कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.
अनामिका की एक सामान्य-सी कविता के एक संदर्भ को लेकर चल रही बहस के भीतर चिंगारियां या अदावत का आह्लाद तलाश करने के बजाय यह देखना ज़रूरी है कि हम शब्दों के प्रति कितने सचेतन हैं कि कविता के शब्द कभी हमारी स्मृतियों के भीतर भी कभी नहीं गिरें. भले ही वे नारायण पंडित के हितोपदेश के किसी श्लोक के शब्द हों या फिर अनामिका की किसी स्मृति के बिंब से जुड़े.
सर्वथा खगोलीय कारणों से किए गए लीप ईयर के निर्धारण से विभिन्न देशों में समय के साथ अनेक रोचक सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताएं भी जुड़ीं. कहीं लीप ईयर को उल्लास का अवसर मानकर उसकी ख़ुशी मनाने के लिए सार्वजनिक छुट्टी की मांग की जाती है तो कहीं इसे अशुभ क़रार दिया जाता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.
दयानंद सरस्वती कहते थे कि एक तो मूर्तिपूजा अधर्म है और दूसरा यह देश की एकता के लिए ख़तरनाक़ है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राम की महिमा है कि उनकी स्तुति में शामिल होकर हत्यारे-लुटेरे-जघन्य अपराधी अपने पाप धो लेंगे और राम-धवल होकर अपना अपराधिक जीवन जारी रखेंगे. राम की महिमा है कि उन्होंने इतना लंबा वनवास सहा, अनेक कष्ट उठाए जो यह तमाशा, अमर्यादित आचरण भी झेल लेंगे.
आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है.
अगर हिंदू जनता को यह यक़ीन दिलाया जा सकता है कि यह मंदिर उसकी चिर संचित अभिलाषा को पूरा करता है तो इसका अर्थ है कि हिंदू मन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह कब्ज़ा हो चुका है.
स्मृति शेष: जेपीएस ओबेरॉय को जो बात उन्हें अलग करती थी, वो थी समाजशास्त्रीय अध्ययन को सिर्फ भारत की सीमाओं तक महदूद न करने की उनकी अनवरत कोशिश. उन्होंने अपने सहयोगियों और छात्रों को भी भारत के अलावा एशियाई, अफ्रीकी और यूरोपीय समाजों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. इसी क्रम में, ओबेरॉय ने डीयू के समाजशास्त्र विभाग में ‘यूरोपियन स्टडीज़ प्रोग्राम’ की भी शुरुआत की.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नेहरू युग में संस्कृति और राजनीति, सारे तनावों और मोहभंग के बावजूद, सहचर थे जबकि आज संस्कृति को राजनीति रौंदने, अपदस्थ करने में व्यस्त है. बहुलता, असहमति आदि के बारे में सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रसार हो रहा है. व्यंग्य-विनोद-कटूक्ति-कॉमेडी पर लगातार आपत्ति की जा रही है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.
शाहरुख़ ख़ान भले ही कहें कि उनकी दिलचस्पी सिर्फ 'एंटरटेन' करने में है, पर उनकी हालिया फिल्मों से पता चलता है कि मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें किसी न किसी क़िस्म के संदेश देने में भी दिलचस्पी है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा के देहावसान को सात बरस हो गए. इन सात बरसों में उनकी कला की समझ-पहचान और व्याप्ति उनके मातृदेश के अलावा संसार भर में बहुत बढ़ी है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.