हिंदी फिल्में सफलता के लिए आबादी के हर हिस्से और हर धर्म के दर्शकों पर निर्भर करती हैं. पर इस बार यहां हमारे सामने एक ऐसी फिल्म आई, जिसे सिर्फ (कट्टर) हिंदू दर्शकों की ही दरकार है.
अभिनेता शाहरुख़, सलमान और आमिर ख़ान की राजनीतिक मुद्दों पर चुप्पी को लेकर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने कहा, ‘मैं उनके लिए नहीं बोल सकता. मुझे लगता है कि उन्हें लगता है कि वे बहुत अधिक जोख़िम उठा रहे होंगे, लेकिन फ़िर मुझे नहीं पता कि वे इसके बारे में अपनी अंतरात्मा को कैसे समझाते हैं. मुझे लगता है कि वे ऐसी स्थिति में हैं, जहां उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है.’
केके के नाम से मशहूर 53 वर्षीय गायक कृष्णकुमार कुन्नथ का मंगलवार रात कोलकाता में निधन हो गया. बताया गया है कि अपने शो में क़रीब एक घंटे तक परफॉर्म करने के बाद जब वे वापस अपने होटल पहुंचे तो अस्वस्थ महसूस कर रहे थे. उन्हें एक निजी अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
सिंगापुर की इन्फोकॉम मीडिया डेवलपमेंट अथॉरिटी ने संस्कृति, समुदाय और युवा मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय के साथ एक संयुक्त वक्तव्य में कहा कि इस फिल्म को सिंगापुर के फिल्म वर्गीकरण दिशानिर्देशों के मानकों से परे पाया है.
भारतीय पायलट संघ ने अजय देवगन की हाल में रिलीज़ हुई फिल्म ‘रनवे 34’ का विरोध करते हुए आरोप लगाया है कि फिल्म में पायलटों के पेशे का चित्रण वास्तविकता से परे है और इससे हवाई सफर करने वाले यात्रियों के मन में आशंकाएं पैदा हो सकती हैं. फिल्म में पायलटों को ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार करते तथा कॉकपिट में धूम्रपान करते हुए दिखाया गया है.
सलीम ग़ौस ने अपने अभिनय की शुरुआत 1978 में फिल्म स्वर्ग नरक से की थी, जिसके बाद उन्होंने चक्र, सारांश, मोहन जोशी हाज़िर हो जैसी कई अन्य फिल्मों में अभिनय किया था. उन्होंने श्याम बेनेगल की टीवी सीरीज़ भारत एक खोज में राम, कृष्ण और टीपू सुल्तान की भूमिकाएं निभाई थीं. साथ वह दूरदर्शन के प्रसिद्ध धारावाहिक वागले की दुनिया का भी हिस्सा थे.
बीते दिनों कन्नड अभिनेता किचा सुदीप द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने के संबंध में एक बयान दिया था, जिस पर बॉलीवुड अभिनेता अजय देवगन ने पटलवार करते हुए कहा था कि हिंदी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा थी, है और हमेशा रहेगी. हिंदी फिल्मों की तुलना में दक्षिण की ‘केजीएफ चैप्टर 2’ और ‘आरआरआर’ जैसी फिल्मों की सफलता ने हिंदी बनाम अन्य की बहस को फिर से तेज़ कर दिया है.
साल 1989 का एक वाकया सुनाते हुए तेलुगू अभिनेता चिरंजीवी ने बताया कि उनकी फिल्म ‘रुद्रवीणी’ को नरगिस दत्त सम्मान देने के लिए दिल्ली बुलाया गया था. उन्होंने कहा कि इससे पहले हुए एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय सिनेमा के इतिहास को चित्रित करने वाली एक दीवार पर हिंदी सिनेमा की जानकारी भरी हुई थी, लेकिन दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग के बारे में बहुत ही कम जानकारी दी गई थी.
हिंदी फिल्मों की तुलना में दक्षिण भारतीय फिल्मों को मिली जबरदस्त सफलता के संदर्भ में कन्नड अभिनेता किचा सुदीप ने कहा है कि आज हम ऐसी फिल्में बना रहे हैं, जो वैश्विक स्तर पर नाम कमा रही हैं. उनका बयान ऐसे समय आया है, जब हाल में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा है और इससे निश्चित रूप से हिंदी का महत्व बढ़ेगा. समय आ गया है कि राजभाषा को देश की एकता
लोग ये बहस कर सकते हैं कि फिल्म में दिखाई गई घटनाएं असल में हुई थीं और कुछ हद तक वे सही भी होंगे. लेकिन किसी भी घटना के बारे में पूरा सच, बिना कुछ भी घटाए, जोड़े और बिना कुछ भी बदले ही कहा जा सकता है. सच कहने के लिए न केवल संदर्भ चाहिए, बल्कि प्रसंग और परिस्थिति बताया जाना भी ज़रूरी है.
सिनेमाघरों में द कश्मीर फाइल्स देखने वालों के नारेबाज़ी और सांप्रदायिक जोश से भरे वीडियो तात्कालिक भावनाओं की अभिव्यक्ति लगते हैं, लेकिन ऐसे कई वीडियो की पड़ताल में कट्टर हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं और संगठनों की भूमिका स्पष्ट तौर पर सामने आती है.
विवेक रंजन अग्निहोत्री भाजपा के पसंदीदा फिल्मकार के रूप में उभर रहे हैं और उन्हें पार्टी का पूरा समर्थन मिल रहा है.
कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ हिंसा ऐसी त्रासदी है जिस पर बात करते समय सिर्फ उसी पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए. किसी त्रासदी को तुलनीय बनाना उसका अपमान है. 'कश्मीर फ़ाइल्स' के निर्माताओं को यह सवाल करना चाहिए कि क्या वास्तव में कश्मीरी पंडितों की पीड़ा ने उन्हें फिल्म बनाने को प्रेरित किया या उसकी आड़ में वे अपनी मुसलमान विरोधी हिंसा को ज़ाहिर करना चाहते थे?
कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर बदनुमा दाग़ है और उसे मिटाने के लिए तथ्यों के धार्मिक सांप्रदायिक नज़रिये वाले फिल्मी सरलीकरण की नहीं बल्कि व्यापक और सर्वसमावेशी नज़रिये की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से यह ज़रूरत अब तक नहीं पूरी हो पाई है और पंडितों को राजनीतिक लाभ के लिए ही भुनाया जाता रहा है.
हालिया रिलीज़ फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में कश्मीरी पंडितों के बरसों पुराने दर्द को कंधा बनाकर और उस पर मरहम रखने के बहाने कैसे एक पूरे समुदाय विशेष को ही निशाना बनाया जा रहा है.