कलाकार जो करता है उस पर यक़ीन करो, बजाय उसके जो वो अपनी कला के बारे में कहे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्‍योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.

शती के अवसर पर मूर्धन्‍यों की स्मृति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 2024 मूर्धन्य चित्रकारों सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन का जन्मशती वर्ष हैं. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्म्क कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है.

वेनिस बिनाले: कला संसार का उत्सव ज़रूर मनाती है पर उसके त्रास को अनदेखा नहीं करती

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर. बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता, सुविधाओं के अभाव के चलते कलाकार अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा.

शहर कब अपने लेखक को याद करना सीखेंगे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य के अपने समाज के अलावा व्यापक हिंदी समाज में कौन इलाहाबाद को निराला-महादेवी के शहर, बनारस को प्रसाद-रामचंद्र शुक्ल के शहर, पटना को दिनकर-नागार्जुन-रेणु के शहर की तरह जानता-पहचानता है?

रश्दी को उनके साहित्य ने ही ख़तरे में डाला, फिर उसी ने बचाया

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सलमान रश्दी की हालिया किताब से एक बार फिर यह ज़ाहिर होता है कि उनका सबसे कारगर हथियार और सबसे विश्वसनीय कवच साहित्य ही रहा है, जहां उनकी भाषा और कल्पना सबसे टिकाऊ आश्रय पाती रही है.

अंधे युग में हिंदी सिनेमा

वीडियो: पिछले दस सालों में देश की राजनीति के साथ हिंदी सिनेमा में भी अहम बदलाव देखने को मिले हैं. जहां एक ख़ास तरह के सिनेमा को आसानी से फंडिंग आदि मिल रही है, वहीं उद्योग के कई प्रतिभाशाली लोगों, विशेषकर वो जो भाजपा की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते, के सामने मुश्किलें आ रही हैं. इस बारे में अभिनेता सुशांत सिंह से बात कर रहे हैं द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज.

वेनिस बिनाले से भारतीय पवेलियन की अनुपस्थिति

कला-यात्रा: वेनिस में प्रतिष्ठित बिनाले के साठवें संस्करण की शुरुआत हो चुकी है. अफ़सोस यह है कि पूरा विश्व जब अपने सांस्कृतिक स्रोतों के संवर्धन पर ध्यान दे रहा है, भारत अपनी विशिष्ट उपलब्धि को रेखांकित करने में नाकामयाब रहा है.

निर्भयता ऐसे नहीं आती: उसके लिए जतन ज़रूरी है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.

कला जीवन को घेरती है और स्वयं जीवन से घिरी होती है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है. सामग्री की विविधता, उसका विस्मयकारी उपयोग चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है.

बीएन गोस्वामी, जिन्होंने सारा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने में लगा दिया

स्मृति शेष: प्रख्यात कला-इतिहासकार और भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ बीएन गोस्वामी नहीं रहे. यह उन जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वह कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके. 

हिंसा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी हेकड़ी दिखा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

बिहार जाति सर्वेक्षण: एक कलाकार जाति है जट

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. ग्यारहवां भाग जट जाति के बारे में है.

न्यूज़क्लिक पर छापेमारी को पत्रकारों, कलाकारों, शिक्षाविदों ने प्रेस फ्रीडम पर हमला बताया

यूएपीए के तहत दर्ज एक मामले में पूछताछ के बाद दिल्ली पुलिस ने बीते 3 अक्टूबर को समाचार वेबसाइट न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और प्रशासक अमित चक्रवर्ती को गिरफ़्तार कर लिया था. वर्तमान एफ़आईआर की जड़ें कथित तौर पर बीते अगस्त माह में न्यूयॉर्क टाइम्स में आई एक रिपोर्ट से जुड़ी हुई है.

बुद्धि-आधारित समाज बनाना तो दूर, सारी कोशिश बुद्धि व विवेक शून्य समाज बनाने की है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: देश में घृणा, परस्पर अविश्वास, भेदभाव, अन्याय, झूठ, अफ़वाह सभी में अद्भुत विस्तार हुआ है. राजनीति, मीडिया, धर्म, सामाजिक आचरण सभी मर्यादाहीन होने में कोई संकोच नहीं करते. राजनीति की सर्वग्रासिता, सार्वजनिक ओछापन-टुच्चापन लगभग अनिवार्य माने जाने लगे हैं. 

हिंदी अंचल को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. उसका लक्ष्य बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटा सांप्रदायिकता-हिंसा, भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग को बढ़ावा देना है.

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