससे जुड़ा हो. यह पुलिस उत्पीड़नों या अपराधियों के खेलों की ही अनदेखी नहीं कर रहा, बल्कि उसे हज़ारों घरों, दुकानों, पेड़ों आदि की बलि देकर ‘भव्य’ बनाई जा रही अयोध्या की यह ख़बर देना भी गवारा नहीं कि गरीबों का यह तीर्थ अब जल्दी ही उनकी पहुंच से बाहर होने वाला है.

‘मन की बात’ उसी प्रकार की आत्मरति है जैसी स्टालिन या हिटलर को थी

बताया जाता है कि सोवियत यूनियन में आप स्टालिन की आवाज़ से बच नहीं सकते थे. सड़कों पर लाउडस्पीकरों से स्टालिन की आवाज़ आपका पीछा करती रहती थी. हिटलर ने आत्मप्रचार के लिए रेडियो का कैसा इस्तेमाल किया, यह जानी हुई बात है. भारत भी अब हिटलर और स्टालिन के रास्ते चल रहा है.

न्यू इंडिया में सामाजिक दरारें चौड़ी होती जा रही हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारतीय समाज में कई भीषण और गहरी दरारें पड़ चुकी हैं- जो पहले से थीं उन्हें और चौड़ा किया जा रहा है. सत्तारूढ़ राजनीति खुल्लमखुल्ला अभद्रता, गाली-गलौज, कीचड़फेंकू वृत्ति आदि से राजनीति, व्यापक ज़रूरी मुद्दों पर बहस को लगभग असंभव बना रही है.

दिल्ली विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में एक प्रकार का संहार अभियान चल रहा है

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है; कि स्थायी नियुक्ति का आधार योग्यता नहीं, भाग्य और सही जगह पहुंच है.

अब हिंदुओं की फ़िक्र करने का वक़्त है

सामूहिक हिंसा या घृणा के अलावा बिना किसी संगठन के भी ढेरों हिंदुओं में दूसरों के प्रति घृणा ज़ाहिर करने का लोभ अश्लीलता के स्तर तक पहुंच गया है. इन हिंदुओं के बीच ऐसे ‘कुशल’ वक्ताओं की संख्या बढ़ रही है जो खुलेआम हिंसा का प्रचार करते हैं. वक्ताओं के साथ उनके श्रोताओं की संख्या भी बढ़ती जा रही है.

प्रेम की तरह कविता भी अपना समय रचती है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.

अतीक़-अशरफ़ हत्या: सवाल क़ानून के राज का है

कुछ गैंगस्टरों की हत्या होगी और कुछ अन्य को आज संरक्षण मिलेगा, कल ज़रूरत पड़ने पर उनकी भी हत्या होगी. आम नागरिक को टीवी पर जय श्री राम के नारों के साथ हत्याओं का लाइव टेलीकास्ट दिखाया जाएगा ताकि वो 56 इंच छाती की तारीफ़ करे.

गोदी मीडिया की चुप्पी के बीच मीम्स, चुटकुले अडानी और पुलवामा जैसे मुद्दे जनता तक पहुंचा रहे हैं

'मुख्यधारा' का मीडिया जहां चुनिंदा मसलों पर चुप्पी का रास्ता अपना रहे हैं, वहीं सोशल मीडिया यह काम मुखरता से कर रहा है. जिन जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दों को बड़े मीडिया संस्थान नज़रअंदाज़ कर देते हैं, वो अब मीम्स, वीडियो क्लिप्स की शक्ल में सरल और चुटीले स्वरूप में व्यापक दर्शकों तक पहुंच रहे हैं.

अतीक़ अहमद हत्या: चिंता राज्य के अपराधी बनने की है, जिसे हमारी हिफ़ाज़त करनी है

अपराधियों के समर्थक अपराधी ही हो सकते हैं और वे हैं. हमारी चिंता है उस राज्य द्वारा समाज के एक हिस्से को हत्या का साझेदार बना देने की साज़िश से. हमारी चिंता क़ानून के राज के मायने के लोगों के दिमाग़ से ग़ायब हो जाने की है.

भारतीय मानस में पश्चिम के समावेशन का उपनिवेशन में बदलना आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी ख़त्म नहीं हुआ

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम स्वतंत्रता के पहले सर्जनात्मक और बौद्धिक रूप से अधिक स्वतंत्र थे और स्वतंत्रता के बाद पश्चिम के अधिक ग़ुलाम होते गए हैं.

बाबासाहेब की मूर्तियों से मोह और विचारों से द्रोह का सिलसिला कहां ले जाएगा?

आज बाबासाहेब की शिक्षा, संदेश व विचारों के बजाय मूर्तियां अहम हो चली हैं. ये मूर्तियां चीख सकतीं तो उन पर तो ज़रूर चीखतीं, जो बाबासाहेब की जयंती व निर्वाण दिवस पर साल में दो दिन उन पर फूलमाला अर्पित कर उनकी विरासत के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं.

‘अयोध्या को अयोध्या ही न रहने दिया जाए तो क्या राम यहां रह पाएंगे?’

बीते दिनों अयोध्या के विश्वस्तरीय विकास के सरकारी दावे को ‘थका और बासी तर्क’ क़रार देते हुए शहर के प्रतिष्ठित आध्यात्मिक विचारक आचार्य मिथिलेशनन्दिनी शरण ने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, अयोध्या के भाजपा सांसद, विधायक आदि को टैग करते हुए लिखा कि बात यहां की सड़कें चौड़ी होने और निम्न-मध्य आय वर्ग के विस्थापित होने की आर्थिक-सामाजिक चिंताओं भर की नहीं है.

कुमार गंधर्व: उनका संगीत बहुत सारी अंतर्ध्वनियों से बुना गया संगीत था…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुमार गंधर्व के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. उनका सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

‘अम्मी-अब्बू’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति

उत्तराखंड में अंग्रेज़ी की किताब में ‘अम्मी-अब्बू’ क्यों? वो भी दूसरी कक्षा की किताब में? बड़ा वाजिब सवाल था और अब भी है, लेकिन इसकी आड़ में उर्दू को निशाना बनाकर धार्मिक आस्था पर हमले की बात कहकर आप सियासी नफ़रत की वही दीवार अपने आंगन में भी खड़ी कर रहे हैं, जिसको हमारी सियासत अक्सर मज़बूत करने को तत्पर रहती है.

सवाल नरेंद्र मोदी की पढ़ाई लिखाई का नहीं, बल्कि फ़र्ज़ी डिग्री के आरोप का है

भारत में सांसद और विधायक बनने के लिए किसी भी तरह की डिग्री की ज़रूरत नहीं है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि सांसद और विधायक अपने चुनावी हलफ़नामे में अगर फ़र्ज़ी डिग्री पेश करें तो यह कोई ग़लती नहीं है. नरेंद्र मोदी की डिग्री को लेकर गुजरात हाईकोर्ट का फैसला इस तरह के संशय को बढ़ाता ही है.

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