‘खेला’ अपने बिखराव और उलझाव के बावजूद साहसिक उपन्यास है…

पुस्तक समीक्षा: नीलाक्षी सिंह का ‘खेला’ आसानी से हाथ आने वाला कथानक नहीं है. इसमें कई पात्रों का भंवर जाल-सा है, तो कहीं लगता है कि समकालीन विमर्शों का लावा फूट पड़ा है.

रघुवीर सहाय: कुछ न कुछ होगा, अगर मैं बोलूंगा…

जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय की कविता राजनीतिक स्वर लिए हुए वहां जाती है, जहां वे स्वतंत्रता के स्वप्नों के रोज़ टूटते जाने का दंश दिखलाते हैं. पर लोकतंत्र में आस्था रखने वाला कवि यह मानता है कि सरकार जैसी भी हो, अकेला कारगर साधन भीड़ के हाथ में है.

कविता बेआवाज़ को आवाज़ देती है, अनदेखे को दिखाती है, अनसुने को सुनाती है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कविता याद रखती है, भुलाने के विरुद्ध हमें आगाह करती है. जब हर दिन तरह-तरह के डर बढ़ाए-पोसे जा रहे हैं, तब कविता हमें निडर और निर्भय होने के लिए पुकारती है. यह समय हमें लगातार अकेला और निहत्था करने का है: कविता हमें अकेले होने से न घबराने का ढाढ़स बंधाती है.

जो समाज स्वतंत्र नहीं है क्या वहां का साहित्य स्वतंत्र बना रह सकता है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता-संघर्ष का एक ऐसा उपक्रम है जो कभी समाप्त नहीं होता. सामान्य रूप से देखें, तो इस समय हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को कोई गंभीर ख़तरा नहीं है. ख़तरा बौद्धिक-सर्जनात्मक-वैचारिक और नागरिक स्वतंत्रता को है और हर दिन बढ़ता ही जा रहा है.

कलाएं हमें अधिक मानवीय, संवेदनशील और सहिष्णु बनाती हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिन्दी अंचल की बढ़ती धर्मांधता, सांप्रदायिकता और हिंसा की मानसिकता आदि का एक कारण इस अंचल की मातृभाषा और कलाओं से ख़ुद को वंचित रहने की वृत्ति है. स्वयं को कला से दूर कर हम असभ्य राजनीति, असभ्य माहौल और असभ्य सार्वजनिक जीवन में रहने को अभिशप्त हैं.

मुक्तिबोध: ज़माने के चेहरे पर… ग़रीबों की छातियों की ख़ाक है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध ने आज से लगभग छह दशक पहले जो भारतीय यथार्थ अपनी कविता में विन्यस्त किया था, वह अपने ब्यौरों तक में आज का यथार्थ लगता है.

आज धूमिल जीवित होते तो देशद्रोही के ख़िताब से ज़रूर नवाज़े गए होते…

जन्मदिन विशेष: जिस धूमिल ने देश की व्यवस्था की कमज़ोरियों और नागरिकों से उसकी दूरी को इतना ‘नंगा’ किया, आज उस देश में धूमिल जैसे स्वर के लिए कितनी जगह बची है?

नेपाल के स्वाभिमान व स्वतंत्रता का एहतराम किए बिना हमारे संबंध सशक्त नहीं हो सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नेपाल में हमारी अपनी सभ्यता के कुछ सुंदर रूप अब भी बचे हैं और हमें इस जीवित संरक्षण के लिए उसका कृतज्ञ होना चाहिए.

हिंदी साहित्य के मशहूर आलोचक और लेखक मैनेजर पांडेय का निधन

मैनेजर पांडेय हिंदी में मार्क्सवादी आलोचना के प्रमुख हस्‍ताक्षरों में से एक रहे हैं. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर रहने के अलावा उन्होंने बरेली कॉलेज और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे थे.

निर्मल वर्मा: साहित्य में एक जीवन

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनीत गिल की किताब निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन, हर खोज या स्थापना के लिए प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य उनका लेखन है.

श्याम मनोहर पाण्डेय: मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अध्येता

स्मृति शेष: श्याम मनोहर पाण्डेय भोजपुरी लोक महाकाव्य लोरिकी और मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अध्येता थे, जिनका बीते दिनों लंदन में निधन हो गया.

श्रीलंकाई लेखक शेहान करुणातिलक ने 2022 का बुकर पुरस्कार जीता

श्रीलंकाई लेखक शेहान करुणातिलक को उनके उपन्यास ‘द सेवन मून्स ऑफ माली अल्मेडा’ के लिए बुकर पुरस्कार दिया गया है. उनके उपन्यास में माली अलमेडा नामक एक युद्ध फोटोग्राफर की कहानी है, जो मौत के बाद स्वर्ग पहुंचता है और गृहयुद्ध के अत्याचारों की तस्वीरों का एक ज़ख़ीरा उसके हाथ लग जाता है.

अब हम राजनीति के समय में नहीं, ‘राजबाज़ारी’ के युग में हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज की सत्तारूढ़ राजनीति के सिलसिले में सब कुछ 'राज' पर इतना एकाग्र हो चला है कि 'नीति' लगभग ग़ायब हो गई है. नीति के राजनीति से लोप के चलते उसके लिए कोई नया शब्द गढ़ना चाहिए. इसी बीच, राज और बाज़ार का संबंध बहुत गाढ़ा हुआ है और वे एक-दूसरे के पोषक हो गए हैं.

शेखर जोशी जीवन की असाधारण निरंतरता के लेखक थे

स्मृति शेष: नई कहानी भावों, मूड की कहानी थी. यहां वैयक्तिकता केंद्र में थी. पर शेखर जोशी इस वैयक्तिकता में भी एक ख़ास क़िस्म की सामाजिकता लेकर आते हैं, क्योंकि बक़ौल जोशी, लेखन उनके लिए ‘एक सामाजिक ज़िम्मेदारी से बंधा हुआ कर्म है.’

हमारी एकता हमारी बहुलता में है, किसी भाषिक या धार्मिक एकरूपता में नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भाषाओं की विविधता और उनमें रचना और विचार, ज्ञान और अनुभव की जो विपुलता और सक्रियता है उसे उजागर करें तो हर भारतीय को यह अभिमान सहज हो सकता है कि वह एक बहुभाषिक, बहुधार्मिक राष्ट्र का नागरिक है जिसके मुकाबले भाषाओं और बोलियों की संख्या कहीं और नहीं है.

1 8 9 10 11 12 19