कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर. बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता, सुविधाओं के अभाव के चलते कलाकार अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा.
पुस्तक अंश: गुलज़ार के गीतों और फिल्मों ने कई पीढ़ियों को संस्कार दिया है, हिंदी सिनेमा के भीतर शास्त्रीयता की संभावना को जीवित रखा है. यतीन्द्र मिश्र ने अपनी किताब में इस बेजोड़ कलाकार की आत्मा को बड़ी बारीकी से अंकित किया है.
नैयरा नूर की पैदाइश हिंदुस्तान की थी, पर आख़िरी सांसे उन्होंने पाकिस्तान में लीं. वे इन दोनों मुल्कों की साझी विरासत की उन गिनी चुनी कड़ियों में थी, जिन्हें दोनों ही देश के संगीत प्रेमियों ने तहे-दिल से प्यार दिया.
वीडियो: पिछले दस सालों में देश की राजनीति के साथ हिंदी सिनेमा में भी अहम बदलाव देखने को मिले हैं. जहां एक ख़ास तरह के सिनेमा को आसानी से फंडिंग आदि मिल रही है, वहीं उद्योग के कई प्रतिभाशाली लोगों, विशेषकर वो जो भाजपा की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते, के सामने मुश्किलें आ रही हैं. इस बारे में अभिनेता सुशांत सिंह से बात कर रहे हैं द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज.
कला-यात्रा: वेनिस में प्रतिष्ठित बिनाले के साठवें संस्करण की शुरुआत हो चुकी है. अफ़सोस यह है कि पूरा विश्व जब अपने सांस्कृतिक स्रोतों के संवर्धन पर ध्यान दे रहा है, भारत अपनी विशिष्ट उपलब्धि को रेखांकित करने में नाकामयाब रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी में ऐसा आलोचनात्मक माहौल बन गया है कि भाषा को महत्व देना या कि उसकी केंद्रीय भूमिका की पहचान करना, उस पहचान को ब्योरों में जाकर सहेजना-समेटना अनावश्यक उद्यम मान लिया गया है.
एक सरकारी नौकरी को पाने के लिए लाखों लाख युवा अपनी युवावस्था, अपनी उत्पादकता के सबसे चरम वर्षों को जिस पूरी यंत्रणा से गुज़ारते हैं, क्या वह वाकई ज़रूरी है?
पुस्तक समीक्षा: 1989 में इंग्लैंड की पत्रकार जोन स्मिथ द्वारा लिखी गई 'मिसोजिनीज़' जीवन के हरेक क्षेत्र- अदालत से लेकर सिनेमा तक व्याप्त स्त्रीद्वेष की पड़ताल करती है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें, तो स्त्रीद्वेष की व्याप्ति असीमित दिखने लगती है.
शाहरुख़ ख़ान भले ही कहें कि उनकी दिलचस्पी सिर्फ 'एंटरटेन' करने में है, पर उनकी हालिया फिल्मों से पता चलता है कि मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें किसी न किसी क़िस्म के संदेश देने में भी दिलचस्पी है.
शाहरुख़ ख़ान की 'जवान' का स्पष्ट राजनीतिक संदेश यह है कि 'सक्रिय नागरिकों' की निरंतर निगरानी के बिना लोकतंत्र को नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
हमारी हालत अब भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी क़ैद के बाद पिंजरे में से आज़ाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आज़ादी का करना क्या है. उसके पास पंख हैं पर ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है.
मुंबई के सबसे बड़े थिएटरों में से एक इरोज़ को मल्टीप्लेक्स और रिटेल आउटलेट में तब्दील किए जाने की सूचना है और इस बात से इसके चाहने वाले ख़ुश नहीं हैं.
उत्तराखंड के एक छोटे-से क़स्बे नानकमत्ता के एक स्कूल में छात्रों को परंपरागत शिक्षा के साथ-साथ सिनेमा को एक पढ़ाई के ही एक नए माध्यम के रूप में जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है.
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित गायक शान की ईद की शुभकामनाएं देने वाली एक पोस्ट पर उनकी मुस्लिम वेशभूषा को लेकर घृणा भरे कमेंट्स किए गए थे. इनके जवाब में शान ने कहा है कि सब प्यार से रहें और इस तरह की ध्रुवीकृत सोच न रखें क्योंकि इससे सिर्फ नुक़सान हो सकता है. यह सोच बदलनी चाहिए और अधिक समावेशी होना चाहिए.
इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की आत्मकथा ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसिडेंट बुश’ पर आधारित, फिल्मकार महेश भट्ट का नाटक ‘द लास्ट सैल्यूट’ अब किताब की शक्ल में सामने आया है. इस पर बात करते हुए भट्ट ने कहा कि कुछ ही लोग होंगे जो हिम्मत करके सच लिखेंगे और कुछ ही लोग होंगे जो थिएटर के ज़रिये इसे पेश करेंगे.