सीपीआई को यह भ्रम है कि इसके पास एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो हर सामाजिक परिघटना की व्याख्या कर सकती है, लेकिन उसके सहारे चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री सत्ता पर पूरी तरह नियंत्रण चाहते हैं. उनके तमाम कदम इसी दिशा में जाते दिखाई देते हैं. क्या भारतीय संविधान उन्हें इसकी अनुमति देता है? संविधान निर्माता प्रधानमंत्री को किस तरह की शक्तियां सौंपना चाहते थे?
इस योजना ने इन गांवों और युवाओं का जीवन किस तरह प्रभावित किया है? क्या अब ये फौजियों के गांव नहीं कहलाए जाएंगे? जीवन का एकमात्र सपना बिखर जाने के बाद ये युवक अब क्या कर रहे हैं? क्या सेना को इस योजना की आवश्यकता है? क्या सेना के आधुनिकीकरण के लिए यह एक अनिवार्य कदम है?
इन प्रश्नों की पड़ताल के लिए द वायर ने देश के ऐसे कई इलाकों की यात्रा की. इस सिलसिले में पहली क़िस्त हरियाणा
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पूर्व सिविल सेवकों के 'संवैधानिक आचरण समूह' ने सांप्रदायिक घृणा, हिंसा, चुनाव और मतदान, मौलिक अधिकारों समेत विभिन्न मुद्दों को लेकर पत्र लिखे हैं. किताब के रूप में उन पत्रों का संचयन इस डराऊ-धमकाऊ समय में निर्भय, जागरूक साहस और असहमति का दस्तावेज़ है.
सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर इंडिया के मुताबिक़, 2012 से 2024 के बीच जम्मू कश्मीर के बाद राजस्थान में सबसे ज़्यादा बार इंटरनेट बंद किया गया है. इस तरह इंटरनेट पर आधारित ऐप्स से जुड़े रोज़गारों के लिए नियमित इंटरनेट बंदी बड़ी मुसीबत बन गई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उनके दल के नेताओं की हेट स्पीच पर चुनाव आयोग की ख़ामोशी से अंदाज़ मिलता है कि भाजपा नेताओं को माहौल सांप्रदायिक बनाने के लिए उसने पूरी छूट दी है.
ये नोटिस अमूमन पासवान, महतो और तेली जैसी अति-पिछड़ी जाति और अनुसूचित जातियों के सदस्यों के पास आए हैं. इस आरोप से डरकर ये लोग मतदान के दिन अपना गांव छोड़कर जाने का सोच रहे हैं- इस तरह यह नोटिस इन्हें मतदान के अधिकार से वंचित कर सकता है.
इस ऐतिहासिक चुनाव का श्रेय कई इंसानों और संस्थाओं को दिया जा सकता है, लेकिन किसी भी मूल्यांकन की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू और सुकुमार सेन के साथ उन दो संस्थाओं से होनी चाहिए जिनके उत्कृष्ट मूल्यों को दोनों इंसान रूपायित करते थे - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय सिविल सेवा.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र अपने आप सीधी राह पर वापस नहीं आता या आ सकता. हम ऐसे मुक़ाम पर हैं जहां नागरिक के लोकतांत्रिक विवेक की परीक्षा है. उन्हें ही निर्णय करना है कि वे लोकतंत्र पर सीधी राह पर वापस लाने की कोशिश करना चाहते हैं या नहीं.
कांग्रेस का घोषणा पत्र सामने आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे मुस्लिम लीग से जोड़ा था. क्या यह बेतुकी तुलना भाजपा की उस ग्रंथि को दर्शाती है जब आज़ादी से पहले जिन्ना की अगुआई वाली इसी लीग के साथ मिलकर उसके ‘विचारधारात्मक पुरखों’ ने गुल खिलाए थे!
छत्तीसगढ़ की आदिवासी बहुल बस्तर लोकसभा सीट पर तीन मुख्य उम्मीदवार भिन्न विचारधारा से जुड़े हैं. परंपरागत भाजपा-कांग्रेस मुकाबला इस बार सलवा जुड़ुम के एक दिवंगत नेता के बेटे के निर्दलीय उतरने के बाद रोचक हो गया है. यहां पहले चरण में 19 अप्रैल को मतदान होना है.
मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के ‘मिशन 29’ की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बनी वरिष्ठ कांग्रेसी कमल नाथ के प्रभाव वाली छिंदवाड़ा लोकसभा सीट को जीतने के लिए पार्टी ने ‘दल बदल की राजनीति’ को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया है.
23 बरस पहले उत्तराखंड जिस मकसद के लिए बनाया गया, उसे लेकर आज लगता है कि लोगों की आकांक्षाओं को अनदेखा किया गया और बुनियादी मुद्दों से भटकाने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर धकेल दिया गया.
प्रधानमंत्रियों के निर्वाचन क्षेत्र के निवासी वीआईपी सीट के गुमान में भले जीते रहें, लेकिन इससे उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना पर कोई फ़र्क पड़ता दिखाई नहीं देता. और न प्रधानमंत्री की उपस्थिति ऐसे क्षेत्रों की समस्याओं को सुलझा पाती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी में पिछले लगभग पचास वर्षों से साहित्य को राजनीतिक-सामाजिक संदर्भों में पढ़ने-समझने की प्रथा लगभग रूढ़ हो गई है. ये संदर्भ साहित्य को समझने में सहायक होते हैं पर साहित्य को उन्हीं तक महदूद करना साहित्य की समग्रता से दूर जाना है.