हिंदी के प्रति इतनी हिकारत कहां से आई?

इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!

…और सुबह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव

बनारस का ज़िक्र इसकी सुबहों के बिना अधूरा है. जहां शाम-ए-अवध इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार बदलने को मजबूर हुई, सुबह-ए-बनारस जाने कितनी सदियों से वैसी ही है. सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के लगने लगते हैं और चिड़ियों की चहचहाहट सुहागे का काम करती है.

नेहरू ने सेंगोल को संग्रहालय में रखवाकर उसका तिरस्कार नहीं किया था

जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के समय तमिलनाडु के अधीनम (शैव मठ) के पुराहितों के द्वारा सेंगोल को तो ले लिया, लेकिन उसके पीछे के विचार से असहमति के कारण उसको संग्रहालय में रखवा दिया, ताकि भविष्य में अध्येता यह समझ सकें कि भारतीय जनतंत्र का जन्म अनेक परस्पर विरोधी विचारों के बीच हुआ है.

उत्तराखंड में भू-क़ानून सख़्त करने का शिगूफ़ा और सुलगते सवाल!

हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का भू-क़ानून में सख़्ती लाने का बयान खोखला और सियासी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं लगता. राज्य में बाहरी लोगों की आबादी बढ़ने के पीछे असली मकसद केवल एक ख़ास धर्म विशेष यानी मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाना ही है, ताकि इस बहाने वोट मिलता रहे और सत्ता बनी रहे.

रज़ा की कृतियों में आधुनिकता का एकांत है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है. 

मधु लिमये याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे. 

भारतीय उपमहाद्वीप में हर दूसरे रोज़ आहत हो रही भावनाओं पर बात करने का हक़ किसे है?

पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक भारतीय उपमहाद्वीप में आए दिन किसी न किसी की आहत भावनाओं की बात होती रहती है और उसकी स्वाभाविक प्रतिकिया के तौर पर उत्पाती समूहों द्वारा इसका बदला लेने के लिए की गई हिंसा की ख़बर आती रहती है, लेकिन सवाल है कि आख़िर किसकी भावनाएं आहत होती हैं?

क्या दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू जैसे कैंपस हिंदुत्व के प्रशिक्षण केंद्र में शेष हो जाएंगे

कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.

क्या हम साहित्य से बहुत अधिक उम्मीद लगाए बैठे हैं?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी.

अपराधियों को ‘ग़ुंडा, माफ़िया या डॉन’ क्यों कहा जाता है?

बीते दिनों सज़ायाफ़्ता गैंगस्टर मुख़्तार अंसारी ने यूपी की एक स्थानीय अदालत में अर्ज़ी देकर कहा कि मीडिया को उनके नाम के साथ 'बाहुबली' और 'डॉन' जैसे शब्द न इस्तेमाल करने के निर्देश दिए जाएं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि आम बोलचाल और क़ानून में यह शब्द कैसे पहुंचे?

‘द केरला स्टोरी’ से मुसलमान विरोधी घृणा प्रचार के लिए अन्य फ़िल्मकारों को प्रेरणा मिलेगी

फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ के बाद ‘द केरला स्टोरी’ का बनाया जाना एक सिलसिले की शुरुआत है. कम पैसों में, ख़राब अभिनय और निर्देशन के बावजूद सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार के विषय के सहारे अच्छी कमाई हो सकती है, क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के प्रचार में अब राज्य की मशीनरी और भाजपा का एक पूरा तंत्र काम करता है. 

‘द केरला स्टोरी’ पर बैन लगाना कोई हल नहीं है

फिल्म में स्पष्ट रूप से फ़र्ज़ी नैरेटिव और आंकड़े दिए गए हैं, और बात प्रोपगैंडा से कहीं आगे की है, लेकिन फिर भी दर्शकों के पास इसे देखकर इसके बारे में अपनी राय बनाने का विकल्प होना चाहिए.

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने देश के राजनीतिक विमर्श को बदल दिया है

कांग्रेस की सामाजिक न्याय की राजनीति ने भाजपा की ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की राजनीति पर ब्रेक लगा दिया है. ज़ाहिर तौर पर इसका दूरगामी असर होगा.

कर्नाटक चुनाव परिणाम: पार्टी में विकेंद्रीकरण कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुआ है

मोदी-शाह की जोड़ी राज्य स्तर पर पार्टी संगठनों पर कड़ा नियंत्रण चाहती है और सभी मुख्यमंत्रियों को अपने अधीन रखना चाहती है. हालांकि, हाल के चुनावों में कांग्रेस ने विकेंद्रीकरण को अपनाते हुए राज्य के नेताओं को आगे रखा है.

कर्नाटक चुनाव: भाजपा के हिंदुत्व की गुदगुदी अब हंसाने के बजाय रुलाने लगी है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह कर्नाटक विधानसभा चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर समूचे प्रचार में अपने पद की गरिमा तक से समझौता किए रखा और मतदाताओं ने जिस तरह उनकी बातों की अनसुनी की, उसका साफ़ संदेश है कि भाजपा के ‘मोदी नाम केवलम्’ वाले सुनहरे दिन बीत गए हैं.

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